बदलाव
अजीत समाचार जालंधर 01-12-2024 में कहानी ” बदलाव ” और लघुकथा ” यादें ”
(1)कहानी
बदलाव
” मयंक आ रहा है। उससे पूछो उसके लिए क्या बनाऊँ। फिश करी , हिल्सा मछली , या चिकन करी , या मटन बोलो दीदी। उसको क्या पसंद है ? उसको तो नाॅनवेज बहुत पसंद है ना ? चिकेन करी बनाऊँ। ” कादंबरी ने हुलसते हुए मोनालिसा से पूछा।
” अभी मयंक तो तेरे पास अगले सप्ताह ही जायेगा, ना । तुमने इतनी जल्दी तैयारी भी शुरु कर दी। अभी उसके पापा का सीजन का टाईम है। कोई ठीक नहीं है। मयंक जाये – जाये। ना भी जाये नानी के पास। अभी मयंक के पिताजी से बात नहीं हुई है। ”
” फिर भी दीदी। ”
” ठीक है, मैं इनसे बात करके देखती हूँ। मान गये तो ठीक। नहीं तो मयंक को जब छुट्टी होगी। तो देख आयेगा नानी को। और तुमसे भी मिल लेगा। ”
” माँ ,बीमार है दीदी। और तुमको तो पता है कि नानी मयंक को कितना स्नेह या दुलार करती है। बेचारी को कितनी आशा है कि मयंक और तुमलोग उससे मिलने आओगे। और फिर तुम लोगों को तो घर -द्वार , काम-काज और , बाल – बच्चों से कभी फुर्सत नहीं मिलती है ना। ये सब तो जीवण भर लगा ही रहेगा। आखिर , माँ-बाप को चाहिए ही क्या ? उसकी औलादें बूढ़ापे में आकर उसका हाल – चाल लें। लेकिन किसको कहाँ समय और फुर्सत है। सब लोग दुनियादारी में व्यस्त हैं। और माँ- बाप उनकी तरफ टकटकी लगाये ताक रहें हैं। सोचते हैं कि बच्चों को फुर्सत होगी तो एक नजर उनको आकर देख लेंगे। माँ-बाप अपने बच्चों से कुछ माँगते थोड़ी हैं। बस इतना चाहते हैं। कि वे उनका हाल – चाल ले लें। थोड़ा बहुत करीब बैठकर बातचीत ही कर लें। इतना ही उनके लिया बहुत है। खैर , मैं तुमसे बहुत छोटी हूँ । तुमको भला क्यों समझा रही हूंँ ? तुम भी तो बाल – बच्चों वाली हो। तुम्हें भी तो भला इसकी समझ होगी। ” कादंबरी का गला भींगने लगा था। भावुक तो मोनालिसा भी हो गई थी। वो भी तो जड़ और निपट गँवार हुई जाती है। इस घर और गिरस्ती के फेर में। आखिर क्या करे वो भी। सुबह की उठी -उठी रात कहीं ग्यारह-बारह बजे तक उसको आराम मिलता है। फिर घर में चार – पाँच बजे से ही खटर-पटर चालू हो जाती है। बीस – पच्चीस साल इस घर गिरस्ती को जोड़ते हुए दिन पखेरू की तरह उड़ गये। मयंक के पापा को दुकान जाने में देरी हो रही थी।
वो बैठक से ही नाश्ते के लिये आवाज लगा रहे थे-
” अरे नाश्ता बन गया हो तो दे दो। मुझे जल्दी से निकलना है। अगर देर होगी तो कह दो। बाहर जाकर ही कर लूँगा। ” नरेश जी की आवाज मोनालिसा के कानों में पड़ी। ये आवाज फोन के स्पीकर से कादंबरी क़ो भी सुनाई पड़ी।
कादंबरी बोली -” दीदी, मयंक को फोन दो ना। उससे ही पूछ लेती हूँ। उसको जन्मदिन पर क्या खाना पसंद है। ”
” हाँ ,ये ठीक कहा तुमने। देती हूँ मयंक को फोन। ठीक भी रहेगा। मौसी समझे और मयंक समझे। मम्मी को भला क्या मतलब। लेकिन , सुनो मैं ठीक -ठाक तो नहीं कह सकती। लेकिन , मयंक के पापा भी अगर हाँ कहेंगे। तभी मैं मयंक को तुम्हारे पास उसके जन्मदिन पर उसको भेजूँगी। तुम्हें
