January 30, 2025
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व्यंग्यकार त्रिभुवन पाण्डेय
देश की सबसे चौड़ी नदी ‘महानदी’ छत्तीसगढ़ में है. धमतरी से अस्सी किलोमीटर दूर सिहावा की पहाड़ियों में इसका उद्गम स्थल है. इस नदी के किनारे बसे राजिम और धमतरी बड़े समृद्ध व सुसंस्कृत नगर हैं. एक ज़माने में यहां साहित्य साधकों का मजमा लगा रहता था. महानदी का चौड़ा पाट पानी से अधिक रेत से भरा हुआ है. रेत की नदी! लगता है नदी व्यंग्य कर रही है. अपने साथ तट की विसंगतियों को भी बहाती चलती है. इसके चौड़े पाट पर व्यंग्य के अपने उस्तरे को त्रिभुवन पाण्डेय ने भी धार किया है और अपने व्यंग्य में चमक पैदा की है. कवि सम्मेलनों के सुपरिचित हास्य कवि सुरजीत नवदीप यहां हैं.

अंग्रेज इतिहासकार ग्रियर्सन के अनुसार छत्तीसगढ़ी भाषा का पहला व्याकरण ग्रंथ हीरालाल काव्योपाध्याय ने यहां लिखा था. जबलपुर में कामता प्रसाद गुरु ने हिंदी का व्याकरण लिखा उसके पूर्व धमतरी में छत्तीसगढ़ी का व्याकरण लिखा जा चुका था. छत्तीसगढ़ी के गीतकार भगवती सेन धमतरी के थे. साहित्य की हर विधा को धन्य करने वाले लेखक नारायण लाल परमार यहां रहे जिन्हें महाराष्ट्र मंडल रायपुर द्वारा पहला मुक्तिबोध सम्मान दिया गया था. त्रिभुवन पाण्डेय सहित इस नगर के सभी संस्कृति कर्मी उन्हें ‘दादा’ कहकर सम्बोधित करते थे. कभी इस शहर को ग़ज़ल सुनाने के लिए मुकीम भारती मयस्सर थे.

साहित्यकारों से समृद्ध धमतरी लाइन में त्रिभुवन पाण्डेय जैसे श्रेष्ठ लेखक हुए. धमतरी से लगे हुए गांव ‘सोरिद’ में रहते थे. त्रिभुवन जी बताते थे कि उनका गाँव रायपुर (अब धमतरी) और दुर्ग जिले की सरहद पर बसा होने के कारण सोरिद कहलाया. गांव से लगा हुआ ही है धमतरी का शासकीय महाविद्यालय था जहाँ प्रो.त्रिभुवन पाण्डेय लम्बे समय तक हिंदी के विभागाध्यक्ष रहकर सेवानिवृत हुए. तब इस महाविद्यालय में वरिष्ठ आलोचक डॉ. राजेन्द्र मिश्र प्राचार्य थे और युवा आलोचक जयप्रकाश व्याख्याता थे. गाँव में बसकर और धमतरी में रहकर भी त्रिभुवन जी का लेखन केवल कस्बाई प्रभाव तक सीमित नहीं रहा बल्कि राष्ट्रीय और अंतराष्ट्रीय तंत्र तक अपने चिंतन को वे ले गए. उनके विषय की व्यापकता और उसका उठान अचंभित कर देने वाला है.

त्रिभुवन पाण्डेय लेखकीय छद्मों और तिकड़मों को उघाड़ने में आगे रहे पर स्वयं इनसे दूर रहे और केवल अपनी लेखनी के बल पर ही प्रतिष्ठा अर्जित करने वाले साफ-सुथरे लेखक रहे. जैसा लिखा वैसा दिखा. इतने पारदर्शी लेखक कम ही मिलते हैं. वरना यहां तो दिखते कहीं और हैं और लिखते कहीं और हैं और जब बोलने की बारी आई तो कुछ ऐसा बोल गए कि जिसका दिखने और लिखने से कोई ताल्लुक ही नहीं रहा.

