November 23, 2024

छत्तीसगढ़ की लोक रचना “गौरा”

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डॉ . बलदेव

अभिजनों से भिन्न सामान्य जन – जीवन के कलात्मक रच रचाव को लोक – रचना कहना चाहिए। सामान्य जन में आदिम जनजातियों से लेकर मैदानी इलाकों के खेतिहर मजदूर , किसान तक शामिल है। इनके जीवन दर्शन के लिए लोक संस्कृति और लोकवार्ता शब्द व्यवहृत होते आए हैं । लोकरचना से आशय लोकसंस्कृति के प्रचलित रूपाकारों से है। जो किसी न किसी रूप में ग्राम्याचलों में आज भी जीवित है . यह समूह की अभिव्यंजना है । श्रम और सौन्दर्य का इसमें अद्भुत सामन्जस्य होता है , इसमें अभिजनों की संस्कृति जैसा स्थैर्य और मसृणता नहीं होती . वैसे भी संस्कृति कह देने से एक सुसंस्कृत जीवन-दर्शन का बोध होता है , उसमें ग्राम्य प्रयोग और अश्लीलता वर्जित है , लेकिन लोक – रचना में ये तत्व सहज रूप से देखे जा सकते हैं , लोक रचना वर्तमान जीवन की नाना विध रंग छवियों से स्पंदित होती रहती है , इसलिये गतिशीलता इसका विशिष्ठ गुण है . इसका चरित्र बड़ा हो समावेशी होता है , इसमें सदैव आवा-जाही लगा रहता है ।

लोकवार्ता से भी सम्पूर्ण लोक जीवन का बोध नहीं होता। लोकवार्ता की अभिव्यंजना वाणी तक सीमित है , वस्तु शिल्प से उसका कोई सीधा सरोकार नहीं है । फोकलोर के लिए व्यवहृत लोकवार्ता शब्द हिन्दी में एक लहर के बाद निष्प्राण हो चुका है। वैसे डॉ . भगवतशरण उपाध्याय , डॉ . श्यामवरण दुबे , डॉ . देवीलाल साम्हर आदि विद्वानों ने इस पर काफी गंभीरता से विचार किया है . सन् 1982 मैं . रायगढ़ में छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सोलहवें अधिवेशन में मैंने कुछ प्राध्यापक मित्रों से लोकरचना को साहित्य गत करने का आग्रह किया था। और खुद भी इस दिशा में काम करने के उद्देश्य से सिनाँप्सेज तैयार किया था , परन्तु विश्व विद्यालय के अकादमी विभाग ने लोकरचना को फोकलोर का पर्याय समझ लिया और संशोधित कर लोकवार्ता शीर्षक से पंजीबद कर दिया , अंग्रेजी का भूत हमारे सिर से कब उतरेगा पता नहीं। परिभाषिक शब्दों के लिए हम हर समय अंग्रेजी शब्द कोश का सहारा ले , यह उचित नहीं। हिन्दी दरिद्र नहीं एक सम्पन्न और गतिशील भाषा है । इसमें तर्क सम्मत नये शब्दों को गढ़ने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकल।

छत्तीसगढ़ की लोकरचना से आशय वाणी और वस्तु के कलात्मक पक्ष अर्थात् लोक साहित्य, लोकनृत्य संगीत , शिल्पकला से है। इसमें अन्योन्याश्रित संबंध है। यह समूह की अभिव्यक्ति है । भले ही स्थानिक रंगों के कारण इसमें विविधता पायी जाती है। लोकरचना जीवन उपयोगी वस्तुओं की कलात्मक अभिव्यक्ति है और विश्व के समूचे विकासमान देशों में इसका कुछ न कुछ अस्तित्व है। फिलहाल लोकरचना के स्वरूप का विस्तार से विवेचन न करते हुए हम यहां लोक साहित्य के अन्तर्गत एक प्रलम्ब लोकगीत को केन्द्र में रखकर छत्तीसगढ़ की रचना धर्मिता पर बातचीत कर सकते हैं।

सभ्यता के प्रथम चरण से ही मनुष्य अपने मनोरागों को गीतों के माध्यम से अभिव्यक्त करता आया है। हमारे यहां जन्म और विवाह के शुभ अवसरों पर सोहर और मंगलगीत तो गाये ही जाते हैं , मृत्यु में भी शोक गीत गाने का रिवाज है। माताएं प्रिय के शोक में रोती – विलपती है तो गीत की कड़िया अनजाने ही गुंथती चली जाती है।

