छत्तीसगढ़ी कहिनी : रूख के रक्सा
एक घाव एक झिन रद्दा रेंगइया मनखे हर जंगल कोती ले जावत रिहिस। जेठ के महिना रिहिस। घाम हर मुड़ी उप्पर तपत रिहिस,लू लपट हर चलत रिहिस। थोरकुन घाम के तपन ले बांचे बर अउ थोर कुन सुसताय बर एक ठन बड़का बर रूख के छइया तरी बइठगे। उही बर रूख म एक झिन ब्रम्ह रक्सा के डेरा रिहिस। जेन रद्दा रेंगइया रूख तरी बइठ के जेन भी बिचार करतिस, ओखर बिचार ल वोहर पूरा करय।
बर रूख तरी बइठे, राहगीर ल उही बेरा जमके पियास लागिस। मन म गुनिस के करसा के ठंडा पानी मिलतिस त मोर सुखाय गरा म जान आ जातिस। ठउका उही बेरा देखथे ,माटी के करसा म पानी भरे राखे रिहिस। वोहर अब्बड़ खुश होगे। करसा के ठंड़ा पानी ल पियत ओखर जी जुड़ागे। पेट भर ठंडा पानी ल पी डरिस। उही बेर ओखर मन म बिचार आईस के थोरकुन कछु खाय बर मिल जतिस त मोर भुको तको मिटा जातिस। उही बेरा का देखते के कांसा के थारी म सुहारी, बरा,भजिया माढ़े रिहिस। राहगीर ऐती वोती देखे लगिस के येहर काखर हवय। फेर ओला कोनो मनखे नई दिखिस। भूख त लागत रिहिस हबर-हबर वोहर ओला खाय लगिस।जम्मो ल खा डरिस। पेट भर खाके डकारत रिहिस। सुसती तको आय लगिस।
ओखर मन म उही बेरा बिचार आइस के कोनो थोरकुन दसना सुते बर मिल जतिस त कतना सुभिता हो जतिस। ठउका उही बेरा का देखथे के रूख करा दसना तको बिछे हवय। ऐती-ओती देेखिस त वोला कोनो नइ दिखीस। बने बनिस रे। अइसना बिचार के दसना म ढ़लंगे। सुरूर -सुरूर पवन हर चलत रिहिस।
आज इही तीन दिन के सफर म अब्बड़ सुख मिलिस ,इही मन म गुनत रिहिस। उही बेरा ओखर मन म फेर एक ठन बिचार आइस के मैंहर आज जेन -जेन बिचार करत हव, तेन -तेन सिरतोन होवत हवय। होय न होय इंहा कोनो रक्सा होही जेन हर मोला निकल के खा डरही।
इही बिचार हर ओखर मन म आइस, तइसने उही मेर अब्बड़ बड़का रक्सा हर रूख ले निकलिस अउ ओला पकड़ के अपन मुंह म डार लिस। राहगीर ल ऐको कनी भागे के मउका तको नइ मिलिस।
( कहिनी के सीख हवय – हमन ल बने सुघ्घर बिचार करना चाही, काबर मन हर त एकठिन कल्पतरू हवय,जइसने बिचारबे तइसने सिरतोन होथे। )
लेखिका
डॉ. जयभारती चन्द्राकर
असिस्टेंट प्रोफेसर,छत्तीसगढ़
मोबाइल न. 9424234098
दैनिक सुघ्घर छत्तीसगढ़ म प्रकाशित मोर रचना…।