रामविलास शर्मा : नामवर सिंह और आलोचना के द्वंद्व
डॉ रामविलास शर्मा और नामवर सिंह जी हिंदी की प्रगतिशील आलोचना की उपलब्धि हैं। रामविलास जी उम्र में नामवर जी से लगभग चौदह वर्ष बड़े थे ,इसे लगभग एक पीढ़ी का अंतर कहा जा सकता है। समय का अंतर बहुत हद तक चेतना के ‘निर्माण’ को प्रभावित करता है,यह बात नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।सच है कि जागरूक लेखक की चेतना विकासमान होती है मगर बहुधा युवावस्था का ‘समय’ इसके निर्माण में सर्वाधिक प्रभावी होता है।
इस दृष्टि से रामविलास जी की ‘चेतना’ का ‘निर्माण’ मुख्यतः तीस के दशक में होता है,जब छायावाद अपने चरम पर होता है।यही समय प्रेमचंद और आचार्य रामचंद्र शुक्ल के लेखन का भी प्रभावी दौर है। प्रगतिशील आंदोलन का विकास उनके सामने होता है और आगे चालीस के दशक में वे उससे घनिष्ट रूप से जुड़ते हैं।
नामवर जी की ‘चेतना’ का निर्माण चालीस के दशक के उत्तरार्ध और पचास के दशक के पूर्वार्ध में होता है जब प्रगतिशील आंदोलन अपने चरम पर होता है और फिर प्रयोगवाद, नयी कविता, और नयी कहानी का दौर आता है।
रामविलास जी और नामवर जी के कपितय मामलों में, पसन्द-नापसंद में, दृष्टिकोण के अंतर में इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए।
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नामवर जी का आलोचना कर्म रामविलास जी के प्रतिपक्ष में नहीं है,पूरकता में है।बलाघात का अंतर है।प्राथमिकताओं में भिन्नता है।कुछ बिंदुओं के छूट जाने/छोड़ देने की कसक है ,पीड़ा है।दोनो का अलोचनाकर्म प्रगतिशील जीवन दृष्टि और साहित्य को आगे ले जाने वाला है और स्वाभाविक रूप से यथार्थवाद विरोधी भाववादी चिंतन और कलावादी दृष्टि का प्रतिपक्ष है।दोनो का सम्बन्ध ‘वाद-विवाद- सम्वाद’ का रहा है और नामवर जी इस मामले में डॉ शर्मा को अपना गुरु मानते हैं।
इसलिए ‘इतिहास की शव साधना’ के बरक्स ‘केवल जलती मशाल’ को देखने के बजाय रामविलास जी के निधन के बाद लिखा गया लेख ‘मित्र सम्वाद और गद्य की विलुप्त कला’ को देखा जाना चाहिए,जिसमे भी रामविलास जी की भूरी-भूरी प्रशंसा है। ‘इतिहास की शव साधना’ में जो ‘टोन’ और तर्क हैं लगभग उसी टोन और शब्दावली में नामवर जी 1886 में ‘साहित्य में प्रगतिशील आंदोलन की ऐतिहासिक भूमिका’ में रामविलास जी की आलोचना कर चुके थे।इसलिए यह लेख आकस्मिक नहीं है।
इस ‘लगाव’ और ‘अ-लगाव’ को सरलीकृत ढंग से नहीं लेना चाहिए।इसमे कोई शक नहीं कि नामवर जी के मन मे ‘डॉ साहब'(उन्ही की शब्दावली) के लिए गहरा लगाव है।निःसन्देह वे अब तक के मार्क्सवादी आलोचकों में डॉ शर्मा को सबसे बड़े आलोचक मानते रहे हैं। इतना कि कई जगह मार्क्स के लेखन से उनके लेखन की सकारात्मक तुलना करने लगते हैं। जिस तरह रूस में कुछ लोग मार्क्स के ग्रंथों में ऐतिहासिक भौतिकवाद ढूँढ़ते थे और उसे न पाकर बहुत क्षुब्ध होते थे।
“इसी तरह हिंदी में भी कुछ लोग रामविलास जी के ग्रन्थों में मार्क्सवादी काव्य सिद्धांत को ढूँढ़कर क्षुब्ध होते होंगे।”
रामविलास जी जनता के आलोचक हैं, इसमे नामवर जी को ज़रा भी संशय नहीं।इसलिए ‘मित्र सम्वाद’
“यह है जनता के कवि और आलोचक का हृदय सम्वाद”
नामवर जी ने कई जगह रामविलास जी द्वारा की गई कुछ कविताओं की व्याख्या को स्थूल मानकर उसकी आलोचना की है मगर सूर के एक पद “अरुझी कुंडल लट, बेसरि सौं पीत पट,बनमाल बीच आनि उरझे हैं दोउ जन” की रामविलास द्वारा की गई व्याख्या को “कविता की व्याख्या की पराकाष्ठा” कहा है।
