बड़भागिनी – 2
श्वेत साया मंद गति से रेंगता कुंज गलियों में
उसके वीरान चेहरे पर दिखाई देता हैं
अंतहीन शोक
बिन पादुका के घायल पदतल
ऐड़ी की दरारों जैसी रेखाएं
मुख पर इंगित हैं
तुम्हारे चरणो में योगी पंथ है
हाय! रे श्वेतांबरा तुम बुद्ध
क्यों ना कहलायी ?
कुटुम्ब की उपेक्षाओं ने तुम्हें
शून्य बना दिया
जीवित रहने को खाया एक बेला भात
और पिया यमुना का कालकूट जल
वृक्षों से लिपट कर लेती रही उर्जा
तुम्हें सुनाई देता हृदय तल से
उसका नाद
खुशियों का त्याग तुम्हें योगी बना देता
अनाहत चक्र में तुम बैराग्य का नाद
सुनती हो
तुम्हें कोई मंत्र नहीं दिया गया तुम्हारी
दीक्षा अधूरी थी अभी
तुम नहीं चाहती तुम्हारा हिय बचा रहे
कहाँ से चुना होगा मुक्ति मंत्र
करतल की ध्वनि से गूँजता हैं भजनाश्रम
कंठ से गाती हो महामंत्र किर्तन
तभी तो मिलेगी मुमुक्षा तुम्हें
तुम्हारा अतीत दुखों से गढ़ा गया
उसकी स्मृतियों को
मिटाने के लिए
वृन्दावन के मंदिरों की चौंखट से
अपना कपाल मलती हो
हाथ में दंड, भाल पर गौरांग तिलक
गले में तुलसी की माला भिक्षा का पात्र
तुम्हारी पहचान बना
टाट ओढ़कर बिताई होगी
ना जाने कितनी रात्रियाँ
एक कोना आँसुओं से भीगा रहा
तुम्हारा हाथ चैतन्य महाप्रभु ने थामा
सन्यासिनो
तुमने ब्रज में व्यतीत किया जीवन,
फिर तुम कृष्ण सखी क्यूँ ना बनी
उस एक प्रथा के समाप्त होने के बाद
तुम्हारे लिये रचा गया ये नया जीवन
हे! कुलदेवियों तुम किराए पर
भजन करने को क्यों हो गयी मजबूर?
देखो ना तुम्हारे विलाप से दिवारो में
गहरी दरारें पड गयी हैं उन दरारों में उगा हैं
ब्रह्म पीपल
देखा है मैंने जब छह बेटों की माँ ने
पसारा अपना आंँचल निधिवन की
गलियों में
“तब फटा होगा तेरा कलेजा योनी की तरह
और उसमें जन्मा होगा तुझसें वैराग्य ”
धरा पर विचरण करने वाली सन्यासिन
मर्कटो ने नही लूटे तुम्हारे वस्त्र, नही छीना
तेरा भिक्षा का पात्र ।
चित्र – वृन्दावन
Jyoti G Sharma