December 3, 2024

राचर सुरक्षा की गारंटी (लेख)

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राचर एक दरवाजा होता है जो घर के बाहर घेरे से अंदर आने की जगह पर लगा रहता है। यह बियारा याने खलिहान में भी लगा रहता है। यह घर से ज्यादा खलिहान में लगा रहता है। राचर को बाड़ी में भी लगाते है। बड़े बड़े फार्म हाऊस में भी लगाते है।

अब इसका स्वरुप बदल गया है। अब यह हल्के लोहे का भी बनने लगा है। परन्तु गाँव के अंदर के हिस्सों में आज भी राचर दिखाई देता है। यह राचर याने ” रोका” किसी को अंदर आने से रोकना। जानवरों से घर.खलिहान को सुरक्षित रखना।

पहले तो लोग मिट्टी के घर या फूस की झोपड़ी बना कर रहते थे। दीवार मिट्टी की रहती थी। उससे भी पहले लकड़ियों से छोटी जगह घेर कर लकड़ियों को पत्ते या फूस से ढक देते थे। इस फूस से अंदर पानी नहीं आता था। एक बहुत बड़ा बंगला अँग्रेज़ों के समय का मनसर माइंस में था। मैं उसे देखी थी और रही भी थी। यहाँ.पैदा हुई एक अंग्रेज अक्सर उसे देखने आती थी।मेरा भाई वहाँ रहता था, उस माइंस का मैनेजर था। वह यादगार बंगला था जिसमें पिछले साल आग लग गई और सब नष्ट हो गया।

यह फूस से बने मकान बाद में खपरे से ढकने लगे। लोगों ने जानवर पालना शुरु कर दिया क्योंकि लोग खेती करने लग गये थे। ये जानवर घर के आसपास जब रहते तब अंदर मत आये करके उनके लिये अलग जगह तय की गई। इसे कोठार कहा गया।
यहाँ से जानवर बाहर मत जायें करके राचर लगा देते थे। घर में भी अहाता बनाने लगे और राचर लगा दिये। अब घर में लोग सब्जियाँ भी लगाने लगे। खलिहान में भी गर्मी में सब्जी लगा लेते थे। वहाँ पर तो पहले से ही राचर लगा रहता था।

अब बताते हैं कि यह राचर होता कैसा है। यह चार, पांच ,छः, से सात फीट लम्बा होता है। आयताकार होता है। ऊपर नीचे मोटा पेड़ का तना काट कर लगा देते। दोनों वाजू में उससे पतली लकड़ी लगा देते हैं। बीच में पतली लकड़ी खड़ी लगा कर फूस से ढक देते हैं। दूसरी तरह का बनता है जिसमें बीच में कांटेदार शाखायें लगा देते हैं। कांटेदार अक्सर बेर ही होता है। तीसरे तरह का राचर बनता है जिसमें बीच में कुछ नहीं होता है बस आड़ी लकड़ियाँ ही लगी रहती है। यह अक्सर घरों के घेरे में लगा रहता है।

इसकी महिमा बहुत है। सैकड़ों सालों से ताला की जगह इस राचर ने ही सुरक्षा की जिम्मेदारी सम्हाली थी। बाद में घरों में ताले भी लगने लगे। राचर यदि किसी ने खोल दिया है और वह वैसे ही चला गया तो आने जाने वाले उसे बंद कर देते हैं। हाँ यह राचर एक पल्ले के दरवाजे की तरह खुलता है। एक तरफ लकड़ी से घेरे की दीवार में जुड़ा रहता है। उसे उठा कर खोलते हैं और लगाते हैं।
पहले घर ऐसे ही खुला छोड़कर अहाते का राचर लगा कर लोग खेत खार या बाजार चले जाते थे। राचर का लगा होना पहचान था कि लोग घर पर नहीं हैं । कोई आता नहीं था। चोरी भी नहीं होती थी। फसल के समय अनाज ,सब्जी भाजी या और भी कुछ सामान वैसे ही रखे रहता था।

खलिहान में तो कभी भी कोई भी सामान इधर उधर नहीं होता था। कई बार लोग खलिहान देखने राचर खोल कर आते हैं और उसे देखकर राचर बंद करके वापस चले जाते हैं। हम लोग भी गाँवों में कई बार ऐसा किये हैं किसी का खलिहान देखने चले गये। कभी कभी गर्मियों में सब्जिया लगी होती है तो उसे तोड़ भी लेते हैं और घर लौटते समय खलिहान वाले को बता भी देते हैं।