छत्तीसगढ़ के खेतिहरों मजदूरों का हर पल छिन मधुर गीतों से स्पंदित होता रहता है। छत्तीसगढ़ के लोक गीतों में ददरिया, साल्हो , सुआ, भोजली , जवांरा , गौरा , नेवस्ती , बिहा , डिंडवा , सोहर , डंडा , कर्मा , बांस , चनैनी पंडवानी , देवार पंवारा, बिरहुल , डोमकच , रिलो आदि प्रमुख हैं। इनमें नृत्य और संगीत का भरपूर योग होता है। पवारा जैसे प्रलम्ब गीतों को डॉ . विनय कुमार पाठक ने लोकगाथा के अन्तर्गत माना है । ये संस्कार ऋतु तथा पर्व विशेषों से संबंधित गीत है। परन्तु ददरिया और साल्हो सदाबहार गीत है । पंडित मुकुटधर पंडिय ने ददरिया को छत्तीसगढ़ी गीतों की रानी कहा है। लोकगीतों में संगीतात्मकता सरलता , लघुता भावान्विति , आंचलिक मिठास , समूहगत , • भावनाओं का प्रकाशन , और धुनों का वैविध्य होता है। श्री दानेश्वर शर्मा के शब्दों में लोकगीतों में हम सांस्कृतिक संस्पर्श होता है। इन सभी गीतों पर संक्षेप में भी प्रकाश डालने में हम यहाँ अक्षम है। गुणीजन बटलोही के एक दाने को दबाकर भात का अनुमान लगा सकते हैं । छत्तीसगढ़ की लोकरचना की एक झलक हम गौरा नृत्य गीत के माध्यम देने का प्रयत्न करेंगे।

” गौरा ” मूलत : आदिवासियों , खासकर गोड़ और कंवर जातियों का प्रमुख धार्मिक अनुष्ठान है। किसी मनौती के फलस्वरूप “गौरा” बैठाया जाता है । कहीं कहीं रावत जाति के लोग भी गौरा बैठाते हैं । कार्तिक , अगहन और मार्ग – शीर्ष के किसी दिन इसका आयोजन किया जाता है । मैदानी भागों में नवरात्रि के समय नवरात और ग्राम्य – बालाएं इसे नेवरत्ती के रूप में भी मनाती हैं। इस धार्मिक अनुष्ठान में कला साहित्य और नृत्यसंगीत का अद्भुत समावेश होता है। कई जगह गौरा का अर्थ महादेव और कई जगह पार्वती से लेते हैं . इसीलिए इस अनुष्ठान का ” गौरी- गौरा भी नाम प्रचलित हैं , लेकिन जहां केवल ” गौर ” बैठाने की बात कही जाय, वहां गौरा का अर्थ पार्वती से लिया जाता है। जहां ” गौरा ” बैठाया जाता है , वहां सात दिन तक टोकनी में फूल रखर नाचने गानेने का रिवाज है , इसे ” फूल कूचना कहते हैं । सातवें दिन स्त्रियाँ पानी भरने जाती हैं। इसी पानी से मिट्टी को भिगोया जाता है , आठवें दिन माटी कोड़ने जाते हैं , इसे ” माटी मारे ” कहा जाता है। इस समय गजनियां बजनियाँ मांदर और झांझ बजाते आगे बढ़ते हैं पीछे स्त्रियां नाचती चलती हैं । नृत्य गीत की लय विलम्बित होती है , लेकिन मिट्टी लाते समय नृत्य की लय द्रुत में बदल जाती है। अक्सर जहां चिकनी मिट्टी मिलती है , वहीं स्त्रियाँ जाती है , खासकर किसी डिलवा के पास। मिट्टी कोड़ने के पूर्व प्रश्नोत्तर शैली में गौरागीत गाया जाता है। ठीक डंडा काटने या कर्मा नृत्य में प्रयुक्त करमसेनी की डार काटने के वक्त जैसे : —

राजा हिमांसल , गोड़े राजा माटी कोड़े बर जात है हो कहां ओ गौरा रानी जाति जनमल कहां लिए अवतार
हो
डिलवा के माटी मोरा जाति जनमल
राजा हिमांसल घर लेहे अवतार हो

आगे नारी हृदय की कोमल भावनाएं फूट पड़ती है : –

हाथ झन लागे भाई गोड़े झन लागै
मैं नारफूल सहित हावौं डिलवा म
नागिन नाग रखवार हो .