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नामवर जी के लिखे से उनको रामविलास जी के लेखन से मुख्य आपत्ति(असहमति) उनके आख़िरी दशक(90 का दशक) के लेखन से है। कई जगह इसे ‘भारत मे अंग्रेजी राज और मार्क्सवाद(1984) के लेखन से माना गया है।
नामवर जी के अनुसार इस दशक में रामविलास जी का ‘वैदिक प्रेम’ जागता है।पहले किताबों के शुरू या आख़िरी में मार्क्सवाद हुआ करता था, अब उसकी जगह ऋग्वेद या वैदिक ने ले लिया! हालाँकि ‘इतिहास की शव साधना’ में ही वे कहते हैं
“हिंदी में भक्तिकाव्य को प्रतिष्ठित करने में रामविलास जी की भूमिका अहम है और उनका लोक प्रेम भी असंदिग्ध है”
फिर रामविलास जी वेद की ओर क्यों गए? नामवर जी के अनुसार
“दरअसल ‘नवजागरण’ का वह स्वर्णमुग है जो रामविलास जी को वैदिक अरण्य में खींच ले गया।”
नामवर जी एक और आपत्ति करते हैं कि जिस समय साम्प्रदायिक ताकतें बाबरी मस्जिद का विध्वंश कर रही थी रामविलास जी का लेखन उनको एक तरह से ‘हथियार’ उपलब्ध करा रहा था।
हालांकि इस बात का जवाब दिया जाता रहा है कि साम्प्रदायिक ताकतें तो किसी का भी अपने पक्ष में ‘उपयोग’ कर सकती हैं।मसलन वे भगत सिंह जैसे नास्तिक क्रांतिकारी को भी उनके विचारों से काटकर सरलीकृत ढंग से अपनी ‘देशभक्ति’ की ‘परियोजना’ में शामिल कर लेते हैं।
रामविलास जी ने अपने आखिरी दौर के एक इंटरव्यू में नामवर जी को इस प्रश्न का जवाब भी दिया था,जिसमे उन्होंने अपने इतिहास के अध्ययन के निष्कर्ष को अंधराष्ट्रवादी इतिहास विवेचन से कई बिंदुओं पर भिन्न बताया था।
“हिन्दू राष्ट्रवाद के लिए वैदिक भाषा आदिभाषा है। इससे भारत की सभी भाषाएँ निकलती हैं। भारत की नहीं तो आर्य भाषा परिवार की सारी भाषाएँ तो निकली ही हैं। ऐतिहासिक भाषाविज्ञान भी यही कहता है। पूँजीवादी भाषाविज्ञान और हिन्दूवादी भाषाविज्ञान, दोनों यही बात कहते हैं कि वैदिक भाषा से सभी भारतीय भाषाएँ निकली हैं। मैं गण भाषाओं की स्थापना सामने लाता हूँ और कहता हूँ कि गण भाषाओं में शब्द भंडार की भिन्नता है। व्याकरण की भिन्नता है और भारतीय आर्य भाषाएँ किसी एक आदिभाषा से नहीं निकलीं, इसलिए तुम वैदिक संस्कृति को हिन्दू संस्कृति नहीं कह सकते । मराठी में तीन लिंग होते हैं, बांग्ला में एक भी नहीं होता और दोनों भाषाएँ संस्कृत से निकली हैं-इसको तुम स्वीकार कर सकते हो, मैं नहीं स्वीकार कर सकता । इसलिए हिन्दू संस्कृति से लड़ने के लिए जो सामाजिक संगठन है, जनजातियाँ हैं, जातियाँ हैं-नेशनलटीज हैं । उनके ऊपर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। जो इस्लामिक फंडामेंटलिस्ट हैं, वे जातीयता का विरोध करते हैं। जो हिन्दू फंडामेंटलिस्ट हैं, वे जातीयता का विरोध करते हैं।”
रामविलास जी का तर्क है कि जनता की अपनी संस्कृति से लगाव होता है।फासिस्ट शक्तियां अक्सर उसका दुरुपयोग करती हैं और इस ‘सांस्कृतिक गौरव’ के भाव को नकारात्मक मोड़ देती हैं।उनकी इस ‘सफलता’ का एक बड़ा कारण यह भी होता है कि प्रगतिशील शक्तियां अक्सर उसे प्रतिगामी मानकर उसकी उपेक्षा करती हैं। इस सम्बंध में वे जर्मनी का उदाहरण देते हैं और कहते हैं कि भारत मे भी यही हो रहा है।यहां पर भी वे अपने दृष्टिकोण की भिन्नता को बताते हैं
“अब जो उनके दृष्टिकोण और मेरे दृष्टिकोण में बुनियादी अन्तर है, वह बताता हूँ-जितने हमारे पूँजीवादी इतिहासकार और मार्क्सवादी इतिहासकार हैं, वें आर्यों को एक अखंड इकाई मानकर चलते हैं । भारत में आर्य आए कि नहीं आए, यह प्रश्न वे करते हैं। हमारा कहना है कि भारत में आर्यों की कोई अखंड इकाई नहीं थी। नस्ल के आधार पर कभी भी भारतीय समाज या संसार के किसी भी समाज का संगठन नहीं हुआ है। तुम्हारा जितना ऐतिहासिक भाषाविज्ञान है, वह द्रविड़ परिवार पर काम करता है तो नस्ल के आधार पर, इंडो-योरोपियन परिवार का काम करता है तो नस्ल के आधार पर। वे समझते हैं कि एक भाषा परिवार शून्य से विकसित होता है और दूसरे भाषा परिवारों से उसका सम्पर्क नहीं होता हैं। इसलिए द्रविड़ तत्व आर्य भाषा में हों, वह उनके लिए कल्पनातीत है। आर्य भाषाओं में इसलिए है कि आर्यों ने द्रविड़ों को जीता है, लेकिन ग्रीक भाषा में द्रविड़ भाषा के तत्त्व हो सकते हैं, फारसी में द्रविड़ भाषा के तत्त्व हो सकते हैं-यह उनके लिए कल्पनातीत है।”
अपने जीवन की आख़िरी समय की किताब ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ में ऋग्वेद के बारे में उन्होंने लिखा है
“ऋग्वेद की घोषणा है : न ऋते श्रान्तस्य सख्याय देवा:(4.33.11) देवता उसी के सखा बनते हैं जो परिश्रम करता है। ऋग्वेद में शारीरिक और मानसिक श्रम में विभाजन नहीं हुआ है,यह उसकी बहुत बड़ी विशेषता है जो संसार के अन्य किसी ग्रन्थ में नहीं है। यह हमारा अतीत था और यह हमारा भविष्य भी होना चाहिए। जब तक शारीरिक और मानसिक श्रम का भेद बना रहेगा तब तक समाज में वर्ग उत्पीड़न भी रहेगा और संस्कृति वर्गों और वर्णों में विभाजित रहेगी,वह पूरी तरह लोकसंस्कृति न बनेगी।”
वैसे ‘लोक’ यहां भी है जिसे छोड़ देने की शिकायत नामवर जी करते हैं!
फिर दिक्कत कहाँ पर है? नामवर जी के अनुसार सबकुछ वेदों में ढूंढ लेने की झख!
“कहना न होगा कि यह एक प्रकार से यूरोपीय विद्वानों के कुख्यात ‘ओरिएंटलिज्म’ के जवाब में दूसरा ‘अंधराष्ट्रवादी प्राच्यवाद’ है!”
प्राच्यवाद ‘मोहक अतीत’ भी गढ़ता है,मगर इसमे उसका साम्राज्यवादी निहितार्थ होता है।एक तो उसका ‘प्रजातीय पूर्वग्रह’ जिसमे ‘आर्य नस्लीय शुद्धता’ का सिद्धान्त है और वह अपने अतीत को इससे जोड़ता है। दूसरा इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि अधिकांश भारतीय स्वयं बाहर से यहां आकर रह रहे हैं तो हमारा यहां कब्जा करना क्या गलत है! तीसरा वह हिन्दू और मुस्लिम शासन का भेद करता है जिसका उद्देश्य दोनो सम्प्रदायों को एक दूसरे के प्रतिपक्ष में खड़ा करना होता है। पहले कहा भारत के स्वर्णिम अतीत को मुस्लिम आक्रमणकारियों ने नष्ट किया।1857 के विद्रोह के बाद की नीति यह रही कि हिन्दू हितों के बरक्स मुस्लिम हितों के टकराव का द्वंद्व पैदा किया गया जिसकी परिणीति देश के विभाजन के रूप में हुई।
रामविलास जी का लेखन इतिहास को इस तरह हिन्दू-मुस्लिम में नहीं बाँटता, न ही आर्य नस्लीय सिद्धान्त का समर्थन करता है। वह इसके साम्राज्यवादी षड्यंत्र को पहचानता है। इसलिए उनकी द्वंद्ववादी दृष्टि प्राच्यवादी दृष्टि से सर्वथा भिन्न है।
नामवर जी के लिए जो ‘अंध राष्ट्रवाद’ है वह रामविलास जी के लिए अपनी परम्परा के श्रमवादी मूल्यों की पड़ताल है।बलाघात का अंतर! ऐसा नहीं कि रामविलास जी के विवेचन में कहीं ‘अतिकथन’ न हो,हमारी समझ मे ऐसा है,मगर क्या भारतीय अस्मिता, भारतीय देन की बात करना बेमानी है? क्या दुनिया में जो भी सार्थक रहा है सिर्फ पश्चिम में रहा है? क्या भारत मे अनादिकाल से ज्ञान,विज्ञान,भाषा का केवल आयात हुआ है? क्या साम्राज्यवादी अध्ययन पश्चिमी श्रेष्ठता से ग्रस्त नहीं रहा है? क्या ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने इस देश का अहित नहीं किया?
ऐसा नहीं कि नामवर जी इन बातों को नहीं समझते।मगर वही बलाघात का अंतर!
‘परम्परा के मूल्यांकन’ में दोनो के बीच इसी बिंदु पर ही असहमति है।नामवर जी के अनुसार रामविलास जी का परम्परा प्रेम उन्हें ‘आज’ की समस्याओं से दूर कर दिया है,उनका परम्परा प्रेम सीमारेखा लांघ चुका है, पहले परम्परा के साथ प्रगति रहती थी जो अब नदारद है। रामविलास जी के अनुसार हमारी आज की अधिकांश समस्याओं की जड़ अतीत में है,उसके गलत भाष्य में है,यदि उनका ठीक से विवेचन किया जाय तो बहुत सी समस्याओं से निजात मिल सकती है। रामविलास जी कहते हैं हमारी परंपरा में जो जो सार्थक है,श्रमवादी है,सामन्तविरोधी है उसे उभारना चाहिए।
नामवर जी ‘दूसरी परम्परा'(other के अर्थ में) पर बल देते हैं।वे मानते हैं कि कोई एक ‘मुख्य’ परम्परा नहीं होती,परंपराएं होती हैं।इस संदर्भ में वे समाजशास्त्रीय अवधारणा ‘वृहत’ परंपरा और ‘लघु’ परंपरा का जिक्र करते हैं।यह सही है जिसे हम वृहत परंपरा कहते हैं वह बहुधा प्रभु वर्ग की परंपरा होती है और इसमे ‘अन्यों’ को उचित महत्व नहीं दिया जाता।
रामविलास जी परंपरा की बात करते हैं तो उनके विवेचन का तरीका प्रगतिशील और पतनशील परंपरा का होता है।वे परम्परा और रूढ़ि में भेद करते हैं। जब वे कहते है कि परंपरा के प्रगतिशील मूल्यों को आगे बढ़ाना चाहिए,उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए तो वे वृहत और लघु परंपरा में भेद नहीं करते उनके विवेचन में दोनो समाहित होते हैं।इसलिए नामवर जी के लिए कबीर और तुलसी दो अलग-अलग परंपरा के प्रतिनिधि हैं तो रामविलास जी के लिए दोनो में जो सामन्तविरोधी प्रगतिशील मूल्य है उसे समावेशी रूप से देखा जा सकता है,इसलिए उनकी नज़र में भक्तिकाल लोकजागरण का काल है जिसमे सगुण और निर्गुण दोनो साहित्य समाहित हैं।
नामवर जी के कहने का ढंग यह है कि परंपरा बहुवचन में होती है।रामविलास जी इसे सांस्कृतिक बहुलता कहते है। नामवर जी परंपरा की आत्म समीक्षा पर बल देते हैं और ‘ऐतिहासिक स्मृति’ के साथ ‘ऐतिहासिक विस्मृति’ को भी उतना ही जरूरी मानते हैं। वे वाल्टर बेंजामिन के इस कथन का जिक्र करते हैं कि परंपरा की निरंतरता को कभी-कभी पलीता लगाकर बीच में उड़ा देना जरूरी होता है। लेकिन आगे स्वयं अडार्नो की इस पंक्ति का उल्लेख करते हैं “One must have tradition in oneself to hate it properly परंपरा अपने अंदर हो तभी उससे अच्छी तरह नफरत की जा सकती है”। वे मानते हैं “अब न राहुल जी हैं, न द्विवेदी जी और न रामविलास जी ही। यह एक भरी-पूरी परंपरा है।”
यानी इंकार परंपरा से नहीं ‘परंपरावाद’ से है जो ‘प्रगति’ को भूल जाता है। लेकिन रामविलास जी के यहां परंपरा का आग्रह उस तरह से नहीं है जैसा कि नामवर जी निष्कर्ष निकालते हैं।रामविलास जी किस तरह की परंपरा का ज्ञान चाहते हैं?
“जो लोग साहित्य में युग परिवर्तन चाहते हैं, जो लकीर के फ़क़ीर नहीं हैं, जो रूढ़ियाँ तोड़कर क्रांतिकारी साहित्य रचना चाहते हैं, उनके लिए साहित्य की परंपरा का ज्ञान सबसे ज्यादा आवश्यक है।”
परंपरा का ज्ञान जरूरी है ,मगर परंपरा में प्रगतिशील और प्रतिक्रियावादी दोनों तरह के मूल्य होते हैं उन्हें किस तरह देखें?
“इसलिए साहित्य की परंपरा का मूल्यांकन करते हुए सबसे पहले हम उस साहित्य का मूल्य निर्धारित करते हैं जो शोषक वर्गों के विरुद्ध जनता के हितों को प्रतिबिंबित करता है।इसके साथ हम उस साहित्य पर ध्यान देते हैं जिसकी रचना का आधार शोषित जनता का श्रम है,और यह देखने का प्रयत्न करते हैं कि वह वर्तमान काल में जनता के लिए कहाँ तक उपयोगी है और उसका उपयोग किस तरह हो सकता है। इसके अलावा जो साहित्य सीधे सम्पत्तिशाली वर्गों की देख-रेख में रचा गया है और उनके वर्ग हितों को प्रतिबिंबित करता है,उसे भी परखकर देखना चाहिए कि यह अभ्युदयशील वर्ग का साहित्य है या ह्रासमान वर्ग का।यह स्मरण रखना चाहिए कि पुराने समाज मे वर्गों की रूपरेखा कभी बहुत स्पष्ट नहीं रही।”
इसलिए वे साहित्य की पूरी परंपरा को पूर्ण निषेधवादी दृष्टि से नहीं देखते और वेदव्यास,वाल्मीकि,कालिदास ,भवभूति से लेकर तुलसीदास और निराला तक साहित्य के उन मूल्यों को रेखांकित करते हैं को आज के समाज और जनता के लिए भी उपयोगी और प्रेरणास्पद हो सकते हैं।कहना न होगा कि इस क्रम में उनके अंतर्विरोधों(जो एक हद तक युगीन भी है)को भी बताते हैं, अवश्य उनका जोर सकारात्मक तत्वों पर अधिक होता है।
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रामविलास जी उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ‘हिंदी क्षेत्र’ के सकारात्मक सामाजिक चेतना और हिंदी भाषा के उत्थान को हिंदी नवजागरण कहते हैं और इसका प्रारम्भ 1857 की क्रांति से मानते है।यद्यपि 1857 की क्रांति का आगे भारतेंदुयुगीन साहित्य में सीधा प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता किंतु लोकसाहित्य में इसके पर्याप्त उदाहरण उपलब्ध हैं। डॉ शर्मा के अनुसार भारतेंदु युग में जो साम्राज्यवाद विरोधी चेतना दिखाई पड़ती है उसकी प्रेरणा कहीं न कहीं सन सन्तावन की क्रांति से भी मिली होगी।इसका अगला चरण वे महावीरप्रसाद द्विवेदी और उसके सहयोगियों के कार्यकाल को मानते हैं फिर उसकी अगली कड़ी निराला के लेखन को रेखांकित करते हैं।
इससे पूर्व भारतीय नवजागरण की सारणी में पहले नवजागरण का सम्बन्ध का सम्बन्ध ऋग्वेद से,दूसरे नवजागरण का सम्बन्ध उपनिषदों से,तीसरे नवजागरण को भक्ति-आंदोलन से तथा चौथे नवजागरण को 19 सदी से जोड़ते हैं जिसे भारत का हर प्रदेश अलग-अलग नामों से पुकारता है।
नामवर जी इस पर व्यंग्य करते हैं
“जिस देश और प्रदेश के पास इतने नवजागरणों की पूँजी हो,उससे कोई भी ईर्ष्या कर सकता है-खास तौर से यूरोप और अमेरिका!”
फिर आपत्ति
“आश्चर्य सिर्फ इस बात पर है कि भारतीय नवजागरणों की इस लम्बी परम्परा में बुद्ध का कहीं जिक्र नहीं है। साफ है कि ऋग्वेद से शुरू होनेवाले वैदिक नवजागरण की धारा से बुद्ध बाहर हैं और उनके साथ ही पूरी श्रमण परम्परा भी बहिष्कृत है। इसी तरह आधुनिक हिन्दी नवजागरण का चौथा चरण भी निराला के साथ स्थिर हो जाता है। इस क्रम में अखिल भारतीय प्रगतिशील आन्दोलन का जिक्र न पाकर थोड़ा आश्चर्य भी होता है-खास तौर से रामविलास शर्मा की मार्क्सवादी और प्रगतिशील छवि को स्मरण करते हुए!”