यह ईमानदारी गाँवों में ही दिखती है। आज भी एक राचर के सहारे खलिहान सुरक्षित रहता है। घर में अब लोहे के गेट बन रहे हैं पर जो बुजुर्ग हैं वे लोग इसे भी राचर ही कहते हैं।

आज राचर की जगह लोहे की गेट ने ले ली है। इसे उठाना नहीं पड़ता है। इसे खोलकर आसानी से घर के आँगन में आ सकते हैं। राचर को उठा कर ही खोलते हैं। यह छै सात फीट तक लम्बा इस कारण होता है कि एक बैलगाड़ी सीधे अंदर चली जाये। धान की कटाई होती है और धान खलिहान में आता है। फिर उसकी मिंजाई होती है। बेलन चलता है। बेलन में बैल को फांद कर चलाते हैं। बेलन बहुत मोटी लकड़ी से बना होता है। यह मोटे वृक्ष का तना होता है। इसके दोनों तरफ लोहा लगाकर चकरी की तरह घुमाते हैं यह गोलाकार ही घूमता है।

इसके भूसे को बाद में सूप से उड़ाते हैं जिसे छत्तीसगढ़ में ” ओसाना “कहते हैं। भूसी उड़ जाती है और धान बच जाता है। इस धान को घर ले जाते हैं या फिर बोरे में भरकर बेचने के लिये रख देते हैं। इसे बैलगाड़ी में भर कर घर ले जाते हैं या फिर सिर पर टोकनी रख कर।

यह राचर देशी गेट या दरवाजा ही था पर सुरक्षित था। यह मुस्कराते रहता था। क्योंकि इसकी जगह किसी ने नहीं ली थी। बड़ी शान से खड़ा रहता था। उसके रुप भी अनेक थे। फूस से सजा रहता था। कभी कांटो के बीच इठलाता था। कभी बिना सिंगार के बिना कपड़ों के खड़ा रहता था। कभी कमर झुक जाती थी तो भी हँसते रहता था। कभी काले पड़े अंगो पर भी गुरुर करता था। न जाने कब और कैसे शहरीकरण की आग ने उसे झुलसाना शुरु किया और कई जगहों से वह गायब होने लगा। धीरे धीरै लकड़ी की जगह लोहे ने ले ली। अब राचर की जगह लोहे के गेट ले रही है। जंगली क्षेत्र के घरों में ही राचर दिखता है। रेल से यात्रा करो तो राचर को देख सकते हैं पर वह अब मुस्कुराना भूल रहा है। बस टुकुर टुकुर निहारते रहता है।

आज भी राचर वाले घरों में चोरियाँ नहीं होती हैं। राचर का अपना गौरव है जिसके कारण कोई उसकी तरफ नजर उठा कर नहीं देखता है। पर विकास की दौड़ किसी भी जगह को नहीं छोड़ रही है। सबको अपने में समेटते जा रही है। कब तक राचर अपने आप को बचा पायेगा?
सुधा वर्मा 20/7/2024
( प्रथम किस्त…………………बातें कुछ ज्यादा लम्बी है और विभिन्न विषयों पर है इसलिये इसे किस्तो में पोस्ट कर रहा हूं। एक साथ पोस्ट करने से लोग बड़ा मैटर देख कर पढ़ते भी नहीं हैं)

साथयो, गांवों में ऐसे अनेक रीतिरिवाज और परंपराएं हैं जो हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। ये सभी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही हैं। इतना ही नहीं, यह भारतीय समाज की विविधता और सांस्कृतिक धरोहर को भी दर्शाता है। गांव के रीतिरिवाज और परंपराएं सामाजिक एकता की भावना को बढ़ावा देती हैं। ये रीतिरिवाज हमारे जीवन का अभिन्न हिस्सा होते हैं और पीढ़ियों से चली आ रही परंपराओं को सजीव रखते हैं।
हर गांव का अपना एक रीतिरिवाज होता है। आप जिस गांव से हैं वहां के भी कुछ रीतिरिवाज होंगे। आइए, आज मैं आपको मेरे गांव के कुछ रीतिरिवाज से अवगत कराता हूं।

हल्दी और नमक……………
शुभप्रभातम जी🌹🌹🙏🙏🍫🍫🎻🎻🚩🚩🌈

ग़ज़ल
***

वो लड़ता है झगड़ता भी बहुत है
मगर फिर प्यार करता भी बहुत है

मुझे वो इश्क़ तो करता है दिल से
बता देने से डरता भी बहुत है

यकीं उस पर करूँ तो कैसे कर लूँ
वो बातों से मुकरता भी बहुत है

तड़पता है वो दिल में दर्द बनकर
वो आँखों में उमड़ता भी बहुत है

कभी वो मेरे दिल को तोड़ता है
मगर फिर दिल से जुड़ता भी बहुत है

वो आँसू बनके आँखों में बसा तो
दिया बनकर वो जलता भी बहुत है

वो जीता है मेरी साँसों की ख़ातिर
मगर मुझ पे ही मरता भी बहुत है

-चेतन आनंद
ग़ाज़ियाबाद
बाल पहेलियाँ…(25-7-2024)

(1)
पीला हरा सुनहरी लाल।
फल का राजा करे कमाल।

(2)
हरे और काले लंगूर।
रहें झुंड में रस भरपूर।

(3)
भीतर सफेद बाहर पीला।
छील खा रही देखो शीला।

(4)
विटामिन ‘सी’ से है भरपूर।
जन्मस्थल उसका नागपूर।

(5)
गरमी की ऋतु में हैं आते।
अंदर सुर्ख लाल हम पाते।

(6)
प्रथम हटे तो पीता जाए।
मध्य हटे तो पता बताए।

(7)
एक रोज जो इसको खाये।
डाॅक्टर उसके पास न आये।

(8)
मरुस्थल का फल मशहूर।
पौष्टिकता उसमें भरपूर।

(9)
तरबूजे का छोटा भाई।
स्वाद महक में है सुखदाई।

(10)
लाल दांत जिसमें भरपूर।
रक्त अल्पता करता दूर।

✍️रामेन्द्र कुमार शर्मा ‘रवि’
45, हरदीप एन्क्लेव सिकंदरा
आगरा (उत्तर प्रदेश) 282007
मित्रो! सुप्रभात।

प्रस्तुत है एक ग़ज़ल-

शक्ल पाती रही शायरी में सनम,
रूह की तिश्नगी ज़िन्दगी में सनम।

तिश्नगी= प्यास

दिलकशी में है इसका न सानी कोई,
रूप खिलता है जो सादगी में सनम।

दिलकशी=आकर्षण, सानी=बराबरी का, तुल्य

याद आते थे तुम ही तो हर बात में,
थी कशिश क्या ग़ज़ब, दुश्मनी में सनम।

कशिश=आकर्षण, खिंचाव

दोस्ती, रिश्तेदारी, वफ़ा, ज़िन्दगी,
शक्ल पाती नई, मुफ़लिसी में सनम।

सब नक़ाबें हटा के मिलो, तो मिलें,
है छुपाने को क्या, दोस्ती में सनम।

इल्म से ही फ़क़त शेर बनता कहाँ,
फ़िक्र भी चाहिए शाइरी में सनम।

फ़क़त=मात्र

उम्र लगता मुझे बस वही जी सका,
जो बितायी तेरी आशिक़ी में सनम।

– वीरेन्द्र कुमार शेखर
हाँ, मैं तुमसे प्यार करता हूँ
——————————–
कविता / डॉ. वागीश सारस्वत

हाँ, मैं तुमसे प्यार करता हूँ
तुम भी बखूबी जानती हो ये बात
जान लेती हो तुम सब कुछ हमेशा
बिना कुछ कहे
पर स्वीकार नहीं करती कभी

