१९५६ का हिंदी कहानी साहित्य
श्रीपत राय
कहानी पत्रिका के नववर्षांक १९५७ में संपादक का आलेख. आज कोई लिखें तो क्या हम कल्पना कर सकते हैं अड़सठ साल बाद आज का कोई कहानीकार अपने फेसबुक के लाइक्स के साथ बचे होंगे…
इस लेख का शीर्षक भ्रामक भी हो सकता है, यहाँ तक कि ग़लत भी। साहित्य जैसे गतिशील तत्व को समय की परिधि में बाँधने का प्रयत्न हास्यास्पद से अधिक क्या होगा। पर यह विभाजन सुविधाजनक अवश्य है क्योंकि इस प्रकार विषय को संकुचित किया जा सकता है और तब उसका पर्यालोचन शक्य हो जाता है।
पहली बात तो यह कि इस समीक्षा में केवल साम- यिक पत्र-पत्रिकाओं-संकलनों से सहायता ली गयी है क्योंकि कहानी-संग्रहों में संकलित कहानियों में रचना- काल नहीं दिया रहता और इस प्रकार वे लाभप्रद नहीं होते। यदि कोई महत्वपूर्ण रचना उल्लेख से रह गयी है तो यह उसका दोष नहीं, बल्कि लेखक की
अज्ञता को है।
गत ‘कहानी’ विशेषांक में मैंने जो स्थापनाएँ की थीं उनकी पुष्टि इस वर्ष हुई है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि मैं कोई भविष्य-वक्ता या द्रष्टा हूँ। इसका अर्थ केवल यही है कि जो नवयुवक कहानीकार इस दक्षेत्र में आये थे वे इस मंगल-यात्रा में अग्रसर हो रहे हैं। उनमें प्रतिभा भी है, लगन भी। उनमें से कुछ सरकारी नौकरियों में चले गये हैं जो प्रतिभा के लिए हिम-शीतल कब होती है। यह बहुत बड़ा दुर्भाग्य है क्योंकि स्वतंत्र लेखन जीविका नहीं प्रदान करता और सरकारी नौकरी कृतित्व को फूटी आँख नहीं देख सकती। इस वैषम्य के कारण साहित्य की जो क्षति हो रही है वह अपरिमेय और अक्षम्य है।
हिंदी कहानी प्रगति के पथ पर है और हम उसके प्रति अतिशय आशावान् हैं। उसमें गहराई, अनुभूतियों के प्रति एक ज़बर्दस्त ईमानदारी, शिल्प के प्रति बड़ी सावधानी और समूचे लेखन-रूप के प्रति एक भयंकर गंभीरता आती जा रही है। ये सभी बड़े शुभ और आशाकर लक्षण हैं। यों कुल मिलाकर वर्ष भर में दस-बारह से अधिक उत्कृष्ट कहानियाँ प्रकाशित नहीं हुई। पर साहित्य-जैसे महत्वपूर्ण विषय में एक वर्ष का अवकाश इतना थोड़ा होता है कि दस-बारह कहानियों से ही मन को बहुत संतोष होता है। सबसे अधिक खेद का विषय केवल यह है कि हमारे पुराने खेवे के लिखने वाले केवल अपने हलवे-भाँडे में मशगूल हैं। उन्होंने साहित्य में ख्याति की जो पूँजी अर्जित की थी केवल उसी का भोग कर रहे हैं। यह किसी भी साहित्य के लिए चिंतनीय स्थिति है और विशेषकर एक नवोदित, सद्यः स्वतंत्र साहित्य-परंपरा के लिए ।
