November 21, 2024

मेघ ! तुम इतना बरसते हो
भिगो देते हो धरती के अंग अंग को

अपने जल से सराबोर कर देते हो
कि वह शर्म से हरी चुनरी ओढ़ लेती है

तुम इतने पर भी नही रुकते

कहीं कहीं जल का भराव कर
तालाब बना देते हो
ढक देते हो उसे जग की आॅंखों से

फिर बाॅंध लेते हो प्रेम पाश में
मुक्त नहीं करते आलिंगन से
सारी तपन मिटा देते हो

तुम प्रेम दीवाने हो
मॅंडराते रहते हो
इजहार, मनुहार
तकरार, इकरार
सब कर लेते हो

धरती लजाती है, सकुचाती है
सिमटती है अपने आप में
अलग अलग परिधानों में
छिपा लेती है अपनी अछूती देह को

पर तुम निर्लज्ज आवारा हो
सूरज को सहभागी बना लेते हो

सुखा देते हो सभी लज्जा वसन
भयंकर ग्रीष्म से

भीषण तपन असहनीय हो जाती है
धरती मजबूर हो जाती है

खिंची चली आती है तुम्हारी तरफ
शीतलता पाने के लिए

हवा, धरती की सहेली है
नटखट है, नई नवेली है

तुम्हारी चाहत को जान लेती है
तुम्हें डाॅंट कर भगा देती है

पर तुम षडयंत्रकारी हो
फिर, सूरज का सहारा लेते हो

हवा को गर्म कर उठा ले जाते हो
फिर अपने में ही मिला लेते हो
धरती को भिगोने के
गोले बना लेते हो

धरती छबीली है
पर शर्मीली है

मेघ साॅंवला है
पागल दिवाना है

दोनों की जोड़ी अनोखी है
– राम किशोर मिश्रा, संयुक्त संचालक( वित्त )
छत्तीसगढ़ ग्रामीण यांत्रिकी सेवा,
नवा रायपुर, अटल नगर, छत्तीसगढ़

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