मैं डरता हूँ जिस बात से
वो ही बात ठीक सामने आकर खड़ी हो जाती है हमेशा

हाँ , डरता हूँ कि
डरना जरूरी है
डरता हूँ कि तुम जरूरी हो मेरे लिए

हाँ, तुमसे ही बना है अस्तित्व मेरा
तुम से ही सीखा है मुस्कराना
गीत गाना

तुम हो तो झूमने लगता है आसमान
गाने लगते हैं बादल बरसाती राग
मदमस्त हो जाती हैं हवाएँ
चहकने लगती हैं लहरें सागर की
तुम हो तो पत्ते भी टहनियों के साथ करने लगते हैं रासलीला
तुम हो तो बनता है सतरंगी इंद्रधनुष खुशियों का
तुम्हारे बिना उदास हो जाते हैं पत्ते
टहनियां भी करने लगती हैं विधवा विलाप
हवाएँ हो जाती हैं उदास
लहरें भी लौटने लगती हैं सागर की गोद में छिपाने के लिए अपना सिर
तुम्हारे बिना रोने लगता है आसमान

तुम जानती हो सब कुछ बिना कुछ कहे
फिर भी खामोश रहती हो तुम

हाँ,सिर्फ तुम जानती हो
कि कितना मुश्किल होता है छिपाना
आसान होता है कहना

मैंने अपना ली है आसान राह
और कह दिया है तुमसे
हाँ,मैं तुमसे प्यार करता हूँ।।
मेरे बचपन के दोस्त रमेश नैयर

बात 1956 की है । मैं उस साल दिल्ली के लिए प्रस्थान कर रहा था क्योंकि लोकसभा सचिवालय में मेरी नौकरी लग गयी थी। रायपुर में मैं 1949 से 1956 तक रहा। 1954 में माधवराव सप्रे हाई स्कूल से ग्यारहवीं पास की थी। सती बाज़ार स्थित जयहिन्द
टाइपिंग इंस्टीटयूट से अंग्रज़ी और हिंदी की टाइपिंग सीख कर नागपुर से परीक्षा भी पास कर ली थी।
ग्यारहवीं पास करने के बाद मैंने छत्तीसगढ़ कॉलेज में दाखिला ज़रूर ले लिया था लेकिन टाइपिंग इसलिए सीख ली थी ताकि वक़्त ज़रूरत पर काम आये ।जिस तरह आजकल नौकरी के लिए कंप्यूटर की जानकारी
ज़रूरी है उन दिनों मैट्रिक पास करने के बाद आम तौर पर बच्चे टाइप-शार्टहैंड अवश्य सीखा करते थे। 1952 में मेरे पिताजी के असामयिक निधन से मेरे लिए नौकरी करना भी अनिवार्य हो गया था।इसलिए मैंने सवा साल तक वनसंरक्षक विभाग में नौकरी कर ली थी।

1…
गीत है ये…

गीत है ये तेरा, गीत है ये मेरा!
खोके ना गुनगुनाया तो क्या फायदा!
जिंदगी रोज़ तूफां में चलती रही!
अब किनारा न पाया तो क्या फायदा !
आज़ ही है यहां कल न आए कभी!
दिल न समझा तेरा तो है क्या फ़ायदा!
गम की रातों में भी हमको जीना यहां!
डर ने जी भर सताया तो क्या फ़ायदा!
आग जंगल में है यूं न सोचो कभी!
सांस को ना बचाया तो क्या फ़ायदा!
शोर है यूं मचा उसने आवाज दी!
मैं समझ ही न पाया तो क्या फ़ायदा !
घर बनाता गया रेत के ढेर में!
रुख़ हवा का न समझा तो क्या फ़ायदा!
खो गया गीत मेरा ही मुझमें कहीं!
खुद को खुद में न पाया तो क्या फ़ायदा!

जगदीश चन्द्र जोशी
💞💛~’नज़्म’~💛💕

ज़ीस्त में मेहरबां अंजुमन चाहिए।
संगिनी भी मुझे गुलबदन चाहिए।

ख़ूबसूरत परी, बोलते से नयन,
नक्स तीखे, सरापा चमन चाहिए।

लब पे लाली, हो रुख़्सार पर काला तिल,
थोड़ी शर्मो-हया बाँकपन चाहिए।

रूप की रानी गौहर से दंदाँ सजे,
मू-कमर तन, दहकता बदन चाहिए।

कोई देखे तो बस देखता ही रहे,
ऐसा इक हमसफ़र हम-सुख़न चाहिए।

मखमली पग महावर दमकते हुए,
हाथ पर मेंहदी का पैरहन चाहिए।

मस्त मौला है घनश्याम फिर भी इसे,
ख़ुशक़बा ख़ुश अदा जानेमन चाहिए।

अर्थ :
मू-कमर = पतली कमर
गौहर से दंदाँ = मोतियों जैसे दाँत
हम-सुख़न = साथ साथ बात
करने वाला
ख़ुशक़बा = खुश करने वाला
आवरण