यह कितनी मनोरम और द्रवित कर देने वाली कल्पना है कि डिलवा की माटी के भीतर गौरा शैशवावस्था में है , ऊपर से कुदाल चल रहा है , गौरा सचेत कर रही है- भैया इसी डिलवा के नीचे निवास कर रही हूँ , जरा हाथ पांव बचा के माटी कोड़ना। दर- असल यह छत्तीसगढ़ की वात्सल्य मची माताओ की वह सामूहिक पुकार है , जो बच्चों को जरा सी चोट से मर्नहित हो आंसू के साथ उठती है । फिर यहां तो कुदाल चल रही है और वह भी “गौरा” पर । जड़त्व में भी चेतनता का यह आरोप विलक्षण है। माताएं प्रसव पीड़ा से मुक्त हो गई अनुभव करती है। एक स्वस्थ शिशु को धड़कने दृश्यमान हो गयी है। इन पंक्तियों का काव्यगत सौदर्य देखिए : —

कोड़ि – कुड़ा के होइगे तैयार न
नारमूल साहित फदकत रहे गौरी रानी ओ
नारमूल सहित फदकत हे हो

जमीन के भीतर नारफूल की कल्पना और नारमूल सहित गौरी का फडकना अता प्रयोग शायद कवि गुरू कालिदास के विशाल काव्य भंडार में भी संभव नहीं हो पाया है इतना उदात्त इतना भव्य हुआ करती है लोक जीवन की अभिव्यक्तियाँ इसका अंदाजा रसानुभूति के बाद ही लगाया जा सकता है। आगे का आहलादकारी दृश्य देखिए, मिट्टी टोकनी में भरी जा रही है , स्त्रिया गा रही है : –

एक कती जोरत है , चुल माटी
दूसर कती गौरा रानी ल भरत हे हो
डहर डहर आवत हे गोड़े राजा
राजा हिमासल घर आत है हो

यह गीत काफी लम्बा है , इससे गौरा की जन्म कथा से लेकर विवाह तक का रोचक वर्णन विस्तार से मिलता है । इसमें शांत वात्सल्य श्रृंगार करूण , वीर भयानक , वीभत्स, हास्य आदि सभी रसों का पूर्ण परिपाक होता है । आप इन आरंभिक पंक्तियों से ही अन्दाजा लगा लिए होंगे कि उपर से सहज सरल और सरस दिखने वाली यह लोकरचना अपने पौराणिक संदर्भों में भूत और वर्तमान को समेटे हुई हैं, और यह भारतीय समाज रचना के प्रारंभिक अवस्था को समझने में कारगर है। यह समाज शास्त्रीय विश्लेषण के लिए भी एक सशक्त माध्यम है . प्रकृति को पौराणिक देवता , फिर पौराणिक देवता हिमालय को जा बनाने का अबोध व्यापार अनूठा है। यहां डिलवा की कल्पना भी अनजाने में हिमालय की उयत्पकाओं / शिखरों से कर ली गयी है। प्रकृति को एक सम्पूर्ण पुरुष के रूप में उपस्थित कर देना, यह भारतीय मानस की अत्यन्त उदात्त कल्पना का परिणाम था। न जाने इन लोक गायकों ने इसे कहां से लिया , या हो सकता हैं , कवि मनीषियों ने इसकी प्रेरणा लोकमानस से ली हो ले सकते हैं। आगे राजा को एक देहाती किसान बना दिया गया है , उसे कुदाल और कांवर रवा दिया गया है। उसे श्रम करते भी दिखाया गया है , रानी सुमैना ” गौरा ” के स्वागत में गोबर पानी का छरा- छिटका देती है और वह बेचारी छेवारी भी रह जाती है। ध्यान देन की बात है यहां अलौकिक शक्ति का अवतार तो होता है लेकिन ” गौरा ” सुमैना की कोख से नहीं , बल्कि मिट्टी से उद्भूत होती है यह कैसी अद्भुत कल्पना- विलास है। दरअसल जनमानस ने यहा अनजाने ही अपने श्रमिक रूप को धर्म के रहस्यमय संसार में खड़ा किया है । वह धर्म से इस तरह अनुप्राणित है कि अपनी ही शक्ति स्वरूपा को नहीं पहिचान पाता । दूसरी ओर इतमें प्राचीन समाज प्रणाली का भी पता चलता है , जिसमें गांव का मुखिया है। सामान्य जन के साथ श्रम करता है , वह सुख – दुख में सदैव प्रजा के साथ रहता है । तीसरे धार्मिक अनुष्ठान में भी यहां श्रम की महत्ता स्वीकार की गयी है। चौथे इसमें गोड़ों के मूल का भी संकेत मिलता है , हो सकता है गौरा के उपासक ही आगे चलकर गोंड के नाम से ख्यात हुए हों ।

