February 3, 2025
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इस उपन्यास को पी.एच.डी. करने वाली लड़कियों ने मुझे भेंट किया है. यह वाणी प्रकाशन से छपा है. इसे अलका सरावगी ने अपने उसी तेवर में लिखा है जिस तेवर में उन्होंने अपने बहुचर्चित उपन्यास ‘कलिकथा वाया बायपास’ को लिखा था. यह उपन्यास इतिहास के एक ऐसे कालखंड की तलाशी लेता है जो सनसनी खेज होने का अहसास कराता है. यह वर्ष १९१९ से लेकर १९४४ तक का यानि पच्चीस वर्षों का दो महान व्यक्तित्वों के बीच का उहापोह भरा कालखंड है. यह गाँधी और सरला देवी चौधरानी के अंतरंग रिश्तों की जाँच पड़ताल करता उपन्यास है. इस प्रसंग को लेकर पिछली एक शताब्दी से गाँधी विरोधी खेमा हल्ला भी करता रहा है.

बंगालन सरलादेवी गुरुदेव टैगोर की सगी भांजी थी. टैगोर की बहन स्वर्णकुमारी देवी की बेटी थीं. पिता घोषाल बाबू कांग्रेस के सेक्रेटरी थे. सरला लाहौर के पंजाबी पुरुष रामभज दत्त चौधरी से ब्याह कर कलकत्ता से लाहौर आ गई थीं. गाँधी लाहौर जलियाँ वाला बाग के शहीदों के लिए दस लाख रुपये चंदा इकठ्ठा करने पहुंचे थे तब वे चौधरी परिवार में रुके थे जहाँ सरलादेवी अकेली थी और उनके पति रामभज दत्त जलियाँ वाला कांड की खिलाफत करने के कारण जेल में डाल दिए गए थे. लाहौर के रामभज दत्त चौधरी प्रतिष्ठित वकील और ऊर्दू अख़बार ‘हिंदुस्तान’ के संपादक तथा गाँधी भक्त थे. उनके एक बेटा भी था जिसे पत्नी सरला ने साबरमती आश्रम में पढ़ाने और संस्कार देने के लिए गांधीजी के सुपुर्द कर दिया था. सरला जी बड़े होने पर अपने इस बेटे के विवाह को नेहरू की बेटी इंदिरा से करवाना चाहती थीं. इसके लिए वे गाँधी से पहल करवाईं पर बात नहीं बनी. गाँधी को यह पता चला कि साबरमती आश्रम में ही इस दीपक का प्रेम स्फुरित हुआ था गाँधी के भतीजे मगनलाल की बेटी राधा के साथ. सरलादेवी की रजामंदी नहीं थी. उनकी मृत्यु के बाद गाँधी की सहमति से दीपक और राधा दोनों का विवाह सम्पन्न हुआ.

गाँधी और सरलादेवी के जीवन के पच्चीस वर्षीय कालखंड में केवल एक वर्ष गाँधी और सरला देवी साथ रहकर खादी प्रचार के जरिए स्वाधीनता के आंदोलनों में संलग्न रहे. शेष चौबीस वर्षों तक दोनों के बीच पत्र-व्यवहार चले हैं. गाँधी के सरला को लिखे अस्सी पत्र उपलब्ध हैं किन्तु सरला देवी के गाँधी को लिखे सिर्फ चार-पांच पत्र ही बचे हैं. बाकी गाँधी की सबसे छोटी बहू लक्ष्मी गाँधी जो राजगोपालाचारी की बेटी थीं, द्वारा जला दिए गए. ये उपलब्ध पत्र ही उपन्यास कथा के आधार बने हैं… और यह सरला देवी के पक्ष को रखता है. सरलादेवी चौधरानी अपने समय की अनिंद्य सुन्दरी होने के साथ प्रखर मेधा सम्पन्न प्रबुद्ध महिला थीं जिनसे विवेकानंद भी प्रभावित होकर उन्हें अपने रामकृष्ण मिशन से जोड़ना चाहते थे. पर वे अध्यात्म से बचकर गाँधी के सीधे जमीनी आंदोलनों से जुड़ना चाहती थीं इसलिए गाँधी की ओर गईं. तब उनके बड़े मामा द्विजेन्द्र नाथ टैगोर जिन्हें गाँधी पर पूरा भरोसा था, ने कहा भी था कि “तेरा रवीन्द्रनाथ मामा आनंद और संगीत में डूबा है जबकि देश स्वराज के लिए तड़प रहा है. तेरा रास्ता बिलकुल सही है सरला… तू जा गाँधी के साथ.”

सरलादेवी के पास भाषण देने की विलक्षण कला थी…और वे मानती थीं कि गाँधी के पास बतरस का अंतहीन आनंद है. गाँधी उनकी इसी विलक्षण वाक् कला और उनके चुम्बकीय व्यक्तित्व का लाभ राष्ट्रीय आन्दोलन में उठाना चाहते थे. उन्होंने समृद्ध कलाप्रिय टैगोर परिवार में रची बसी इस महिला के रेशमी कपड़ों को उतरवाकर उन्हें खद्दर के मोटे वस्त्रों से बनी साड़ी को पहनवाया और नारी एकता के कार्यक्रमों में उन्हें झोंक दिया था. पंजाब व गुजरात के नारी संगठनों व आंदोलनों के लिए उनका भरपूर दोहन किया गया और भारी सफलता मिली. पर गाँधी के जादुई व्यक्तिव के प्रति आसक्त सरलादेवी अनेक द्वंदों विरोधों के बाद भी गाँधी जी को कभी ना नहीं कह सकीं. यह जानते हुए भी उनके अमीर पति रामभज दत्त अपनी रूपवती पत्नी को खादी के सादे वस्त्रों में देख आनंदित नहीं होते, पर वे उसे टोकते नहीं. बस, पल भर देख कर ऑंखें घुमा लेते हैं. सरला देवी हिंदुस्तान की पहली औरत थी जिसने खादी के वस्त्रों को पहना. गाँधी उन्हें खादी वस्त्रों की ब्रांड कहते थे. कहते थे कि सरला जितना भी जोरदार भाषण दे, पर उसके खद्दर के वस्त्र ज्यादा बोलेंगे. सरला सोचती है कि ‘जब हम किसी का इस कदर साथ चाहते हैं तो उसके बिना जीवन बेस्वाद हो जाता है. अपने प्रिय व्यक्ति से सबसे सुस्वादु चीज का साझा न कर पाए तो रस बचता ही कहाँ है उसमें?’ रस प्रेम में ही है.’

गाँधी से सम्मोहित होकर कई सम्मोहक व्यक्तित्व उनके करीब आए और खांटी गाँधी ने उनके सम्मोहन का भरपूर लाभ उठाया. उन्हें उनकी रूचि व अप्रत्याशित क्षमता के साथ अपने कार्यों एवं आंदोलनों में लगा खपा दिया और समुचित परिणाम भी प्राप्त किया. सिद्धांत और कर्तव्य पालन में कट्टर गाँधी के साथ चलना किसी काँटों भरी राह में चलने के समान था. उनसे सम्मोहित होकर आए हुए कई अनुयायियों की काटो तो खून नहीं वाली स्थिति हो जाती थी. न वे विराट व्यक्तित्व गाँधी का विरोध कर सकते थे न उनका साथ बीच आंदोलन में छोड़कर भाग सकते थे. एक किस्म का अवसाद उनमें घर करने लगता था. इस दुःख और अवसाद का सबसे बड़ा खामियाजा तो गाँधी के परिवार को ही सबसे पहले झेलना पड़ा था… और सबसे ज्यादा उनकी जीवन संगिनी कस्तूरबा को. गाँधी का एकमात्र लक्ष्य आजादी हासिल करना था चाहे इसके लिए उन्हें निजी रिश्तों की बलि चढ़ा देना पड़े… और उन्होंने चढ़ाए. यह सरलादेवी तथा अन्य कई लोगों के साथ घटित भी हुआ.

गाँधी जी की जब सरला देवी से पहली मुलाकात हुई तब लगभग दोनों युवा और तेजमय थे – गाँधी पचास के करीब रहे और सरलादेवी उनसे दो बरस छोटी. गाँधी के लिए सरला का बौद्धिक होना उनकी मित्रता का सबसे बड़ा सूत्र है. पर आगे चलकर उनके पत्रों में शिकवे-शिकायत भी हुए हैं और रिश्तों में खटास व दूरी भी आती है. इन रिश्तों में वह चिरपरिचित खटक दिखलाई देती है जिसमें लॉ-गिवर (कानूनदाता) बने पुरुष द्वारा किए गए किसी स्त्री की मनः स्थितियों या उसकी खूबियों के विश्लेषण में स्त्री के भ्रमित हो जाने के संकट आते हैं. जो स्त्री को चौंकाकर उसकी सपनीली दुनियां से बाहर भी निकाल देते हैं. सरला के सामने अपने आदर्शों को थोपने की प्रबलता गाँधी में वैसी ही दिखती है जैसा कस्तूरबा के मामले में दिखती थी और कस्तूरबा की मुस्कान गायब हो चुकी थी. सरला सोचती है ‘गाँधी को व्यक्तिगत और सार्वजनिक व्यवहार में जैसे अंतर ही मालूम नहीं है’ वह रात भर नहीं सो पाई थी. पत्र से शब्द निकल निकलकर उसके दिमाग पर आघात कर रहे थे… क्या गाँधी की महिमा की आभा में अपनी औकात को भूलने वाली औरत है वह?