मध्य-भारत में व्यंग्य लेखकों के लिए बड़ा अनुकूल वातावरण रहा है. यहां त्रिभुवन पाण्डेय रहे जिन्होंने अपने लेखन के आरंभिक दौर में ही ‘भगवान विष्णु की भारत यात्रा’ जैसा व्यंग्य-उपन्यास लिखा. वे जब १९७० के आसपास मुखरित हो रहे थे तब जहाँ उनके समकालीन लेखक उनके भाषाज्ञान व विचारों की सघनता भरे लेख और उनमें परिपक्व बयानी से प्रभावित हो रहे थे उस समय परवर्ती पीढ़ी उनके लेखन से सीख रही थी. त्रिभुवन जी का रचनात्मक कौशल उनकी अपनी पीढ़ी में एक परिष्कृत नव-लेखन की तरह सामने आ रहा था. उन दिनों ‘सरिता’ पत्रिका वितरण व लोकप्रियता के नाम पर पहले स्थान पर थी. १९७२ में ही ‘सरिता’ ने इस उपन्यास को छत्तीस किश्तों में लगातार छापा. उसके तत्काल बाद यह समूचा उपन्यास विश्वविजय प्रकाशन दिल्ली से प्रकाशित हुआ था. यह प्रकाशकीय उपलब्धि उन दिनों कितने लेखकों को मिल पाती रही होगी?

यह उपन्यास फंतासी के बड़े फलक पर रचा गया लेखन कर्म था. इस परिकल्पना के साथ कि ‘भगवान विष्णु एक बार फिर भारत आए’ अपने भक्तों का हालचाल पूछने. अपने पिछले अवतारों द्वारा स्थापित धर्म की गतिविधि देखने. उन्होंने सोचा था कि लोग उनके चरणों की धूल माथे पर लगाएंगे, गोपिकाओं के साथ रोमांस का अवसर मिलेगा वह अलग… लेकिन प्रणाम की जगह उन्हें मिली गालियां, रोमांस की जगह पुलिस के डंडे. जेल के अलावा जब हुक्मरानों द्वारा भगवान को पागल खाने में डाला जाने लगा तो उन्होंने बैकुंठ लौट जाने में ही कुशलता समझी… हास्य प्रसंगों तथा व्यंग्य की प्रहार से तात्कालिकता के प्रति सजग रहकर मिथकों की तरफ जाकर उन्हें वर्तमान सन्दर्भों से जोड़ पाने के उनके कलात्मक कौशल का सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है.

हिंदी की प्राध्यापकीय, समर्थ आलोचना दृष्टि, चमत्कारी भाषायी कौशल, अध्यन की गहनता, अनुभव की व्यापकता तथा विश्लेषण की अद्भुत क्षमता के साथ १९९५ में त्रिभुवन पाण्डेय का एक व्यंग्य संग्रह ‘पम्पापुर की कथा’ का प्रकाशन हुआ. इसमें पठनीयता खूब थी. त्रिभुवन जी के शब्दों में ‘अद्भुत’.

अध्ययन के अनुभव का यह प्रभाव रहा होगा कि त्रिभुवन जी की रचनाएँ अनेक उद्धरणों व उदाहरणों से भरी होती है. जैसे ही कोई विषय उन्हें कौंधता है तो सम्बद्ध सूचनाओं का एकत्रीकरण आरंभ हो उठता है लेकिन यह महज संदर्भ लेखन नहीं होते. इन सन्दर्भों को वे हास्य के साथ इस ढंग से पिरो लेते थे कि पाठक पढ़ते समय बरबस ही ठहाके लगा उठता है जिसके लिए रवीन्द्रनाथ त्यागी मशहूर हैं. उनकी अनेक रचनाएँ त्यागीजी की रचनाओं की तरह अभिजात शैली की बन पड़ती हैं. संग्रह की एक रचना ‘बीसवीं शताब्दी में आर्यजन’ की ये पंक्तिया देखें-

“कुछ दूर जाने पर एक पोस्टर दिखलाई पड़ा जिस पर वात्स्यायन रचित कामशास्त्र जैसी मुद्रा अंकित थी. उत्सुकतावश मैंने एक व्यक्ति से पूछा “इस भाव विव्हल दृश्य को प्रदर्शित करने का क्या आशय है भद्रजन?”

“यह आर्यों की रंगशाला है. यहां बैठकर आर्य अपना मनोरंजन करते हैं,”

“इसे क्या कहते हैं, आर्य?”

“इसे वीडियो हॉल कहते हैं. यहां कामक्रीड़ा के उत्कृष्ट दृश्य भद्र आर्यों के मनोरंजन हेतु दिखाए जाते हैं.”

