जन्मदिन : भारतेंदु (भारत के चाँद) हरिश्चंद्र
आज 9 सितम्बर को काशी में जन्मे हरिश्चंद्र को विद्वानों ने यूँ ही ‘भारतेंदु’ अर्थात भारत का चांद की उपाधि नही दी थी। रीतिकाल से अलग कर खड़ी बोली को आज हिंदी के रूप में स्थापित करनेवाले भारतेंदु का प्रगतिशील समाज सदैव ऋणी रहेगा। कलम को अव्यवस्था, भ्रष्टाचार, कुरीति, विडम्बनाओं आदि के खिलाफ विविध साहित्य विधाओं से जाहिर कर उसमें सुधार को प्रेरित करनेवाले भारतेंदु आज उतने ही समीचीन हैं। उनकी प्रगतिशीलता उनके पत्रकार रूप में हम ऐसे देख सकते हैं कि उन्होंने अठारह वर्ष की अवस्था में ही ‘कविवचनसुधा’ नामक पत्रिका निकाली, जिसमें उस समय के बड़े-बड़े विद्वानों की रचनाएं छपती थीं। उन्होंने 1868 में ‘कविवचनसुधा’, 1873 में ‘हरिश्चन्द्र मैगजीन’ और 1874 में स्त्री शिक्षा के लिए ‘बाला बोधिनी’ नामक पत्रिकाएँ निकालीं।
नाटककार भारतेंदु के तत्कालीन नाटकों को देखकर लगता है, आज ही पर लिखा है उन्होंने क्योंकि लोग बदले, व्यवस्था नही बदली। उनके नाटक हैं – वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति (1873) सत्य हरिश्चन्द्र (1875) श्री चंद्रावली (1876) विषस्य विषमौषधम् (1876) भारत दुर्दशा (1880), नीलदेवी (1981) अंधेर नगरी (1881) प्रेमजोगिनी (1881) सती प्रताप (1883,अपूर्ण, केवल चार दृश्य, गीतिरूपक, बाबू राधाकृष्णदास ने पूर्ण किया)
भारतेंदु ने अन्य भाषाओं से हिंदी समाज को परिचित करवाने नाटकों का अनुवाद भी किया – विद्यासुन्दर (1868) पाखण्ड विडम्बन, धनंजय विजय, कर्पूर मंजरी (1875) भारत जननी (1877) मुद्राराक्षस (1878) दुर्लभ बंधु (1880) आदि अनुवाद उनकी अन्य भाषा साहित्य के प्रति रुचि को दर्शाते हैं।
भारतेंदु कितना जागे हुए थे, उनके निबंधों में उनके विषय देखिये- भारतेन्दु ग्रन्थावली, ‘नाटक’ शीर्षक प्रसिद्ध निबंध(1883)। निबन्ध – नाटक, कालचक्र (जर्नल), लेवी प्राण लेवी, भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है?, कश्मीर कुसुम, जातीय संगीत, संगीत सार, हिंदी भाषा, स्वर्ग में विचार सभा। अपने समकाल पर कितनी व्यापक दृष्टि थी उनकी, आसानी से समझा जा सकता है।
भृतेन्दु की कविआताओं में प्रेम बहुत दिखता है। उनके काव्यसंग्रह देखें – भक्तसर्वस्व (1870), प्रेममालिका (1871), प्रेम माधुरी (1875), प्रेम-तरंग (1877), उत्तरार्द्ध भक्तमाल (1877), प्रेम-प्रलाप (1877), होली (1879), मधु मुकुल (1881), राग-संग्रह (1880), वर्षा-विनोद (1880), विनय प्रेम पचासा (1881), फूलों का गुच्छा- खड़ीबोली काव्य (1882), प्रेम फुलवारी (1883), कृष्णचरित्र (1883), दानलीला, तन्मय लीला, नये ज़माने की मुकरी, सुमनांजलि।
उन्होंने बन्दर सभा , बकरी विलाप (व्यंग्य), अद्भुत अपूर्व स्वप्न (कहानी), सरयूपार की यात्रा, लखनऊ (यात्रा वृत्तांत), एक कहानी- कुछ आपबीती, कुछ जगबीती (आत्मकथा) पूर्णप्रकाश, चन्द्रप्रभा (उपन्यास) भी लिखा। इतना सब उन्होंने कुल जमा पैतीस साल की अल्पायु में लिखा। यह जीवन की सार्थकता है।