विष्णु प्रभाकर की कोई बहुत ऊँची रचना इस वर्ष देखने को नहीं मिली। वे अपनी कला के प्रति बड़े उत्तर- दायित्वपूर्ण हैं और यद्यपि इस समय वे रेडियो में काम कर रहे हैं पर अपना लेखन वे नियमपूर्वक जारी रखे हुए हैं। उनकी कहानियाँ यत्र-तत्र प्रकाशित होती रहती हैं। उनका अधिकांश लेखन उच्चकोटि का तथा पठनीय है। वे हमारे साहित्य के लिए एक अमूल्य निधि हैं।
रांगेय राघव की कई कहानियाँ इस वर्ष छपीं। पर वे सभी दुरूह और अपठनीय हैं क्योंकि वे अब वर्तमान जीवन को छोड़कर अतीत में लीन हो गये हैं। लेखक के लिए इस प्रकार की अंतर्मुखी प्रवृत्तियाँ घातक सिद्ध होती हैं। यह वह मार्ग है जिससे निर्वाण और मोक्ष चाहे भले ही प्राप्त होंते हों पर कला का अंत निश्चय ही हो जाता है। हम केवल यह प्रार्थना कर सकते हैं कि वे हमारी इस पापमयी धरती पर उतर आवें ।
चंद्रकिरण सौनरेक्सा की भी कोई उत्कृष्ट रचना इस वर्ष पढ़ने को नहीं मिली। ‘ये बड़े, ये छोटे’ नाम की उनकी रचना पढ़ने को मिली। उसमें उनकी शैली का आनंद तो आया पर वह कोई बहुत ऊँची चीज़ नहीं ।
कमल जोशी में बड़ी प्रतिमा है। पर उनके विषय में जो इधर एक विवाद खड़ा हो गया है उससे भय होता है कि कौन-सी कृति उनकी अपनी है और कौन-सी दूसरों की रचनाओं पर आधारित । यह निस्संदेह है कि वे दूसरों की रचनाओं को समय-असमय अपनाने से विमुख नहीं होते । सच ही यह खेद का विषय है क्योंकि उनमें अपनी प्रतिभा ही इतनी है कि वे बहुत दूर जा सकते हैं। मोहन राकेश ने बड़ी प्रगति की है। उनकी रचनाओं
के प्रति उत्कंठा बनी रहती है। बड़े संयम, बड़े संतुलन, बड़ी अनुभूति और बड़ी मेधा के वे स्वामी हैं। भाषा में चुस्ती, विचारों में प्रखरता और वातावरण को पकड़ने में अचूक दृष्टि उनकी ऐसी विशेषताएँ हैं जो उन्हें बहुत ऊँचा उठायेंगी। ‘मंदी’ शीर्षक कहानी मुझे सबसे अच्छी लगी। उसकी याद भुलाये नहीं भूलती। उनकी एक लम्बी कहानी ‘जानवर और जानवर’ की बड़ी धूम है। पर कहानी के शिल्प की दृष्टि से वह बड़ी ही दोषपूर्ण है इसलिए उसका प्रभाव अच्छा नहीं पड़ता । यहीं पर फिर कहना पड़ता है कि कहानी के लिए शिल्प एक आवश्यक तत्व है न कि केवल अलंकरण ।
रामकुमार की भी कई कहानियाँ इधर पढ़ने को मिलीं। उनमें मुझे आशातीत उन्नति दिखायी पड़ी। पेरिस की पृष्ठभूमि पर आधारित उनकी रचनाएँ मन मोह लेती हैं। रंगों के संबंध में इतने सुन्दर शब्दचित्र कम ही देखने को मिले हैं। एक चित्रकार होने के नाते रंगों के प्रति उनकी संवदेनशीलता और लेखकों से अधिक होनी स्वाभाविक भी है। पर वे तूलिका के जितने सफल धारण करनेवाले हैं लेखिनी के उससे कम नहीं। ‘जीवन का विष’ ‘पेरिस और पतझर’ या ‘पेरिस की नोट्स’ ऐसी कृतियाँ हैं जिन्हें बार- बार पढ़ने को जी चाहता है और उनकी स्मृति प्राणों में दुबकी बैठी रहती है और उनका आनंद एक मीठी याद बनकर मन को कचोटती रहती है।
