November 21, 2024

बुद्धिलाल पाल की कविताओं में प्रतिरोध के स्वर

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साथी अजय चंद्रवंशी द्वारा मेरी चयनित कविताओं के संग्रह पर समीक्षा। उनके प्रति आभार के साथ यह –

बुद्धिलाल पाल की कविताओं में प्रतिरोध के स्वर
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समकालीन कविता में विभिन्न कवि अपने-अपने स्वभाव अनुरूप सृजनरत हैं।हम यहां उनके ‘कवि स्वभाव’ की बात कर रहे हैं जो ज़ाहिर है उनके संवेदनात्मक लगाव और वैचारिकता से संपृक्त होता है। इस ‘स्वभाव’ में भिन्नता के विविध कारण होते हैं जैसे समाजिक,आर्थिक, सांस्कृतिक,राजनीतिक परिवेश में भिन्नता आदि।इन सब से कवि की विश्वदृष्टि बनती है जो कविताओं में उभरकर आती रहती है।यों प्रेम, सौंदर्य, करुणा सहज मानवीय वृत्तियां हैं जिनकी अभिव्यक्ति सभी कवियों की कविताओं में होती हैं। कहने का अर्थ यह है कि समकालीन कवियों में भी समानता के साथ भिन्नता है जिसे कवि का अपना निजी रंग कह सकते हैं।

कई कवि वैचारिकता शब्द से बिदकते हैं मानो उनके अपने कोई विचार या दुनिया को देखने-समझने का कोई नज़रिया ही न हो! यह सब मे होता है कोई स्वीकार करे या न करे। मगर यह भी सच है कि कविता केवल विचारों की अभिव्यक्ति नहीं है। वह भी है मगर कविता का दायरा विस्तृत है।उसकी पहली शर्त संवेदनात्मक लगाव ही है।वैचारिकता भी संवेदनात्मक लगाव से ही पैदा होती है। इसलिए कविता में निजी जीवन के सुख-दुख,प्रेम,प्रकृति,सौंदर्य से लेकर सामाजिक और राजनीतिक चिन्ताएं तक अभिव्यक्त होती रहती हैं।कवि की सफलता महज कविता के कथ्य नहीं बल्कि उसकी अभिव्यक्ति कौशल पर भी निर्भर करती है।

कवि यदि अपनी अभिव्यक्ति के विषय के लिए स्वतंत्र है तो पाठक भी अपनी रुचि अनुरूप कविताएं पढ़ने और सराहने को स्वतंत्र है।

बुद्धिलाल पाल की कविताएं इस दृष्टि से सामान्यतः वैचारिक कविताएं हैं। उनकी कविताएं समकालीन सामाजिक-राजनीतिक परिस्थितियों से गहरी जुड़ी हुई हैं।इस तरह वे पक्षधर कविताएं हैं जो साम्प्रदायिक राजनीति से पोषित सत्ता जो अंततः जनविरोधी रूप धारण करने की ओर अग्रसर होती हैं, का प्रतिपक्ष हैं। लोकतंत्र में सत्ता ‘जनता का ,जनता के लिए,जनता द्वारा’ होनी चाहिए मगर ऐसा हो नहीं रहा है और जनता के प्रतिनिधि ‘राजा की दुनिया’ रच रहे हैं, और ‘राजा’ अपनी सामंती चरित्र की ओर फिर लौट गया है। यानी वह जानता का प्रतिनिधि नहीं उसका मालिक बन गया है और उसे बनाये रखने के लिए साम-दाम-दंड-भेद का प्रयोग कर रहा है।जनता के प्रतिनिधि का राजा बने रहना ज़ाहिर है लोकतंत्र की विफलता है।

राजा षड्यंत्र रचता ही है मगर विडम्बना कि जनता राजा के इस ‘अदा’ पर मुग्ध रहती है! उसके लिए राजा सर्वशक्तिमान, ईश्वर का औतार है,वह जो भी करता है सही करता है!

