December 3, 2024

फ़िल्म बाज़ार : सागर सरहदी (1982)

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बाज़ार

सामंती जीवन मूल्यों में स्त्री की स्थिति अजीब रहती रही। एक तरफ जहां उसकी स्वतंत्र अस्मिता को स्वीकार ही नही किया जाता रहा , उसकी वैवाहिक इच्छाओं-अनिच्छाओं का सम्मान नही किया जाता रहा वहीं दूसरी तरफ उसे ‘इज़्ज़त’का सवाल भी बनाया जाता रहा।यह विडम्बना दरअसल उसके ‘वस्तुकरण’ और आदिम पाशविक जीवन के यौनिक एकाधिकारवादी प्रवृत्ति की अवशेष जान पड़ती है। समाजिक विकासक्रम में इसे समतावादी प्रवृत्ति की ओर बढ़ना था लेकिन सामंती सामाजिक मूल्यों में अपने ऐतिहासिक कारणों से ऐसा न हो सका। आधुनिक समाजों में भी इसके अवशेष बाक़ी हैं, और पूंजीवादी-जनतांत्रिक सामाजिक मूल्यों में अवश्य एक हद तक स्त्री अस्मिता रेखांकित हुई है मगर साथ ही उपभोक्ता वादी बाज़ार ने नए ढंग से उसका ‘वस्तुकरण’ भी किया है।

ये सामंती अवशेष देशकाल अनुरूप लगभव सभी क्षेत्रों, समाजों और धर्मों में रहे हैं। सामंती समाज के विघटन के साथ ही कई राजाओं-नवाबों और अभिजात वर्गों के स्थिति कमजोर हुई। कई ‘प्रतिष्ठित घरानों’ के लिए अपने पूर्व ‘स्टेटस’ बरकरार रखना सम्भव न रहा। कई तो मजदूर वर्ग की स्थिति में आ गयें। यशपाल की कहानी ‘परदा’ और शानी के उपन्यास ‘काला जल’ में मुस्लिम समाज के परिवार के ऐसे ही विडम्बना का चित्रण हैं।

फ़िल्म ‘बाजार’ में जिस मुस्लिम परिवेश और परिवार (जो हैदराबाद का है) का चित्रण है वहां भी ‘नज़मा’ (स्मिता पाटिल) का परिवार अपना ‘वैभव’ खो चुका नवाबी परिवार है, मगर उसकी ‘ठसक’ कम से कम पुरुषों में बाक़ी है। उसकी माँ के व्यक्तव्य से यह स्पष्ट है कि उस परिवार में जो स्वयं नौकर रखते थे, नौकरी करना तौहीन समझा जाता है। अकर्मण्यता इस हद तक की उसकी माँ उसे नौकरी की अपेक्षा ‘ज़िस्म फ़रोशी’ की ‘आसान’ राह अपनाने को कहती है।नज़मा के प्रश्न करने पर कि क्या इससे इज़्ज़त नही जाती, वह गोपनीयता का हवाला देती है।

नज़मा को यह स्थिति स्वीकार्य नही, वह अख़्तर के सहानुभूति तथा शादी करने के आश्वासन से घर छोड़ उंसके साथ चली जाती है, मगर घर में पैसे भेजते रहती है।अख़्तर कहने को तो अमीर घर से है मगर वास्तव में उंसके चरित्र में अवसरवाद है। वह नज़मा से शादी न कर पाने का केवल बहाने बनाता है। वह शाक़िर अली के पैसों से मुफ़्तख़ोरी में जी रहा है, इसलिए उसके हर नाजायज़ शर्त को मानता है, और नज़मा पर मानने के लिए दबाव डालता है।

एक चरित्र सलीम(नसीरूद्दीन शाह) का है, जो लेखक है,वह समाज और बाज़ार के इस पाखंड को समझता है, मगर वह ‘शक्तिहीन’ है।बाज़ार के मूल्यों में सम्वेदना और खुद्दारी का स्थान नही होता इसलिए सलीम की ‘समझ’ की यहां कोई कीमत नही।वह कभी नज़मा का जीवनसाथी बनना चाहता था, मगर उसके घरवालों को यह ‘नकारा’ सम्बन्ध स्वीकार्य नही हुआ। नज़मा संवेदनशील है, सलीम की इज़्ज़त करती है मगर तब वह ‘सामाजिक मूल्यों’ के आगे उंसके महत्व को समझ नही सकी, अवश्य उससे दोस्ताना सम्बन्ध बरकरार है।

धनाड्य शाक़िर अली साहब बाजार की शक्ति के प्रतीक हैं। वे पैसे के दम पर और उसके अहसान से सबकुछ खरीद सकते हैं, ख़रीदते हैं, और समाज में ‘इज़्ज़त’ से रहते हैं। उनकी सम्पन्नता के आगे सारे नैतिक मूल्य नतमस्तक हैं, इसलिए उनकी बुराई कोई बुराई नही है। वे अंततः मासूम शबनम को ख़रीद लेते हैं, जिससे सज्जू और शबनम के कोमल प्रेम का त्रासद अंत होता है। कहने को अवश्य इस खरीदी-बिक्री को विवाह का रूप दिया जाता है।

इस फ़िल्म का परिवेश जैसा कि हमने जहां विघटित नवाबी परिवार का है, और उनमें से अधिकांश मजदूर की श्रेणी में आ गए हैं। गरीबी और तंगहाली में कन्याओं के लिए वर नही मिलता।।लोग शादी करने में सक्षम भी नही हैं। लड़कियों को एक तरह से बेचने की लिए बोली लगती है। ऐसा लगता है कि सारा पुरूष वर्ग अकर्मण्य हो चुका है, और अपनी अकर्मण्यता को बेबसी का नाम देता है। अवश्य सज्जू जैसे श्रमशील अपवाद हैं, मगर उनको भी महत्व नही दिया जाता।

स्त्रियां ‘नियति की मारी’ मुर्दा रस्मो को ढो रही हैं। किसी के दिल मे कहीं कोई चिंगारी कहीं आग नहीं। शादी हो जाना ही जैसे उनके जीवन की सार्थकता है। ज़ाहिर है यह परिवेश के सामाजिक मूल्यों के संस्कार हैं जिनसे वे ग्रसित हैं, उस पर अतिरिक्त संवेदनशीलता परिवार की ‘मर्यादा’ के लिए उनका बलिदान लेती है। शबनम की ‘नियति’ यही है। नज़मा भी इसी राह पर चलती है, मगर उसकी चेतना खत्म नहीं हुई है। वह पहले एक जकड़बन्दी से आज़ाद होने अख़्तर के साथ जाती है। मगर अख़्तर भी एक छलावा है, अवश्य कुछ बेहतर रूप में। यह बात उसे अंततः समझ आती है, और इसमे सलीम की अहम भूमिका होती है।

नज़मा का सलीम के साथ हो जाना एक नयी राह का संकेत है, क्योंकि यह साथ अपनी अस्मिता के साथ है। नज़मा का आख़िर में यह स्वीकारबोध सार्थक है कि इस ‘गुनाह’ में मैं भी भागीदार हूँ। दरअसल यह स्वीकारबोध उस सामंती नैतिकतावाद से बिना लड़े समर्पित हो जाने का अपराधबोध है जो ‘कमज़ोर’ को तो ख़त्म कर देता है मगर ‘सक्षम’ के लिए बच निकलने के हजार रास्ते देता है।


अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा (छ. ग.)

मो. 9893728320

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