शिवप्रसाद सिंह भी बराबर लिखते रहे और सभी कृतियों का स्तर बहुत ऊँचा रहा। ‘कर्मनाशा की हार’ मुझे – सबसे विशिष्ट प्रतीत हुई। उनकी शैली का सौंदर्य एक विशेष प्रकार का सौंदर्य है और मुझे बहुत प्रिय है। कथा को एक अप्रत्याशित मोड़ देने की उनकी चातुरी मनोहारी है। इससे कहानी का सौंदर्य भी बढ़ता है और उसकी शक्ति भी। यह एक शिल्प-गत विशेषता है और शिवप्रसाद सिंह शिल्प के बड़े पुजारी हैं। ‘बिंदा महाराज’ भी उनके रंग में लिखी एक अच्छी चीज है।
कृष्णा सोबती की एक शक्तिशाली कृति ‘भोले बाद- शाह’ देखने में आयी। एक पागल और उसकी माँ का चरित्र-चित्रण इतना सफल हुआ है कि उसकी प्रशंसा वर- यस करनी पड़ती है। सोवती में लिखने की बड़ी शक्ति है, यह संदेह से परे है। वे कम लिखती हैं पर बहुत अच्छा लिखती हैं।
भीष्म साहनी ने सदैव की भाँति इस वर्ष भी कुछ सुन्दर कहानियाँ लिखीं। उनके लेखन का स्तर कभी गिरता नहीं। उनकी कहानियों का एक संग्रह ‘पहला पाठ’ इस वर्ष प्रका- शित हुआ है। उनकी इस वर्ष की कहानियों में ‘चीफ की दावत’ मुझे सब से अच्छी लगती है। उस कहानी की ट्रेजेडी इतनी व्यापक है कि वह पूरी कहानी में पृष्ठ-संगीत की भाँति गुन्-गुन् करती रहती है।
ओम्प्रकाश श्रीवास्तव बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं। उनकी प्रगति सच ही चकित करनेवाली है। इसके प्रमाण स्वरूप इसी विशेषांक में प्रकाशित उनकी ‘चौदहकोसी पंचा- यत’ पढ़ देखिए। रोमांच हो आता है। इतनी जोरदार कहानी है कि हिला देती है। यह उनकी कला का चरम विकास है। इसके अतिरिक्त उनकी और भी कई कहानियाँ पढ़ने को मिलीं। एक और उल्लेखनीय कहानी जो स्मृति में उलझी रह गयी है ‘स्वप्न देश’ है। निग्नमध्यवर्गीय समाज के वे सफल चितेरे हैं और उसके समस्त दैन्य का चित्र उनके यहाँ मिल जाता है।
मार्कण्डेय ने कई कहानियाँ प्रकाशित की। ‘ब्रह्मदोष’ में बड़ी जीवनी-शक्ति है। ऐसी ही कहानियाँ उनका सच्चा प्रतिनिधित्व करती है। इसके अतिरिक्त ‘बुचऊ सिंह’ भी सुन्दर कृति है। मार्कण्डेय अपने लेखन में उरोत्तर अधिक परिपक्वता तथा व्यंजनाशीलता लाते जा रहे हैं जो बड़े ही शुभ लक्षण हैं।
कमलेश्वर की कई कहानियाँ देखने में आयीं पर उन सब में सब से अच्छी ‘देवा की माँ’ लगी। देवा का चरित्र भी खूब निखरा है और देवा की माँ तो जैसे साक्षात हमारे सम्मुख खड़ी हैं- नारी की अजेय मूर्ति। उनका चरित्र सच ही नारी-मात्र की अजेयता का प्रतीक है। वह कहानी बहुत ही ऊँची उठी है। सभी दृष्टियों से वह एक सफल कहानी है। मन पर उसका प्रभाव अमिट हो जाता है।