“राजा के हाथ में
कृपाण हो, तलवार हो
भाले हों, बर्छे हों
त्रिशूल हो, चक्र हो या बम हो”

वे हथियार-

“हथियार नहीं माने जाते
राजा का सौंदर्य बढ़ाने वाले
आभूषण माने जाते हैं

इस तरह
राजा का रूप
दिव्य शक्तियों का पुंज होता है
और जनता
राजा के इसी रूप पर
मुग्ध रहती है।”

इस राजा में ‘ईश्वर’ के तमाम गुण हैं, वह ‘घट- घट’ में है “अदृश्य है, निराकार है” वह “जादूगर की तरह/ रस्सी पर चढ़ता है/हमे दिखाई नहीं देता है” उसके हाथ मे हथियार होते भी हैं तो “हथियार नहीं माने जाते/ राजा का सौंदर्य बढ़ाने वाले/आभूषण माने जाते हैं”।

राजा की दृष्टि ‘दिव्य’ होती है-

“उसे साफ-साफ दिखाई देता है
आने वाले समय में कौन-कौन से जन आंदोलन
होने वाले हैं या हो सकते हैं”

राजा को सब छूट है “आखिर राजा…/राजा होता है!”

“जाति और धर्म की
ये सब बंदिशें
ये सब जरूरतें
जनता के लिए है”

राजा “जरूरत पड़ने पर/मित्र, सगे-सम्बन्धियों की/बलि भी स्वीकार कर लेते हैं”

और जनता! बावजूद इसके कि

“नून,तेल,लकड़ी के लिए
भागती रही,भागती रही
खटती रही उम्र भर
कोल्हू की बैल की तरह”

फिर भी

“राजा के प्रति निष्ठा
जनता के खून में बहती है”

जनता में असंतोष पैदा नहीं होता,और कभी होता भी है तो

“पानी के बुलबुलों-सा/उठता….फुस्स हो जाता”

इसका मुख्य कारण कवि ‘अंधी अस्तिकता’ में देखता है जहाँ अधिकतर अंततः “शैतान के भक्त हो जाते हैं”

इस तरह की कविताएं जिन्हें सामान्य शब्दों में राजनीतिक चेतना की कविता भी कह सकते हैं, की शक्ति उसके कथन भंगिमा और व्यंग्यात्मकता में होती है जिसका निर्वाह यदि ठीक ढंग से न हो तो वह मात्र अतिकथन रह जाती हैं। बुद्धिलाल जी की अधिकतर कविताओं में इसका निर्वहन दिखाई पड़ता है और वे कविताएँ असरकारी हैं।जिन कविताओं में इसका निर्वहन ठीक से नहीं हो सका है उनकी प्रभाविकता भी सामान्य है।

राजनीतिक स्वर के अलावा भी संग्रह में कुछ कविताएँ प्रेम,सौंदर्य की हैं। स्त्री का जीवन

“जला दिया उसने
अपने को चौखट पर
जला दिया उसने
अपने आपको को चूल्हे में
जला दिया उसने
अपने आपको घर संभालने में
जला दिया उसने
अपनी बहुत सी इच्छाओं को
वह सुनती रही
मैं देखता रहा
इस तरह उम्र बीत गई
न तो उसने कुछ बोला
न मैंने कुछ कहा”

स्त्री अस्मिता यदि देह की स्वतन्त्रा से गुजरती है तो उसे बाज़ार के मायाजाल को भी समझना है

“देह आपकी है तो जैसा चाहो वपरो
देह आपकी है
पर सनद रहे
उसमे संगीत बचा रहे”

प्रेम में हँसी

“प्रेम में मैं उसके साथ
वैलून के एक जोड़ा में
आसमान तक उड़ना चाहता हूँ
उसके साथ उड़कर आसमान में पहुँच
एक साथ फुटकर हँसना चाहता हूँ
कि उसकी और मेरी संगीतमयी
उन्मुक्त हँसी से आसमान भर जाये”

चयनित कविताओं के संग्रह की अपनी कुछ सीमाएं भी होती हैं सम्भव है बुद्धिलाल जी के कविताओं के और भी रंग हों मगर उनका मुख्य रंग विसंगति,विडम्बनाओं का उद्घाटन ही दिखाई पड़ता है जो अंततः प्रतिरोध का स्वर बनती हैं

“भूख/धर्मों में
वर्णों में
देश की सीमाओं में
भेद नहीं करती

भूख दुनिया को जोड़ती है
और इंकलाब बनती दुनिया को
प्रासंगिक बनाती है।”

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कृति – चयनित कविताएं
कवि-बद्धिलाल पाल
प्रकाशन- न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन दिल्ली
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●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो.9893728320

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