इस अनुष्ठान में मिट्टी लाने के बाद कुम्हार शिव पार्वती , गणेश और कार्तिकय की मूर्ति लकड़ी के पाटों पर बनाता है। प्रतिमाओं पर चमकदार कागज चिपकाए जाते हैं । यदि मूर्तियाँ सुख गई, तो गौरी को छुही से और महादेव को नील से रंग देते हैं । कुम्हार लोहार गढ़वा , बढ़ई कर्रा , कोस्टा यहां की शिल्पकार जातियाँ है , कुम्हार मिट्टी के घड़ों और मूर्तियों में , गढ़वा और लोहार धातु के औजारों बर्तनों और मूर्तियों में, बढ़ई काष्टों में, कर्रा बांस से बनने वाले टोकनी, पंखे और चटाईयों में तथा कोस्टा और पनिका वस्त्रों में अपने शिल्पी मन को उघार कर रख देते है। कुम्हार मिट्टी के घड़ों में फूल पत्तियों का, सूर्य चाँद तारों का रेखांकन कर उसे बहुमूल्य बना देता है। पोला में उसके द्वारा निर्मित बैल छत्तीसगढ़ियों की श्रम शक्ति , धैर्य और सौन्दर्य का प्रदर्शन करते हैं । लेकिन ” गौरा” की प्रतिमा बनाने में तो, वह मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से उत्खनित मृण्मयी मूर्तियों को भी पीछे छोड़ देता है। अंग विन्यास की · ” ऐसी ऋजुता दुर्लभ है। महादेव और गौरी अआंखें लोल-लोचन विशाल की संज्ञा को चरितार्थ करती है । कुम्हार, काजल कोयल या चावल जलाकर बनायी गयी स्याही का प्रयोग आंख , मूछ लट आदि बनाने में करता है। आठवें दिन फूल कूंचे हुए स्थान या चौरे पर रंगीन कागज से मण्डप तैयार किया जाता है। जिसमें चमकदार कागज की छोटे और फूल पत्तियों की लतरें बनी होती है। मण्डप के नोचे मंगल कलश में जोत जला दी जाती है फिर गौरा- गौरी की प्रतिमा स्थापित की जाती है । मशाल या विद्युत के प्रकाश में गौरा के गौरवर्ण और महादेव के श्याम वर्ण दीफ जैसे आलोकित हो उठते हैं। इस समय सौभाग्यवती स्त्रियों बैगा के सहयोग से पूजा करती है । फिर मंगल गीत शुरू करती हैं। कभी कभी सुआ गीत का भी इनमें योग पाया जाता है । सुघड़ वदना गौड़ कवरों की स्त्रियां इस समय पाटी मारकर जूड़ा बनाती है । और उसमें गोंदा फूल खोसतीं है। सूता बनोरिया , ककनी , टोड़ा , कमर फट्ठा , आदि उनके प्रिय आभूषण होते हैं , पहले ये चांदी के आभूषण पहनती थी अब गिलट और टस्टी से संतुष्ट हो जाती है । लेकिन गुदना इनके शरीर को हरा भरा और मांसल बना देता है। ऐसी सौभाग्यवती स्त्रियां तथा कुंवारी कन्या ‘गौरा’ के सामने नृत्य गीतों से रतजगा करती है। फिर सुबह होम धूप और विदाई , सर्जन का विसर्जन। मंगल कलश में जोत जल रही है , इसके बाद बाघ या कछुवे फर असवार गौरी , नन्दी पर महादेव चूहे पर गणेश और मयूर पर कार्तिकेय। सबसे पीछे कमची और पुट्ठों से निर्मित कैलाश शिखर जो कि सिलवर पेपर से धूप में झकझक करने लगता है । मूर्तियों की सिर पर धारण की हुई सौभाग्यवती ललनाएं मांदर और झांझ के ताल पर कभी आगे बढ़ती हुई कभी पीछे जाती हुई धीरे – धीरे नृत्य करती है । एक दो स्त्रियां झुपती भी है । उनके साथ एक दो पुरुष भी झुपते हैं। बैंगा उन्हें सांट से मारता चलता है। कभी कभी स्त्रियां नाचती नाचती बेहोश हो जाती है। इसे ही गौरा भरना कहते हैं। और रास्ते में ही गौरा रानी चार पाँच बार नारियल मुर्गा और बकरे की चढ़ोत्तरी पा प्रसन्न हो जाती है , नीबू को ही मुर्गा या बकरा बना दिया जाता है। झांझ, मंजीरा और नृत्य गीत की लय में ग्राम्य जन घठौंदा पर पहुंच जाते हैं। अन्तिम होम धूप के बाद क्षमा याचना के साथ गौरा – गौरी की बिदाई अर्थात विसर्जन हो जाता है। भावना का मायामय स्तूप लहरों में विलीन हो जाता है ।ग्राम्य जन भरे मन से वापस लौट आते हैं। इनमें ग्राम के सभी वर्ग के नर , नारी, बाल वृद्ध बगैर भेदभाव के एक साथ शामिल होते हैं और मिल बांटकर नारियल और लाई का प्रसाद खाते हैं ।