आज यथार्थवाद और प्रगतिशीलता के जो फल हम हिंदी के वृक्ष पर देख रहे हैं, वह भारतेंदु हरिश्चंद्र का लगाया बीज है। समाज के पतन का अंधेरा जब भी होगा, भारतेंदु के साहित्य का प्रकाश उसे दूर करने को प्रेरित करने के लिए पर्याप्त है। उनकी मुख्य रचनाएं ‘भारत दुर्दशा’, ‘अंधेर नगरी’ और ‘वैदिकी हिंसा, हिंसा न भवति’ इंटरनेट पर उपलब्ध हैं, एक बार अवश्य पढिये।
आधुनिक हिंदी साहित्य के प्रथम पुरखे को आज उनके जन्मदिवस पर सलाम ! 💐
. यात्रा
काल अवधि समय
सब से परे
हिमखंड में हिम
थे थमे
चंद्र देती थी
शीतल लहरियां
बयार में जोशना
थे जमें
बह निकली हिमनद
से सांकरी ठंडी
प्लाव स्त्रोत
पारदर्शी दर्पण से
निकलती थी श्वेत
रजत प्रोत
मार्ग बहा ले
जाती विशाल पिघलते
ऊंचे प्रस्त
रश्मियां भ्रमित हो
प्रतिबिंबित थी प्रत्येक खंड
में हिमवत
सर्वोच्च शिखर से निकलें
बूंद बूंद जल के
अनेक सोतें
कड़कड़ाती हिम
वृष्टियों में मोतियों की
लड़ियां पिरोतें
गति में बहते रहते
सदा से दिशाहीन
पाने स्वयं को अनंत में
अथाह से निर्देशित मगन
होकर आतुर
अपने ही आनंद में
डॉ सीमा भट्टाचार्य
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)
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आधी आधी दुनिया;
जब आधी दुनिया स्त्रियो की
तो आधी मुसीबत भी होन्गी ही!,
उनके लिए तिलमिलाहट क्यूँ!
किशोर होते पुरूष का भी तो
जीना हराम हुआ रहता है
कि तुझे कमाना ही होगा
कुंआरी बहन के दहेज के लिए,
बूढे होते माँबाप के लिए
चलो माना इनके लिए न सही
..पर तुम्हें कमाना तो होगा
अपने बीवी बच्चों के लिए…
माना बीवी भी कमाने वाली मिल जाएगी तुझे…
मगर ये जरूरी नहीं कि-
वह घर चलाने मे हेल्प तेरी करे! तुम तो पुरूष हो
मांग भी नहीं पाओगे
हाथ फैला कर बीवी से
माँग भी लोगे तो
फटकार पहला लगेगी
तिल तिल मर जाओगे
फिर तभी से लेकर तुम!
इसलिए उठो बेटा! उठो भाई!
काम पे चलो, इसमें भलाई।
वो तो तुझी में हिम्मत है
हे पुरूष!
कि घर बार खेत-खलिहान
बैंक बैलेंस सब कुछ
नाम करे सहर्ष अपनी लुगाई
सुनीता सोलंकी ‘मीना’
दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था
ताले की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था
कभी कभी आती थी पहले वस्ल की लज़्ज़त अंदर तक
बारिश तिरछी पड़ती थी तो कमरा गीला होता था
शुक्र करो तुम इस बस्ती में भी स्कूल खुला वर्ना
मर जाने के बा’द किसी का सपना पूरा होता था
जब तक माथा चूम के रुख़्सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े के बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था
भले ज़माने थे जब शेर सुहूलत से हो जाते थे
नए सुख़न के नाम पे ‘अज़हर’ ‘मीर’ का चर्बा होता था
अज़हर फ़राग़
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