धरोहर: ब्रजभाषा पाठशाला
कहा जाता है कि कवि जन्म लेते हैं, बनाए नहीं जाते। इस उक्ति को चुनौती देने वाली पूरे विश्व में एक ही संस्था है और वह है – कच्छ की ब्रजभाषा पाठशाला। यह बिरला विद्या धाम काशी की तरह ही प्रसिद्ध था इसलिए इसे ‘छोटी काशी’ भी कहते हैं। गुजरात के महाकवि दलपतराम तो इसे कच्छ का कीर्तिमुकुट कहते हैं क्योंकि यह केवल कच्छ की नहीं हिंदी साहित्य जगत के लिए भी अनमोल भेंट है ।
आश्चर्य होता है जानकार कि इसके संस्थापक (ई.स. 1749) महाराव लखपत जी ने स्वयं ब्रजभाषा में शिक्षा ग्रहण की तथा ‘लखपत श्रंगार’ जैसे सुंदर काव्य ग्रंथ की रचना ब्रजभाषा में की। काव्यशास्त्री जैन आचार्य, पिंगल शास्त्र विशारद कनकुशल तथा लगभग एक सौ पचहत्तर ग्रंथों के रचयिता राजकवि हमीर जी रत्नु इस पाठशाला की नींव माने जाते हैं।
इसका स्वरूप गुरुकुल की तरह ही था। प्रवेश के लिए कोई आयु सीमा न थी। तमाम सुविधाएं निःशुल्क। सात वर्षों के पाठ्यक्रम में अंतिम परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले को ‘कवि’ की उपाधि दी जाती थी। इस काव्य शाल से पी-एच. डी. की पदवी प्राप्त लगभग साढ़े तीन सौ कवियों के नाम प्रसिद्ध हुए और उतनी ही संख्या में उनके द्वारा रचित ग्रंथ भी। सोचिए जरा, इस हिसाब से ‘कवि रत्नों’ की संख्या सैकड़ों में और विद्यार्थियों द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या चार हजार से कम नहीं होगी । उस जमाने में कवि बनने के लिए पिंगलशास्त्र का ज्ञान आवश्यक था।
पाठशाला में पद्यशास्त्र के महत्वपूर्ण छंद, अलंकार, रस, नायिका भेद, शब्द शक्ति, ज्योतिष शास्त्र, नृत्य शास्त्र, अश्व शास्त्र, वैदक शास्त्र, कामशास्त्र, योगशास्त्र, दर्शन, पुराण, , सामुद्रिक शास्त्र जैसी विद्याएं सिखाई जाती थी। यहां के कवियों ने संस्कृत, अंग्रेजी, पंजाबी, मराठी और सिंधी भाषा में रचनाएं लिखी। आगे चलकर यहां उर्दू फारसी की शिक्षा भी दी गई।
है न अद्भुत।
खंडहरनुमा इस पाठशाला में अब भुज की कचहरी है। मीनाक्षी जोशी