अब तक “गौरा’ नृत्य गीतोत्सव के बहाने छत्तीसगढ़ की लोकरचना की एक झलक आपको मिल गयी होगी। समाज की गतिशीलता के अनुरूप इसके बदलते हुए रूप से भी इंकार नहीं किया जा सकता। उसमें अनेक राग- रागनियों का प्रयोग किया जा सकता है। यहां तक इसे लोक – नाट्य के रूप में भी परिवर्तित किया जा सकता है, लेकिन इतना रूपान्तरण न हो कि ” गौरा ” दुर्गा पूजा के रूप में ही परिणत हो जाय , जैसा कि इन दिनों कस्बेनुमा शहरों का आकार पा रहे देहातों में देखने को मिलता है। यहां मैं यह निवेदन कर दूँ कि दोनों ही अनुष्ठानों का समान महत्व हैं , लेकिन अभिजनों की संस्कृति का यह आकृमण एक दिन गौरा पूजा जैसे धार्मिक अनुष्ठानों को भी मनोंरजन के सस्ते मंच के रूप में प्रस्तुत न कर दे इसका खतरा है। वास्तव में दोनों में सुसंस्कृत और प्राकृतजन के जीवन दर्शन का ही अन्तर है । वैसे मूल संवेद्य एक ही है ।

ये बात मैं केवल गौरा को लेकर नहीं कह रहा हूँ बल्कि लोक रचना के सारे आयामों के संदर्भ में कह रहा हूँ चाहे वह पंडवानी और नाचा का आधुनिकीकरण हो या बस्तर के परम्परागत काष्ठ या धातु शिल्पों का व्यवसायीकरण हो , इसकी एक सीमा है। दूसरी ओर बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग है , जो अर्थ और श्रम के वैज्ञानिक चिन्तन के नाम पर, धर्म के उच्छेद में लगा हुआ है। अंधविश्वासों का उच्छेद तो जरूरी है , लेकिन हजारों साल से चला आ रहा एक व्यवहारिक जीवन दर्शन का उच्छेद इतना सरल नहीं , जितना वे सोचते हैं। उसकी जड़े गहरी और व्यवहारिक है । विचारों से वस्तु में परिवर्तन अव्यावहारिक है । वस्तु के उत्पादन और आवश्यकताएं ही अर्थ और श्रम को प्रभावित करती है और उपभोक्ता की संस्कृति भी इन्हीं दो तत्वों से संचालित होती है , हमें यह नहीं भूलना चाहिए। एक तीसरा वर्ग चतुर खिलाडियों का है , जिन्हें संस्कृति से कोई लेना देना नहीं , लेकिन धार्मिक अनुष्ठानों का उपयोग अपने राजनैतिक हितों के पक्ष में करते हैं , इससे , जातीय संगठन भले ही मजबूत हो लेकिन भारत का सुगठित समाज विखंडित ही होगा , इससे हमारे धार्मिक अनुष्ठानों का स्वरूप भी प्रचारात्मक होगा। और धीरे धीरे वह जड़त्व को प्राप्त कर विकृत भी होगा।
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प्रस्तुति:-बसन्त राघव
पंचवटी नगर,मकान नं. 30
कृषि फार्म रोड,बोईरदादर, रायगढ़,
छत्तीसगढ़,basantsao52@gmail.com मो.नं.8319939396

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