मीता दास की कविताएं – अपने समय का बेहतर मूल्यांकन
लेखक- इन्द्रा राठौर
नई सदी की हिंदी कविता में ‘स्त्री कविता’ अपने पीले पड़ चुके रूदाली चेहरे के बनिस्बत और कहीं न कहीं , स्त्रीवाद की सीमाओं का अतिक्रमण कर ,वह आज एक बड़े प्लेटफार्म में आ खड़ी हुई है ; तो इस विरुदावली का श्रेय भी आज की युवा कविता को जाता है । जिसमें #कात्यायनी , #निर्मला पुतुल , Vandna Tete #जेसिंता केरकेट्टा , Mukta Toppo Seema Azad , Vandana Kengrani #vishwashi , पूनम वासम Mridula Singh , Vishakha Pallavi Mukherjee Jyoti Deshmukh , Rupam Mishra , Kavita Krishnapallavi , Anupama Tiwari , Arti Tiwari , Shruty Kushwaha , Archana Lark , जैसी कवयित्रियां है । गौरतलब है कि स्त्री कविता कभी भी इतनी चेतना संपन्न नहीं दिखीं कि राजनीतिक, सवालों , समाजिक, आर्थिक संघर्षों से इस रूप में कभी दो-चार की हों , जो आज कर रही हैं । हमारे समय के उन तमाम उपादानों , जटिल संघर्षों के बीच यदि ये ‘कवि’ टकरा रहे हैं तो मैं उनकी जीवट चेतना और समझ-बूझ का दाद देता हूं । कृतज्ञता ज्ञापित करता हूं कि हमारे समय के परस्पर ये कवि अपने अदम्य साहस के बल खड़े और संघर्ष की परम्परा के वाहक साबित हो रहे हैं ।
तांत्रिक के खेल का खत्म होना ही जादू का टूटना है ; और जैसे ही जादू टूटता है , यकीन मानिए सच बाहर आता है , फिर दबता नहीं । वस्तुत: यथार्थ नंगा होता है । वह अपने ही तरह सबको नंगा कर देता है । कोरोना संकट के इस दौर में जो कुछ अदृश्य था , जितना कुछ भरमाया गया था , रचा जा सका था तिलस्म , अब वह दृश्य में है , काल्पनिक कि निवृतमान की जगह वर्तमान में है । मिता दास बीसवीं सदी के बाद नई सदी की हिंदी कविता से पहचानी गई कवि हैं । जो इस मुग्ध भ्रम को बड़ी ही सरलता में इन दो ही पंक्ति से बेपर्दा कर रहीं हैं
“कैसा समय है यह , कई महीनो से लाशें गाड़ रहे हैं ,
जला रहे हैं और कुछ लाशों को समंदर में फेंक रहे हैं |”
निश्चय ही इस डरावने समय के वीभत्स दृश्य में कल के छुपाव के बनिस्बत आज का सच है । जो मिता दास काफी बेहतर से रख गईं हैं । हालांकि मिता की इस कविता में आई इन पंक्तियों को देखें
“कहां हो धनवंतरी , कहां हो…. धनवंतरी”
और माने तो , जो विलाप , आर्तनाद दिखाई दे रहा है वह मार्फत ए मिथक निरूपायता को दर्शाता है । मैं फिर कह रहा हूं “मिथक सच नहीं है” । किन्तु यह नकारा भी नहीं जा सकता कि साहित्य में मिथक की आवाजाही जरूरतों के अनुरूप बना ही रहेगा । इस पर “हिंदी साहित्य के इतिहास को लिखते हुए आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को देश की जनता की चित्तवृत्तियों का संचित प्रतिबिंब कहा और साहित्य की परख के लिए उसकी प्रसिद्धि को भी एक आधार माना है।” यानी मितादास की विलाप को उस संरचनागत आधार पर मैं भी जायज़ ही मानता हूं कि यह एक कवि के पहले ,एक आम जन मानस की चित्तवृत्ति है । जो यक-ब-यक , बिना जोड़ घटाव के सरसराहटों में आते हैं ।
लाशें माँगता हुआ समय
कैसा समय है यह , कई महीनो से लाशें गाड़ रहे हैं ,
जला रहे हैं और कुछ लाशों को समंदर में फेंक रहे हैं |
लाशें हैं कि थमने का नाम ही नही ले रहीं
कहाँ हो धनवंतरी , कहाँ हो ……
भौकाल में रुका हुआ कॅरोना काल
जैसे पेड़ पे लटका हुआ बेताल
बगैर खोपड़ी तोड़े जायेगा नही
कहाँ हो धनवंतरी , कहाँ हो …..