राजेंद्र यादव का लेखन बड़ां उलझा हुआ होता है। लगता है कि वे प्रभाव उत्पन्न करने के लिए अनेक साधन जुटाते हैं पर बदनसीबी तो यही है कि प्रभाव के पीछे लेखक जितना ही भागता है कृति उतनी ही प्रभाव-हीन होती जाती है क्योंकि इस दौड़ में वह स्वाभाविकता की हत्या कर देता है। प्रभाव यदि एक स्वाभाविक रूप में नहीं उपजता तो फिर वह उपजता ही नहीं। उसे उपजाने का प्रभाव सदैव असफल ही रहेगा। उदाहरण के लिए उनकी कहानी ‘जहाँ लक्ष्मी कैद है’ मेरे दिमाग में आती है। उसके अतिरिक्त और भी उनकी कहानियाँ इसी प्रकार की है जिनमें बड़ी चातुरी से काम लिया गया है पर वे सभी फीकी रचनाएँ हैं। इस वर्ष प्रकाशित उनकी रचनाओं में सबसे अच्छी मुझे ‘रोशनी कहाँ है… लगी। उस में बड़ा हार्दिक, बड़ा स्वस्थ चित्रण मिलता है। वह एक सफल कहानी क्यों है ? लेखक उस में बिना कौशल के वह प्रभाव उत्पन्न कर सका है जो अन्य जगह वह कर ही नहीं पाता। ऐसी कहानियाँ यदि और प्रकाश में लावें तो राजेन्द्र यादव साहित्य का बड़ा उपकार करें ।
अमरकांत बड़ी अदम्य प्रतिभा लेकर साहित्य में आये हैं। उनके पास अनुभूति-प्रवणता, दृष्टि की अचूकता, भाषा की सबलता और व्यंजनात्मकता सभी गुण विद्यमान हैं। वे बहुत दूर जायेंगे। ‘डिप्टी कलक्टरी’ पाठकों ने पढ़ी ही है। वह बड़ी ही उत्कृष्ट कृति है। उसके अतिरिक्त ‘जिंदगी और जोंक’ उनकी एक सशक्त कहानी और भी पढ़ने को मिली। वह बड़ी ही सप्राण रचना है पर उसे बहुत बढ़ा दिया गया है। उसका अन्त वीभत्स हो गया है। यदि उस कहानी को उतनी दूर न खींचा गया होता तो वह एक निर्दोष कहानी थी और बहुत ही उत्कृष्ट ।
निर्मल वर्मा बड़ी तेज़ी से सामने आ रहे हैं। उनकी कहानी ‘डायरी का खेल’ भुलाये नहीं भूलती । उसमें व्याप्त एक विशेष प्रकार की आकुलता मन पर छा जाती है और बड़ी देर तक उस अवसाद से छुटकारा नहीं मिलता। ‘माया का मर्म’ उनकी एक और भी बड़ी सुंदर रचना है। उनसे बड़ी आशाएँ बँधती हैं।
शेखर जोशी एक नवोदित कथाकार हैं जिनकी एक सुन्दर कृति ‘उस्ताद’ आप इस विशेषांक में पढ़ेंगे। उनमें बड़ी व्यंजना-शक्ति और अंतदृ ष्टि है। उनकी एक मनो- हारिणी कृति ‘दाज्यू’ इतनी नाजुक, इतनी हसीन और सीधी मर्म पर चोट करनेवाली है कि चित्त प्रसन्न हो जाता है। इस नवयुवक कलाकार के प्रति मन में बड़ी आस्था जागती है।
हिंदी कहानी का भविष्य उत्तरोत्तर आशाप्रद होता जा रहा है। यह कहते संकोच नहीं होता कि हिंदी कहानी प्रगति के पथ पर बड़े ही दृढ़ चरणों से अग्रसर हो रही है। और यह कहते भी संकोच नहीं होना चाहिए कि इस जय-यात्रा में ‘कहानी’ का बहुत बड़ा योग है क्योंकि हिन्दी की उत्कृष्ट कहानियों में से अधिकांश ‘कहानी’ के पृष्ठों में ही सर्वप्रथम स्थान पाती है। यह आत्म-श्लाधा नहीं नग्न सत्य है।