तो पता है। सर्दियों के मौसम में गद्दे- कंबल और रजाई की बिक्री दुकान में कितनी बढ़ जाती है। दो- तीन आदमी अलग से रखने पड़ते हैं।बाबूजी से हाँलाकि कुछ नहीं हो पाता। तब भी वो गल्ले पर बैठते हैं। दो -तीन लोग हर साल हम लोग बढ़ाते हैं।लेकिन काम हर साल जैसे बढता ही चला जाता है। ”
” काम कभी खत्म होने वाला नहीं है , दीदी। आदमी को मरने के बाद ही फुर्सत मिलती है। दीदी मयंक को फोन दो ना । ”
मोनालिसा ने मयंक को आवाज लगायी -” बेटा मयंक मौसी का फोन है। ”
मयंक चहकते हुए किचन में आकर कादंबरी से बात करने लगा -” हाँ, मौसी। ”
” तुम आ रहे हो ना अगले सप्ताह। उस दिन तुम्हारा जन्मदिन भी है। बोला खाने में क्या बनाऊँगी। चिकन करी , मीट या मछली । ”
” जो तुम्हें अच्छा लगे मौसी बना लेना। ”
कुछ ही दिनों में सप्ताह खत्म होकर वो दिन भी आ गया। जिस दिन मयंक को मौसी के यहाँ जाना था। मयंक ने सुबह की बस ली थी। रास्ते भर वो आज के खास दिन को वो याद करके रोमांचित हो रहा था। सब लोगों ने उसको बधाई संदेश भेजा था। दोस्तों ने। माँ – पापा , बड़े भइया और लोगों ने भी। दादा -दादी ने भी उसके लालाट को चूमा था। उसको आशीर्वाद दिया था। दीदी ने तो निकलते समय उसकी आरती भी करी थी। उसको रोली का टीका और अक्षत लगाया था। और फिर उसको यात्रा में निकलने से पहले उसके मुँह में दही- चीनी खिलाकर विदा किया था। दोस्तों से भी उसको बधाई संदेश सुबह से मिलते आ रहे थे। वो सुबह उठकर सबसे पहले दादा- दादी के कमरे में गया था। जहाँ उसने अपने दादा-दादी से आशीर्वाद लिया था। और उसके बाद उसने माँ – पापा का आशीर्वाद पैर छूकर लिया था। सब लोग बड़े खुश थे। नाश्ते में उसने खीर – पुडी , और मिठाई खाई थी। ठंड की सुबह धूप भी बहुत मीठी – मीठी लग रही थी। घर के सब लोगों ने उसकी यात्रा सुखद और शुभ हो इसकी कामना की थी। दरअसल वो अपनी मौसी से मिलने और अपनी नानी को देखने के लिए शहर जा रहा था। उसकी नानी बीमार चल रही थी। नानी को बडा मन था। कि मरने से पहले वो मयंक को एक बार देख लें। वो मयंक के माँ से बार -बार कहतीं की मेरी साँसों का अब कोई आसरा नहीं है। ज्यादा दिन बचूँ – बचूँ ना भी बचूँ। इसलिए मयंक को और तुम लोगों को एक बार देख लूँ। तुम मयंक को एक बार मेरे पास भेज दो। और समय निकालकर एक बार तुम लोग भी आकर मुझसे मिल लो। पता नहीं कब मेरा समय पूरा हो जाये। मयंक की सेवा उसकी नानी ने बचपन में खूब की थी। नानी से मयंक को कुछ खास लगाव भी था। वो अपने ननिहाल में सबसे छोटा भी था। बस चल पड़ी थी। खिड़की से खूबसूरत मीठी धूप मयंक के चेहरे पर फैल रही थी। कत्थई स्वेटर पर धूप पड़कर मयंक के शरीर को एक अलहदा सा सुकून पहुँचा रही थी। अभी उसका सफर भी बहुत लंबा था। मीठी धूप और स्वेटर की गर्मी ने मयंक को अपने आगोश में ले लिखा था। मयंक अपने बचपन में चला गया था । उसका ननिहाल। उसके गाँव के घर में नानी छोटे – छोटे चूजे पालती थी। नन्हें – नन्हें चूजे एक -दूसरे के पीछे भागते तो मयंक उनको हुलस कर देखता। वो अपनी थाली की रोटी