पच्चीस वर्षों तक इनके बीच चले पत्रों में उनके रिश्तों और व्यक्तित्वों के बारीक़ धागों और इनके बुनावट की खूब खोजबीन हुई हैं. उनमें देश-दुनियां, आजादी, आन्दोलन, और अध्यात्म जगत पर व्यापक चर्चाएं हैं. जिनमें एक दूसरे पर अधिकार-पूर्वक प्रेम और क्रोध का प्रदर्शन भी है. गाँधी अपने आश्रम, आन्दोलन, जेल व रेलयात्रा में जहाँ भी रहं् वे पत्र रोज लिखते थे. देश के जनमानस, सेनानियों, समाज-सेवियों या किसी भी क्षेत्र के विशेषज्ञ हों उन्हें लगातार पत्र लिखते थे. इनमें पुरुष स्त्री, वृद्ध व बच्चों सभी की समस्याओं पर विस्तारपूर्वक चर्चा करते हुए उन्हें समझाइश देते थे. गाँधी स्त्रियों को भी लम्बे पत्र लिखते समय उनके स्वास्थ्य व शारीरिक कष्टों में इस कदर घुस जाते थे कि उनके गर्भाशय और मासिक धर्मा विषयक समस्याओं पर भी खुलकर बातें कर लेते थे… और स्त्रियों को लिखे जाने वाले पत्रों को उनके पतियों को दिखा दिए जाने पर भी जोर देते थे. कुल मिलाकर हर वर्ग के लोगों के साथ बिना किसी लिंग भेद के उनके पत्र खुल्लम खुल्ला होते थे.

वर्ष १९४५ के अंतिम समय में सरला के दो पत्रों के जवाब गाँधी ने नहीं दिए जब उनके बेटे दीपक ने उनके स्वास्थ्य बिगड़ने की सूचना दी तब गाँधी ने पत्र लिख कर दिया “जन्म-म्रत्यु हमारे जीवन के अंग हैं. तुम्हारे हिस्से की तकलीफ सहने की तुम्हें शक्ति मिले.” किन्तु सरलादेवी की यह पत्र पढने के एक दिन पहले ही मृत्यु हो चुकी थी.

१९३२ में कैथरीन मेरी हेलमेन नमक एक युवा अंग्रेज औरत सेवाग्राम में आकर आठ साल रही. गाँधी ने उसे ‘सरला बहन’ नाम दिया. यह सरला बहन हमेशा के लिए हिंदुस्तान में रह गई. कुमायूं अंचल में स्त्री-शिक्षा और ‘चिपको’ आन्दोलन में सरला बहन का योगदान अविस्मरणीय है. लेखिका अलका सरावगी लिखती हैं ‘संभवत उसका सरला नामकरण कर गाँधी जीवन के पहले व्यक्तिगत प्रेम की स्मृति बनाए रखना चाहते थे.’

गाँधी विशेषज्ञ इतिहासकार सुधीर चन्द्रा कहते हैं “इतिहासकार और जीवनीकार प्रायः तथ्यों के मायाजाल में फंसे रहते हैं. कुशल कथाकार तथ्यों के पीछे छिपे सत्य के मर्म को उद्घाटित कर देते हैं. यह उपन्यास इसी का एक अप्रतिम उदाहरण है. ब्रम्हचर्य का व्रत ले चुके महामानव गाँधी और असाधारण सौन्दर्य और प्रतिभा की धनी सरलादेवी चौधरानी के बीच पनपे झंझावती आकर्षण का जैसा बारीक़, मार्मिक और संयत वर्णन यहां हुआ है कहीं और नहीं मिलेगा.”
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विनोद साव
(‘छत्तीसगढ़ मित्र’ अंक फ़रवरी’२५ में प्रकाशित)

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