November 23, 2024

‘रूह’ : कश्मीर पर लिखा एक शोकगीत!

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अभी कुछ देर पहले कश्मीर पर मानव कौल द्वारा लिखा यात्रा वृत्तान्त ‘रूह’ पढ़ कर खत्म किया!
मानव ने 90 के दशक में बचपन में अपने कश्मीरी पंडित पिता और परिवार के साथ कश्मीर छोड़ दिया था.
पिता के मौन में कश्मीर का दर्द छलकता था हरदम! मानव एक रोज़ अपनी कश्मीरियत तलाशते हुए वे कश्मीर पहुंच गए.

अपनी कश्मीरियत से आइडेंटिफाई करते हुए मानव कश्मीर में अपना नीले दरवाज़े वाला घर और बचपन ढूंढते हैं. दो यात्राओं में एक बार उसका घर मिला, एक बार भूकंप में तबाह हो गया! अपने बचपन और अपने पिता के मौन को वहीं मलबे के नीचे दफन आए मानव!
समूची किताब का अंडरटोन एक भागे/या भगाए गए कश्मीरी पंडित का ही है. बिटवीन द लाइंस भी बहुत कहा है बशर्ते उन्हें पढ़ना आए!

कश्मीर पर लिखी किताबों में सबसे कमज़ोर किताब लगी मुझे.

कश्मीर का मतलब केवल प्रकृति की खूबसूरती नहीं है! मानव अपने कश्मीर को इंसानों से खाली देखना चाहते हैं.

उन्हें कश्मीर में गायब हो गए 10000 से ज़्यादा लोगों का पता नहीं मिला! हज़ारों ‘ आधी विधवाएं ‘ उन्हें नज़र नहीं आई. उनकी खैर खबर लेने की उन्हें ज़रूरत नहीं थी. 90 प्रतिशत किताब में कश्मीर को खो देने का उनका दर्द है जो वाजिब है!

7 प्रतिशत में दोनो बार की यात्रा में उनकी सहयात्री रूह से इश्क है.

बाकी 3 प्रतिशत में कश्मीरियों का सच भी है, जिसे उन्होंने कश्मीरियों के मुंह से कहलाया है. इसे उन्होंने बहुत ईमानदारी से दर्ज किया है.

एक कश्मीरी पंडित जिन्होंने घाटी नहीं छोड़ी उन्होंने उन्हें यह हक़ीक़त बताई के 10 प्रतिशत कश्मीरी पंडित 90 प्रतिशत मुसलमानों पर सांस्कृतिक राज करते थे. कश्मीरी मुसलमानों से छुआछूत करते थे. एक न एक दिन मुसलमानों को उनका विरोध करना ही था.

ऐसे ही कश्मीरी भारतीय फौज को अपना नहीं मानते! के कश्मीरी लड़कियां अपना गोरापन छिपाने के लिए मुंह पर राख मल लेती!

एक कश्मीरी के मुंह से ही उन्होंने धारा 370 खत्म करने का समर्थन करवाया है.

सबसे आश्चर्यजनक एक पूर्व ‘मिलिटेंट’ उस्मान का इंटरव्यू है. उस्मान पाकिस्तान में ट्रेनिंग ले चुका था. बाद में मोहभंग होने पर अपने ही लोगों की हत्या करवाने के लिए भारत सरकार की मदद करने लगा. वोदका के नशे में मानव उसे कश्मीर का चीफ़ मिनिस्टर बनने की शुभकामना दे कर अपने होटल वापस आ गए और बची हुई वोदका रूह के साथ पी.

कश्मीर के राजनीतिक मुद्दों से सावधानी पूर्वक बचते हुए मानव कौल अपनी कश्मीरियत के अतीत के बोझ से हल्के हो जाते हैं!
अब शायद कश्मीर उन्हें इतना नहीं सताएगा, शायद कवित्री ललद्यद की कविता अब उन्हें आवाज़ नहीं देंगी कभी!

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