✍कालजयी ‘घनश्याम’
नई दिल्ली

💕💛💕💛💕💛💕💛💕
( चन्द्र शेखर आजाद – एक दृढ़ संकल्प क्रांतिकारी )

क्रांति का सुलगता गीत थे तुम
स्वातंत्र-समरांग के संगीत थे तुम
तेजाब बनकर आंख में अंगार के शोले जगाए
दुश्मनों के ऊपर भारी भरकम जीत थे तुम

घात-प्रतिघात पर ललकार थे तुम
दम्भ-पाखंड ध्वंसक धार थे तुम
इंकलाब की आग में होली जलाई
पुण्यात्मा सौभाग्य के अवतार थे तुम

शत-शत नमन है इन्हें जो कुर्बान तिरंगे की आन पर
श्रद्धा-सुमन दिल से समर्पित मिट गए जो शान पर
देश इनका चिर् ऋणी कीमत चुका सकता नहीं
सर झुकता है सभी का हे आजाद ! तेरे मान पर

बुलबुले सी जिंदगी जी कर क्या करोगे ?
चित्तड़े सी जिंदगी जी कर क्या करोगे ?
क्या करोगे चादराॅं जो बदन ढ़पें नहीं
झलामा जिंदगी अमि पीकर क्या करोगे ?

‘स्व’ की निजता से अनजान हो गए
त्याग-समर्पण की पहचान हो गए
थी सोच उनकी ऐसी ना मन में थी झिझक
देश की अस्मिता पर कुर्बान हो गए…
बारिश…

हरे को और हरा करती ,
नम को और नम करती,
एकांत को और गाढ़ा करती
स्मृतियों की धार को और पैना करती।

बारिश…
बाहर गिरती
भीतर भिगोती ।

बारिश…
मुझमें धँसती
मुझे चीरती,
कांच बूंदों से लहूलुहान कर मुझे समूल नष्ट करती ।

बारिश, यह बारिश …
जो मुझे बार बार जन्मती है ,

क्या आकाश से पानी गिरने की एक घटना मात्र है ?

—–पल्लवी
लोक परंपरा के मोहक रूप ‘नगमत’
हमर छत्तीसगढ़ म सांस्कृतिक विविधता के अद्भुत दर्शन होथे. इहाँ कतकों अइसन परब अउ परंपरा हे, जेला कोनो अंचल विशेष म ही बहुतायत ले देखे बर मिलथे. हमर इहाँ एक ‘नारबोद’ परब मनाए जाथे, एला जादा कर के वन्यांचल क्षेत्र म ही जादा कर के देखे जाथे. ठउका अइसने ‘नगमत’ के परंपरा घलो हे, जेला क्षेत्र विशेष म ही बहुतायत ले देखे जाथे.
‘नगमत’ के आयोजन ल जादा करके नागपंचमी के दिन ही करे जाथे. वइसे कोनो-कोनो गाँव म एकर आयोजन ल हरेली या पोरा के दिन घलो कर लिए जाथे. जानकर मन के कहना हे, बरसात के दिन म सांप-डेड़ू जइसन जहरीला जीव-जंतु खेत-खार आदि म जादा कर के निकलथे, अउ ठउका इही बेरा खेती किसानी के बुता घलो भारी माते रहिथे, अइसन म लोगन ल खेत-खार जाएच बर लागथेच एकरे सेती उंकर मनके प्रकोप ले बांचे खातिर एक प्रकार के पूजा-बंदना करे जाथे. उंकर मनके…
असहमतियों और निर्मल वर्मा पर चर्चा…

जैसा कि आजकल देख, सुन और पढ़ रही हूँ अब हमारी प्रतिरोधक क्षमता ख़त्म होती जा रही है । कोई भी चीज़ यदि हमारे पैमाने पर खरी नहीं उतरती तो हमको लगता है कि वह सारी दुनिया को भी ठीक वैसी ही लगनी चाहिए जैसा उसके लिए हम महसूस कर रहे हैं ।