संग्रह की कई रचनाएँ ऐसी है जिनमें वाचन शैली में एकालाप है- संग्रह की सभी रचनाओं में भाषा के स्वर अपनी शास्त्रीयता बनाए हुए हैं. कहीं कहीं वे भाषाविद की तरह शब्दों का अद्भुत विश्लेषण करते हुए दिखाई देते हैं. जैसे ‘नेता’ एक भाषाशास्त्री अध्ययन में एक व्याख्या इस तरह है-

“आखिर नेता की व्युत्पत्ति कैसे हुई? क्या यह ‘नेति’ शब्द से बना है! यदि यह ’नेत’ शब्द से बना है तो उसके भी अनेक अर्थ होते हैं- मथानी की रस्सी, रेशमी चादर, प्रबंध या व्यवस्था. नेता में तीनों गुण समाहित हैं. वह मथानी की रस्सी की तरह उपलब्धियों को बिलोता है.. फिर मक्खन खुद रखकर बाकी बची छांछ जनता में बाँट देता है. अभिनन्दन के अवसर पर रेशमी चादर ओढ़ लेता है. इन्हीं चीजों की व्यवस्था में जो निपुण होते हैं वे नेता कहलाते हैं”

रचना ‘छूटे हुए रस प्रसंग’ में विविध प्रसंगों का हवाला देते हुए बताते हैं “आजादी के बाद करुण रस के कोटे में काफी वृद्धि हुई है जबकि हास्य-रस सिविल लाइन्स, शॉपिंग सेंटर और व्यापारियों के गोदामों में मौजूद है. यहां मोटे और थुलथुले लोगों को देखकर हास्यरस साकार हो उठता. श्रृंगाररस को फिल्मों में उसके हाव भाव, विभाव तथा संचारी भाव सहित हड़प लिया है. पुलिस विभाग ने रौद्ररस ले लिया. पत्नी वीररस पर कब्ज़ा जमा लेती है जबकि पति शांतरस हो जाता है. अद्भुतरस भारतीय संस्कृति के हिस्से चले आया जहाँ मंदिर में भजन तो सड़क पर डिस्को हो रहे हैं.

त्रिभुवन जी के दो और व्यंग्य-संग्रह हैं. वे बड़े लिक्खाड़ लेखक रहे हैं- व्यंग्य, उपन्यास, गीत, समीक्षा पर लगातार कुछ न कुछ काम करते रहते थे. छत्तीसगढ़ में जितने लेखक कवि हुए हैं उनकी कृतियों पर सबसे पहले समीक्षा करने वे आगे आए. कोई भी कवि अपने संग्रह छपवाते ही उसकी पहली प्रति त्रिभुवन जी को भेंट कर देता था जैसे कोई उपवास धारी भक्त अपने फलाहार का पहला भाग अपने ईष्ट को अर्पित करता है।

इन कृतियों को पाकर त्रिभुवन जी पुलक उठते थे “अरे आ गई है यार.. फिर तीन चार किताबें रिव्यू के लिए” और वे आशुतोष शिव के समान प्रसन्न हो जाते थे. अपने इन भक्तों पर शीघ्र कृपा कर उनकी कृति की समीक्षा कर उन्हें छपवा भी देते थे.

महाकवि तुलसी की जीवनी और ‘पंछी मत हंसो’ हास्य एकांकी सहित दस से अधिक रचना संग्रहों के प्रकाशन और अनेक अप्रकाशित रचनाओं के साथ त्रिभुवन पांडेय हिंदी साहित्य की कई विधाओं में रचनाएँ लिख रहे थे. अपनी बुलंद आवाज में मंचों पर शरद जोशी की परंपरा में बखूबी व्यंग्य का पाठ कर रहे थे. सहज, सरल, सौम्य, शालीन और साहित्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले पाण्डेय जी स्वातंत्र्योत्तर युग के उस दौर के रचनाकार हैं जब हिंदी साहित्य इस अंचल में अपनी स्थापना के लिए संघर्षरत था. साहित्य के परंपरागत और पांडित्यपूर्ण लेखन से हटकर उन्होंने व्यवहार और यथार्थ के धरातल पर अपनी रचनाओं में सीधे-सीधे वर्तमान से संवाद किया है. कविता और गद्य लेखन का क्षेत्र हो या व्यंग्य और समीक्षा लेखन, चाहे भाषा और शिल्प की बात हो या फिर विचार व प्रतिबद्धता का सवाल हो. हर कहीं उनकी उपस्थिति अपने वजन पर है… ऐसी कुछ बातें निकल आई हैं आज त्रिभुवन जी की जन्मतिथि पर उन्हें याद करते हुए.
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विनोद साव
(‘सापेक्ष-४६’ में प्रकाशित लम्बी समीक्षा का एक अंश)

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