ग़ज़ल
सभी विद्वान मनीषी साहित्य रसिकों के लिए एक ग़ज़ल प्रस्तुत है।
पहले के ज़माने में तो अख़बार नहीं थे।
लेकिन छिपे हों कोई समाचार नहीं थे।।
बेमौत ही मरना उन्हें मंजूर था लेकिन,
वो दान के जीवन के तलबगार नहीं थे।
मैदान ए जंग में तो नहीं जीत सके वो,
सेना भी थी कमजोर औ’ सालार नहीं थे।
इन्सान बिकाऊ है यहाॅं पर ये ग़ज़ब है,
ऐसे तो कभी विश्व में बाज़ार नहीं थे।
दुश्मन को पता कैसे चला राज़ का गहरे,
जो साथ थे वो सब ही वफ़ादार नहीं थे।
मजबूत किला था ये अजूबा हुआ कैसे,
कैसे ये गिरा इसके तो आसार नहीं थे।
वो जीत गये दौड़ ये जीवन के सफ़र की,
हम हार गये क्योंकि समझदार नहीं थे।
उन श्रेष्ठ कबीलों का बुरा हाल हुआ क्यों,
कमज़र्फ थे शासन में वो दमदार नहीं थे।
अधिकार मिले तो हैं यहाॅं सबको बराबर,
दुनिया में हमीं एक जो हक़दार नहीं थे।
दहशत में नहीं लोग थे खुशहाल यहाॅं पर,
तब खाल में अपनों की तो गद्दार नहीं थे।
हमने तो विजय खूब ही समझाया सभी को,
सच मानने को कोई भी तैयार नहीं थे।
विजय तिवारी, अहमदाबाद