एक बात बताइए, क्या यह ज़रूरी है कि सभी लेखन सबकी समझ में आना ही चाहिए या सबको पसंद होना चाहिए ? नहीं न ? तो किसी नापसंद वस्तु के अस्तित्व पर सवाल क्यों करना ? ठीक है आपको कोई भाषा-शैली नहीं पसंद आयी लेकिन इसका यह तात्पर्य नहीं है कि उसका कोई वजूद ही नहीं है ।

चलिए मैं अपनी समझ अनुसार तथ्य पर बात करने की कोशिश करती हूँ…

निर्मल की भाषा-शैली को “मैजिकल रेयलिज़्म” कहते हैं ।

यह लेखनी एक अतियथार्थवादी दुनिया के रास्ते खोलती है । बिम्ब से बनी एक ऐसी दुनिया जहाँ बात को कहने का एक अलग तरीका है । क्य…
फ़िल्म ’पार ’ : गौतम घोष (1984)
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देश में सामंती समाजों के अवशेष बीसवीं शताब्दी तक बने रहें। अब पूरी तरह खत्म हो गए हों ऐसा भी नहीं।मगर उल्लेखनीय कमी अवश्य आई है। सामंती समाजों की एक बड़ी समस्या वर्ण व्यवस्था की रही है,जिसमे जन्म आधारित व्यवस्था के तहत मनुष्यों के बीच ऊँच–नीच का भेदभाव किया जाता रहा। इस व्यवस्था के निचले पायदान पर आरोपित जातियां अमूमन सर्वहारा भी होती थीं।यानी जातियां उत्पीड़न का एक आर्थिक आधार भी था।इस तरह संघर्ष दोहरा था।

गांव में जो प्रभु जातियां होती थीं,वे संपत्तिशाली वर्ग भी थें। उनका अस्तित्व किसानों -मजदूरों के शोषण पर निर्भर था, इसलिए अधिक लगान, बेगारी, कम मजदूरी सामान्य बात थी। आज़ादी के बाद ज़मींदारी ‘उन्मूलन’ के बाद भी यह व्यावहारिक स्तर पर बना रहा। भूमिहीन मजदूर उन पर निर्भर थे। उनके ख…
फ़िल्म ’पार ’ : गौतम घोष (1984) https://chhattisgarhmitra.com/?p=5351
असहमतियों और निर्मल वर्मा पर चर्चा… https://chhattisgarhmitra.com/?p=5354
लोक परंपरा के मोहक रूप ‘नगमत’ https://chhattisgarhmitra.com/?p=5357
बारिश… https://chhattisgarhmitra.com/?p=5359
चन्द्र शेखर आजाद – एक दृढ़ संकल्प क्रांतिकारी https://chhattisgarhmitra.com/?p=5362
कविता को धैर्य पूर्वक पढ़ सकने का समय दे सकें तो पढ़े। कविता विस्तारित है किंतु , स्त्री मन की परत खोलती जान पड़ेगी।

तुम जानते हो पुरूष ..!

वर्षों बाद भी जब तुमने बात की तो कहा
तुम मुझसे घृणा नहीं कर सकती हो
मैं कहती रही मुझे तुमसे घृणा है
तुमने मुझसे विश्वासघात किया
प्रेम मुझसे और
विवाह किसी और से किया।

तुम हंसकर कहते
एक बार मुझसे एकांत में मिलो ,
तुम्हारी सारी घृणा दूर हो जाएगी.
सुनो पुरूष ..!
मैं इस बात पर तुमसे
और अधिक घृणा करने लगी
यह तुम्हारा अपराध ही नहीं
अपितु भूल भी थी

तुम्हारे उस एकांत में पुनः मिलने के
आमंत्रण का अर्थ
मैं भली-भांति जानती थी,
मैं समझ पा रही थी कि ,
तुमने प्रेमिका बनाकर
मेरे साथ तो कपट किया ही ,
अब किसी को अर्धांगिनी बनाकर
तुम उसे भी छल का विष
दे देने को आतुर थे

और हाँ एक क्षण रुको ..!
तुम्हारे उस एकांत में मिलने के आमंत्…
तुम जानते हो पुरूष ..! https://chhattisgarhmitra.com/?p=5365
मेरे बचपन के दोस्त रमेश नैयर https://chhattisgarhmitra.com/?p=5368

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