गिद्धों की चांदी हो गई है
पर अब उनका भी स्वाद बिगड़ चुका है
ऊब गए हैं वे भी
लाशें हैं कि थमने का नाम ही नही ले रहीं ।
भौकाल में ही रुका हुआ है कॅरोना काल
और लॉक डाउन में तो हो गई है अचल
ट्रेनें भी अप और डाउन
बगैर खोपड़ी तोड़े जायेगा नही …
पेड़ से उतर पीठ पर लदा हुआ है
और
पेट पर लात मारता जाता है बेताल ।।
वज़ूद दांव पर है और वर्चस्ववाद चरम पर । चरम वर्चस्ववाद सबसे पहले बाजार को चमकीले वस्तु से सजाता है । फिर बाजार के रास्ते , जिसे वह बाजार मानता है ; को अर्धसत्य पूंजी का , अर्ध वितरण करता है और मध्यमवर्गीय जीवन शैली को चपेट में लेता है । विद्रूप वर्चस्ववाद सुविधायाफ्ता बना , मध्यमवर्ग के मन को मारते हुए , आगे उनकी सोच को मारता है । चूंकि यह मध्यमवर्ग , दुनिया के सबसे अधिक उपभोक्तावादी , सुविधाभोगी वर्ग है। अतः वर्चस्ववाद के आगे सबसे कमज़ोर और निहत्था भी , वही है । शनै: शनै: उसका मारा जाना तय हो चुका है । वह निरुपाय है , यह बात वर्चस्ववाद की समझ में दुरस्त है । किन्तु मध्यवर्ग के भीतर से अब यह मरने लगा है । इसलिए जो भी स्थितियां सृजित हुए हैं उसका बड़ा जिम्मेदार वह ख़ुद ही है । बाक़ी शेष स्थितियों-परिस्थितियों को मिता दास अपने इस कविता में शिद्दत से दर्ज कर चुकी हैं । समय का इस तरह से भयावह और संवेदनहीन हो जाना मरणासन्न की प्राप्ति नहीं है तो क्या है ? किंतु मिता दास यह कह
“बस दुःख होगा इस बात पर
कि मेरा देश इस बात पर चुप्पी साधे बैठा है
हवाई दौरों के सफ़र में मशरूफ़
दूरबीन से हवाई पट्टी को ताकता हुआ विमान की खुली खिड़की से
उन्हीं बच्चों की लाशों के ऊपर से हवाई उड़ान भरकर
हर वो सरहद पार कर लेगा
अपनी हदें पहचानने और भुनाने के लिए अधमरे , खून से लथपथ बच्चों की लाशों पर से गुजर जायेगा
फिर न उफ़ न आह बस एक गंभीर हँसी लपेटे
बढ़ जायेगा अपने दौरे के अगले पड़ाव की ओर”
या फिर यह कह
“ये चुप्पी तुम्हे महँगी न पड़े
बच्चे माफ़ नहीं करेंगे कभी तुम्हे
नींद तुम्हें भी आ ही जाएगी
राजसी ठाठ – बाट में पर
रक्त के सूखते धब्बों की गंध
नहीं दब पायेगी किसी रूम फ्रेशनर से या न ही
टेलीविजन पर विज्ञापित किसी डियोड्रेंड से ही | “
हमारे चेतन अवचेतन विद्यमान ,बची मनुष्यता को झिंझोड़ देता हैं । मिता दास का यह हस्तक्षेप सजगता में है , पक्षधरता में है । यह हमारे अवचेतन चेतन और इंद्रिय बोध के रास्ते , एक मुकम्मल सच और रास्ते की तलाश है ।
वैश्विक चिंताओं और तत्कालीन जनसंघर्षों को लेकर हिंदी की जमीन भी अपनी उर्वरता और प्रमाणिकता में कभी कम नहीं रहा । साठ के दशक के “मगध” कवि श्रीकांत वर्मा की कविताएं भी उन्हीं मुक्तिकामी विचारों और सीमाओं को तोड़ती रही । इधर फिलिस्तीनी मुक्ति संग्राम और उसके वीभत्स परिणामों को लेकर सतीश छिम्पा , Bhaskar Choudhury , Anil Pushker , जैसे युवा कवियों की भी महत्वपूर्ण कविताएं मिता दास की चिंताओं से इत्तेफाक रखते दिखे हैं ।
फिलिस्तीनी कविता पढ़ते हुए
नवजान दरवीश कहते है – फ़ादो , औरों की तरह नींद मुझे भी आ ही जाएगी इस गोली बारी के दरमियान ..