और कभी चावल के टुकड़े नानी और माँ – मौसी से छुपाकर उन चूजों को खिला देता। उसके शहर वाले घर में एक मछलियों से भरा पाॅट था। उसमें मछलियों को तैरते देखता तो उसे बड़ा अच्छा लगता। देखो लाल वाली मछली आगे तैरकर काली वाली मछली से आगे बढ़ गई है। औरेंज वाली मछली कैसे बहुत धीरे -धीरे चल रही है। अचानक से बस कहीं झटके से रूकी और मयंक की नींद खुल गई। उसका स्टाप आ गया था। मयंक बस से नीचे उतरा। तो उसको वही छोटे- छोटे चूजे और पाॅट की मछलियों की याद आने लगी। एक बारगी वो बड़ा होकर भी अपने बचपन को याद करने लगा। उसको वो आगे – पीछे भागते रंग – बिरंगे चूजे बहुत प्यारे लगते थे। उसको पाॅट की रंग – बिरंगी और एक- दूसरे के आगे -पीछे भागती हुई मछलियाँ भी बहुत भाती थी। वो सोचने लगा आज कितना शुभ दिन है। आज उसका जन्मदिन है। और आज वो उन चूजों को उन रंग – बिरंगी मछलियों को खायेगा। अपने जन्मदिन पर वो किसी की हत्या करेगा। इस शुभ दिन पर। नहीं – नहीं वो ऐसा बिल्कुल नहीं करेगा। वो आज क्या कभी भी अब किसी जानवर की हत्या केवल अपने खाने -पीने के लिये कभी नहीं करेगा। नहीं -नहीं ऐसा वो बिल्कुल भी नहीं करेगा। बल्कि आज क्या वो आज से कभी- भी जीव की हत्या नहीं करेगा। चूजों के साथ – साथ उसे नानी भी याद आ गयी। वो कुछ सालों पहले एक बार नानी से मिला था। नानी के पैर अच्छे से काम नहीं कर रहे थे। वो बहुत धीरे – धीरे बिल्कुल चूजों की तरह चल रही थी। रंग- बिरंगी मछलियों की तरह रेंग रही थी।
मयंक के आँखों के कोर भींगने लगे। उसने रूमाल निकालकर आँखों को साफ किया।
फिर फोन निकालकर कादंबरी मौसी को लगाया -” मौसी , आप पूछ रही थीं ना कि मैं , मेरे जन्मदिन पर क्या खाऊँगा। ”
” हाँ , मयंक तुम इतने दिनों के बाद हमारे घर आ रहे हो। तुम्हारी पसंद का ही आज खाना बनेगा। तुम्हारे मौसाजी ,मछली या चिकन लेने के लिए निकलने ही वाले हैं। बोलो बेटा क्या खाओगे ? आज तुम्हारी पसंद का ही खाना बनेगा। ”
” मौसी मेरी बात मानोगी। आज मेरा जन्मदिन है। और मैं अपने जन्मदिन पर किसी की हत्या नहीं करना चाहता। और अपने ही जन्मदिन क्यों बल्कि किसी के जन्मदिन पर भी मैं किसी की हत्या करना या होने देना पसंद नहीं करूँगा। आज से ये मैं प्रण लेता हूँ। कि, कभी भी अपने जीभ के स्वाद के लिए किसी भी जीव – जंतु की हत्या नहीं करूँगा। ”
दूसरी तरफ कादंबरी सकते में थी। उसको कोई जबाब देते नहीं बन रहा था।
उसने फिर से एक बार मयंक को टटोलने की गरज से पूछा-” अच्छा ठीक है। आज भर खा लो। तमको तो पसंद है ना नॉनवेज । अपने अगले जन्मदिन पर अगले साल से मत खाना। ”
” नहीं मौसी। मैनें आज से ही प्रण लिया है। कि मैं अब अपने स्वाद के लिये किसी जीव की हत्या नहीं करूँगा। ”
” ठीक है , तब क्या खाओगे ? ”
” खीर – पूड़ी ..। ”
” ठीक है , तुम घर आओ , नानी से मिलो। तुम्हारे लिये खीर पुड़ी बनाती हूँ।”
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महेश कुमार केशरी
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