फिर निष्कर्ष
“कहना न होगा कि नवजागरण की इस परिकल्पना में एक प्रकार की बुनियादपरस्ती है,जिसका प्रचलित नाम ‘फ़ण्डामेंटलिज़्म’ है।”
यह सच है कि इतने नवजागरणों के बाद भी आज प्रतिक्रियावादी शक्तियां मजबूत हुई हैं तो इसकी पड़ताल अधिक होनी चाहिए मगर रामविलास जी के विवेचन में इसका नितांत अभाव हो ऐसी बात नहीं। वही बलाघात का अंतर!रामविलास जी के विशाल साहित्य में फ़ण्डामेंटलिज़्म का विवेचन किसी भी ‘क्रांतिकारी’ लेखक से अधिक ही होगा मगर इससे अधिक अनुपात ‘भारतीय देन’ की विवेचना में है और अक्सर लोग इसी में अटक जाते हैं।
जो लोग भारतीय समाज के ‘पिछड़ेपन’ के विवेचन पर जी जान लगा देते हैं वे अक्सर भारतीय समाज पर साम्राज्यवाद के प्रभाव को नज़रअंदाज करते हैं अथवा उसे प्रगतिशील मानते हैं।उनके लिए इतिहास में ‘यूरोपीय देन’ ‘यूनानी देन’,’अरबी देन’ हो सकता है मगर ‘भारतीय देन’ नहीं। रामविलास जी का लेखन इसका प्रतिपक्ष है।
अवश्य रामविलास जी बौद्ध दर्शन को उतना महत्व नहीं देते जितना दिया जाना चाहिए। एक तो वे “संसार दुख है” से शुरुआत को नकारात्मक मनाते हैं और इसे एक तरह पलायन वाद मानते हैं। वे बौद्धदर्शन के शून्यवाद को भी भाववादी मनाते हैं।रामविलास जी दिखाते है कि बौद्ध दर्शन के प्रगतिशील भौतिकवादी तत्व तत्कालीन परंपरा में विद्यमान रहे हैं,जिन्हें परिष्कृत करते हुए बौद्ध दर्शन का विकास हुआ है।वे कुछ प्रगतिशील लेखकों के उस प्रवृत्ति की आलोचना करते हैं जो बौद्ध दर्शन के भाववाद को नज़रंदाज़ करते हैं और उसे एक तरह से मार्क्सवाद के समकक्ष दिखाने का प्रयास करते हैं।वे अपनी नवजागरण की मंज़िल में बुद्ध को नहीं रखते लेकिन ‘भारतीय संस्कृति और हिंदी प्रदेश’ के मूल्यांकन में उनको शामिल करते हैं।बावजूद इसके बौद्ध दर्शन और राहुल जी के उनके मूल्यांकन में सम्यक दृष्टि का परिचय नहीं मिलता और बौद्ध दर्शन के महत्ता को वे कमतर दिखाते हैं।
रामविलास जी के रचनात्मक व्यक्तित्व के निर्माण में प्रगतिशील आंदोलन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।वे उससे जुड़े और तीन वर्षों तक प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव रहे और उस दौरान व्यतिवादियों और कलावादियों के विरुद्ध निर्मम लिखा।उसी तरह प्रगतिशीलों के बीच भी जमकर बहस चलाया।दूसरों की आलोचना की,दूसरों ने उनकी भी आलोचना की।बाद में संगठन से औपचारिक रूप से जरूर अलग हुए मगर वैचारिक रूप से हमेशा जुड़े रहे।
हमारी समझ से भी निराला के बाद की मंज़िल के रूप में प्रगतिशील आंदोलन का जिक्र किया जाना चाहिए था।संगठन की कई नीतियों से असहमति अपनी जगह हो सकती है।निराला के समकालीन प्रेमचंद का लेखन भी कितना महत्वपूर्ण था यह रामविलास जी ने ही सबसे अधिक दिखाया है,इसलिए इस मंज़िल में प्रेमचंद और निराला का नाम संयुक्त रूप से प्रस्तावित किया जा सकता था।
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नयी कविता के मूल्यांकन के मामले में नामवर जी भावबोध का प्रश्न उठाते हैं और एक तरह से डॉ शर्मा को छायावादी भावबोध का आलोचक घोषित करते हैं।कहना न होगा यहां उद्देश्य नकारात्मक है यानी उनके कहे डॉ शर्मा आधुनिक कविता(नयी कविता) का आस्वाद नहीं ग्रहण पाते तो यह उनके भावबोध की सीमा है। इस प्रसंग वे मुख्यतः मुक्तिबोध के काव्यबोध की दृष्टि से उनकी तुलना करते हैं।
नामवर जी भी छायावाद के पूर्ण अस्वीकृति की बात नहीं करते,डॉ शर्मा भी छायावाद के सभी बातों का समर्थन नहीं करते। फिर बात कहाँ अटकती है? नामवर जी के अनुसार डॉ शर्मा ‘आधुनिक भावबोध’ का एकांगी विरोध कर छाया वादी भावबोध को इसके बरक्स खड़ा करते हैं,जबकि आधुनिक भावबोध वाली धारा के भी कई रंग हैं।यही बात मुक्तिबोध भी कहते हैं।
डॉ शर्मा इस अंतर को लगभग अस्वीकार करते हैं और नयी कविता के आलोचकों से नागार्जुन और केदारनाथ अग्रवाल की उपेक्षा का प्रश्न उठाते हैं और इन्हें प्रगतिशील काव्यधारा का स्वाभाविक प्रतिनिधि मानते हैं। बात वही बलाघात के अंतर पर आ रुकती है!
