साहित्य जगत को लगने वाले आघातों का यह सिलसिला न जाने कब खत्म होगा !
अभी फेसबुक खोली तो तेजेन्द्र शर्मा जी की पोस्ट सामने आई और समाचार था -आधारशिला पत्रिका के संपादक दिवाकर भट्ट नहीं रहे.
समझ में नहीं आ रहा उनके न रहने को कैसे स्वीकार करूँ. दिवाकर भट्ट लगभग 20 वर्षों से अपने दम पर एक ऐसा काम कर रहे थे जिसे इस काल में किसी के लिए भी कर पाना असंभव ही है. आधारशिला जैसी साहित्यिक पत्रिका को अपने और अपने मित्रों के दम पर पूरी गरिमा और गेटप के साथ प्रकाशित कर रहे थे. एक 80 पृष्ठ की मासिक पत्रिका को रंगीन कवर और चित्रों के साथ उसके अनुरूप काग़ज़ पर नियमित रूप से निकालते रहना और उसके साहित्यक स्तर के साथ कोई समझौता न करना दिवाकर भट्ट जैसे व्यक्तित्व का ही करिश्मा था. आधारशिला के तमाम विशेषांक भी नियमित अंको के साथ निकालते रहे थे.
दिवाकर भट्ट जी औए आधारशिला पत्रिका से मेरा परिचय कमलेश भट्ट जी ने करवाया. कमलेशभट्ट जी अपने आप में एक संस्था हैं और अपने समय के प्रतिभाशाली रचनाकारों और साहित्यजगत का प्रतिनिधित्व कर रहे व्यक्तियों से उनके आत्मीय संपर्क उनके संवेदनशील और उदार व्यक्तित्व का प्रमाण है.
उसके बाद दिवाकर जी से संबंध स्थायी हो गया और व्यक्तिगत मुलाकातें भी होती रहीं.
उनसे पहली मुलाक़ात उनके हल्द्वानी में उनके निवास पर हुई जब वे अमर उजाला से जुड़े हुए थे. मैं ऑफिस के काम से वहाँ गया था. मैं आधारशिला का सदस्य भी नहीं था लेकिन यह दिवाकर जी की उदारता ही थी कि नियमित से आधारशिला का हर अंक मुझ तक पहुंचता रहा.
आधारशिला के संपादक तो वे थे ही साथ ही ‘आधारशिला प्राकाशन’ को भी नियमित रूप से संभाल रहे थे. विश्व पुस्तक मेले में हर बार उनका स्टाल लगता था जो मेरे जैसे रचनाकारों के बैठने का एक ठिकाना रहता था. कितने साहित्यकारों से उनके स्टाल पर व्यक्तिगत मुलाक़ात करने का अवसर मिला.
वे अकेले ऐसे संपादक थे जो आधारशिला के हर अंक में किसी न किसी फिल्म के बड़े कलाकार के व्यतितव और कृतित्व पर रंगीन चित्रों के साथ कम से कम 5-6 पृष्ठ का एक लंबा आलेख प्रकाशित करते थे जिसमें अधिकांश कलाकारों से वे व्यक्तिगत रूप से जुड़े हुए थे. कितने ही विश्व हिन्दी सम्मेलनों के आयोजन में देश के अनेक रचनाकार उनके माध्यम से सम्मिलित हुए.
यह सब वे अपने दम पर कर रहे थे. आधारशिला के माध्यम से देश विदेश के असंख्य रचनाकारों को रचनाकारों को उन्हों ने एक बेहतरीन प्लेटफॉर्म उपलब्ध कराया और इन्टरनेट और सोसशल मीडिया के इस दौर में भी वे प्रिंट मीडिया के महत्व को प्रमाणित करते रहे.
दिवाकर भट्ट को भूल पाना संभव नहीं है. साहित्य जगत को लगने वाले आघातों का यह सिलसिला न जाने कब खत्म होगा !
मेरी ओर से उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि.
ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे.