ऋतुकोप
अभी तो इतनी उमर भी नहीं गुज़री,
और उठने लगी घुटनों से
लहर मारती कोई दुर्दांत टीस
हरसिंगार के झड़ने के इस कमनीय
शारदीय ऋतु में
कुछ दृश्य इस तरह भी
झड़ते रहे कि-
जिससे संवाद, संगत और सान्निध्य का समस्त सुख ही छीनता चला गया..
आसपास उगे कुछ चेहरों से
सदैव उदासी की आती रही
असहनीय-सी कोई गंध
किसी एक अप्रत्याशित घटना पर ही
क्यों टिका रहता है यह मन
किसी का अचानक छूटना
कई बार अनेक अंकुशों का
निरस्त होना भी तो है
दीमक चाटते अमरुद के वृक्ष को
काटते ही ,
बिखरने लगी है
अब दुआर पर रविप्रभा
किन्तु चिड़िया अब नहीं आती
उसके कलरव से वंचित है समूचा आँगन
न जाने हज़ार मर्तबा बुलाने पर भी
मैंने क्यों नहीं खोले किवाड़
शायद! साथी की बुलावट में
अरसे बाद भी
मैत्री की उच्च सांद्रता नहीं थी
ओ मेरे बुझते हुए मन!
देख,बैरी शीत ने दे दी है
जाने कब चुपके से दस्तक
अब सखियों की,
बिलसी विहंसी के झंकृत अनुगूंज से
होने लगेगा क्षण भर में श्रुतिलोप
निष्कम्प होती इस देह पर
इस कार्तिक नहीं मलूंगी
किसी भी तरह का अंगराग
ऋतुकोप के किसी अज्ञात श्राप से
आकुल है यह सम्पूर्ण जीवन..
अनु