‘समझ’ का यही अंतर मुक्तिबोध की कविता के मूल्यांकन में भी दिखाई पड़ता है। डॉ शर्मा मुक्तिबोध के विकट आत्मसंघर्ष और प्रतिबद्धता को रेखांकित करते हुए भी उन्हें आत्मग्रस्त, विभाजित व्यक्तित्व और अस्तित्वाद तथा मार्क्सवाद के असफल सामंजस्य के लिए प्रयत्नशील कवि मानते हैं। वहीं नामवर जी उन्हें नयी कविता की दूसरी प्रगतिशील धारा के सजग मार्क्सवादी कवि और नयी कविता की उपलब्धि मानते हैं।
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एक सजग लेखक के विचारों में स्थिरता जरूरी नहीं, उसमे बदलाव आ सकता है,आता है, खासकर युवावस्था के प्रारंभिक अध्ययन में एक कच्चापन होने की सम्भावना होती है जो प्रौढ़ावस्था में और दृढ़ हो सकती है या बदल भी सकती है। ऐसा भी हो सकता है लेखक के प्रारंभिक जीवन के निष्कर्ष अधिक सही हों और बाद के उसके लेखन में विचलन अधिक हों। लेकिन विचारों में बदलाव एक बात है और जानबूझकर परस्पर विरोधी बातें कहना दूसरी बात है। इस संदर्भ में नामवर जी की दो-एक बातें आश्चर्य में डालती हैं। मसलन वे 1982 में डॉ शर्मा के भाषा विज्ञान सम्बन्धी अध्ययन जहां “युगान्तकारी” और 1983 में “विश्व कोटि की प्रकृति ” का था वही कार्य 2001 मे आकर “अपने जीवन के डेढ़ दशक सर्फ कर दिये।” में बदल जाता है। ये दोनों प्रौढ़ नामवर जी के व्यक्तव्य हैं।
रामविलास जी ने अपनी मान्यताएं अपेक्षाकृत कम बदली।फिर भी रामचन्द्र शुक्ल के छायावाद के सम्बन्ध में उनके प्राम्भिक निष्कर्ष बाद के निष्कर्ष में अंतर है। ख़ुद नामवर जी आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के सम्बन्ध में डॉ शर्मा के एक प्रारंभिक निबंध का जिक्र करते हैं जिसमे उन्होंने द्विवेदी जी के सम्बन्ध में सकारात्मक राय रखी है जो बाद के दौर में बदल जाती है। रामविलास जी अपने एक साक्षत्कार में बताते हैं कि छायावाद और आचार्य शुक्ल के बारे में नामवर जी की पहले की राय ‘सही’ थी।बाद में उन्होंने अपनी राय बदल दी।
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इस तरह रामविलास जी और नामवर जी में सहमति-असहमति के इतने अधिक बिंदु हैं कि सबका एक ही लेख में विवेचन असम्भव है।वैसे इन बिंदुओं पर काफी चर्चा होती रही है,और होती रहेगी।यही वाद-विवाद-सम्वाद का रास्ता है। नामवर जी ने डॉ रामविलास शर्मा पर कोई व्यवस्थित किताब नहीं लिखी है जबकि इसके लिए हमारी समझ मे वे सबसे अधिक सक्षम थे। बहरहाल प्रस्तुत किताब में उनके द्वारा समय-समय पर डॉ शर्मा पर लिखे गये लेखों तथा भाषणों का संग्रह है। साथ ही नामवर जी के अन्य लेखों,पुस्तकों,भाषणों जिनमे रामविलास जी अथवा उनकी मान्यताओं का जिक्र है,उन अंशो को भी शामिल किया गया है। यह श्रमसाध्य है और इसके लिए सम्पादक बधाई के पात्र हैं। अवश्य इन अंशों के अलावा भी कोई कुछ अन्य अंश ढूंढना चाहे तो मिलना असम्भव नहीं है।लेकिन इससे इस किताब किताब की महत्ता कम नहीं हो जाती।
पुस्तक के सम्पादक ज्ञानेन्द्र कुमार संतोष जी ने महत्वपूर्ण भूमिका भी लिखी है जिसमे उन्होंने रामविलास जी के लेखन को सुलभ बनाने और उनके महत्व को रेखांकित करने में नामवर जी के योगदान को रेखांकित किया है। लेकिन इस महत्व के रेखांकन में हमे लगता है ज्ञानेंद्र जी ने कहीं कहीं अतिकथनों का प्रयोग किया है। मसलन जब वे लिखते हैं
“सच तो यही है कि रामविलास शर्मा की उपलब्धि,प्रासंगिकता और सीमाओं का बोध साहित्य-जगत को उतना ही है,जितना नामवर सिंह ने अपने विवेचन में प्रस्तुत किया है।”
तो वे शिवदान सिंह चौहान,रांगेय राघव,मुक्तिबोध से लेकर प्रदीप सक्सेना, वीर भारत तलवार, भगवान सिंह, अजय तिवारी,कृष्ण दत्त शर्मा, रविभूषण जैसे कई रामविलास जी के प्रतिपक्ष और पक्ष में बहस करने वालो को नजरअंदाज करते प्रतीत होते हैं।
ज्ञानेंद्र जी आगे लिखते हैं
“नामवर सिंह में रामविलास शर्मा की तरह अपने प्रतिमानों, मान्यताओं और निष्कर्षों के प्रति हठधर्मिता दिखाई नहीं देती।इसी कारण बदलते परिप्रेक्ष्य में नामवर सिंह अपने प्रतिमानों और निष्कर्षों की आत्मा-समीक्षा करते रहे हैं।एक समीक्षक के रूप में अपने ही औजारों,पद्धतियों और निष्कर्षों से सतत आत्मसंघर्ष नामवर सिंह को विशिष्ट,प्रासंगिक और नूतन बनाता है।एक समीक्षक के रूप में नामवर सिंह की सतत अपरिहार्यता का यही मूल कारण है कि वे अपने किसी सर्जित ‘मुहावरे’ में आत्ममुग्ध होकर कैद नहीं हुए।”
व्यंजना यह कि रामविलास जी अपने निष्कर्षों के प्रति हठधर्मी, अवरुद्ध और आत्ममुग्ध थे!
नामवर जी समकालीन साहित्य पर बात करते रहे,समकालीन साहित्यिक-सामाजिक समस्याओं पर ध्यान केंद्रित किया,यह अच्छी बात है। रामविलास जी समकालीन साहित्य से भले दूर रहें मगर समकालीन समस्याओं से नहीं। वे वर्तमान की समस्याओं की जड़ तक जाने का प्रयास करते हैं, और इस क्रम में पूरी परंपरा की पड़ताल करते हैं।नामवर जी अधिकतर समस्याओं की नब्ज पर उँगली रखते हैं, रोग के मूल तक नहीं जाते। यही कारण है कि किसी एक विषय या विषयों पर उन्होंने ‘जमकर’ बहुत कम लिखा।मसलन रामविलास जी जब वैदिक साहित्य के किन्ही बातों को ‘प्रगतिशील’ दिखाते हैं तो इसका पूरा विवेचन करते हैं, किताब लिखते हैं, नामवर जी जब वैदिक साहित्य के ‘अन्य पक्षों’ की बात करते हैं तो इसके लिए व्यापक विवेचना जरूरी नहीं समझते,केवल संकेत करते हैं।ज्ञानेन्द्र जी के लिए सम्भवतः समस्या को दिखाना ज्यादा सार्थक है बनिस्बत उसकी पड़ताल के!
ज्ञानेंद्र जी रामविलास जी के नब्बे के दशक के लेखन में आये ‘बदलाव’ के बारे में नामवर जी के ही अंदाज में पूछते हैं
“और यह क्या महज संयोग है कि किसी भी दूसरे मार्क्सवादी चिंतक के विपरीत सम्भवतः केवल रामविलास शर्मा को संघ परिवार से स्वीकृति और ऋषि योग्य ‘श्रद्धा’ प्राप्त हुई?”
मानो रामविलास जी ने इसके लिए आवेदन दिया रहा हो! यह ‘श्रद्धा’ तो भगत सिंह को भी मिली है,संयोग से वे भी मार्क्सवाद के करीब हैं।क्या ज्ञानेन्द्र जी उनके लिए भी यह बात कहेंगे?
बहरहाल इन प्रश्नों का उत्तर यदि कोई जानना चाहे तो रामविलास जी के लेखन में ही मौजूद है। रामविलास जी का समूचा लेखन साम्प्रदायिकता का प्रतिपक्ष है,यह बहुतों ने दिखाया है।
रामविलास जी ‘देवता’ नहीं हैं, न नामवर जी।लेकिन रामविलास जी के शब्दों में कहें तो उन पर ‘वर्ग चेतन श्रद्धा’ रखना ‘भक्ति’ नहीं है।यह अपने संघर्ष के नायकों का सम्मान है।
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कृति -रामविलास शर्मा : नामवर सिंह
संपादक- ज्ञानेन्द्र कुमार संतोष
प्रकाशक- राजकमल
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