हाँ हाँ हाँ
रक्त की गंध में भी मुझे नींद आ ही जाएगी
चीखते बिलखते बच्चों के खुनी फौवारों से नहा कर भी ,
मुझे नींद आ ही जाएगी
बस दुःख होगा इस बात पर
कि मेरा देश इस बात पर चुप्पी साधे बैठा है
हवाई दौरों के सफ़र में मशरूफ़
दूरबीन से हवाई पट्टी को ताकता हुआ विमान की खुली खिड़की से
उन्हीं बच्चों की लाशों के ऊपर से हवाई उड़ान भरकर
हर वो सरहद पार कर लेगा
अपनी हदें पहचानने और भुनाने के लिए अधमरे , खून से लथपथ बच्चों की लाशों पर से गुजर जायेगा
फिर न उफ़ न आह बस एक गंभीर हँसी लपेटे
बढ़ जायेगा अपने दौरे के अगले पड़ाव की ओर
ये चुप्पी तुम्हे महँगी न पड़े
बच्चे माफ़ नहीं करेंगे कभी तुम्हे
नींद तुम्हें भी आ ही जाएगी
राजसी ठाठ – बाट में पर
रक्त के सूखते धब्बों की गंध
नहीं दब पायेगी किसी रूम फ्रेशनर से या न ही
टेलीविजन पर विज्ञापित किसी डियोड्रेंड से ही |
वस्तु या कि रूप का बदलना गतिकीय प्रक्रिया है । परन्तु यथार्थ के ऊपर छाया घटाटोप उसे जादुई कर देता है । इधर सम्प्रदायिकता के खतरे जो बढ़े हैं , उसमें भी यही जादुई घटाटोप है । उसने यथार्थ को खारिज़ कर उसे जड़ और आभासी बना दिया । क्रियाशील और गतिमान मनुष्य के भीतर टूट का यह दृश्य रहमान और चंचल के प्रति बोए गये अविश्वास में अंजाम पाता है । गोकि कविता बहुत छोटी और एक रेखिक है । परन्तु संदेह के बीज के परोपण को गहरे अर्थों में व्यंजित करती है । अतः यह एक जरूरी कविता है । जो दृष्टव्य पंक्तियों से देखे समझे जा सकते हैं
“रहमान को आवाज देते लब
आज चंचल को देते हैं हिदायत
आज दो कप ही लाना तीन नहीं”
काली चाय खौल रही है
आज पूरब के गांव में
मुर्गों ने नहीं दी बांग
दूध के बगैर काली चाय
खौल रही है केतली में
रहमान को आवाज देते लब
आज चंचल को देते हैं हिदायत
आज दो कप ही लाना तीन नहीं
रहमान अख़बार लेने नहीं आ पायेगा
और बंदूकची
चाय नहीं पीते …..
मिता की कविता “क्या बचेगा” की यह पंक्तियां
हम अपना गणतंत्र मनाएं या बचाएं
बेहद दुविधा में हूं जननायक !
मारक व्यंजना में एक समग्र काव्य पंक्ति हैं । जो अपने सरल , जिज्ञासु सवालों और अंतर्विरोधों से आते हैं । कहना न होगा नायक झूठ्ठा भी है और लबार भी । जो कुख्यात है । मिता नायक के आधारहीन बातों , तथ्यहीन प्रचारों की अप्रासंगिकता जिस सरल और मार्मिक हो रख गईं न नायक को बताने की जरूरत है न किसी से और कुछ कहने की
क्या बचेगा
हम अपना गणतंत्र मनाये या बचाएं
बेहद दुविधा में हूँ जन नायक !
देश बचायें या देशभक्ति
बेहद दुविधा में हूँ प्रजा नायक !
धर्म बचायें या मठ , पीर – पैगम्बर
बेहद दुविधा में हूँ राष्ट्र नायक !
राष्ट्र भाषा बचायें या राष्ट्र
बेहद दुविधा में हूँ अधिनायक !
मातृभाषा बचायें या आदि भाषा
बेहद दुविधा में हूँ परिधान नायक !
खेत बचायें या जन्मभूमि
बेहद दुविधा में हूँ खलनायक !
जब विघटनकारी , घोर चरमपंथी , सम्प्रदायिक शक्तियां ताकतवर हो , खुमारी में विजयोल्लास मना रहे हों , तब थकी हारी मायूस जनता आत्म समर्पण न कर करूणा से भर संवाद करें , सवाल करे तो इसे निरूपायता की स्थिति में दर्ज , प्रतिरोध के रूप में देखा जाना चाहिए । मैं इसे मितादास की कविताई सामर्थ्य के तौर पर देखता हूं कि वे इस दुविधा जनक स्थिति और खराब समय के बाद भी जवाबदेह से सीधे संवाद करती हैं । यह अद्भुत , विश्वसनीय और अतुलनीय साहस है । इस कविता में
“विजय कहीं और नहीं पर विजय का जयकारा जरुरी है”
कह मितादास ने उस चाल और चरित्र की खूब खूब टोह भी ली , अवलोकन किया । पराजित नायक अपनी अपार, असीमित शक्तियों का दुरूपयोग अपनी ही जनता खिलाफ किस दुस्साहस से करता है कि कायरता भी शर्मशार हो जाए । किन्तु वे बल हैं ताक़त हैं , बिजली हैं , टूट पड़े हैं शाहीन बाग में !
विनाश लीला और शाहीन बाग़
तुम कम्बल खींच ले जाओ ,
रोट बनाते तंदूर में पानी डाल जाओ ,
गहन अँधेरे में , सघन कोहरे में , हाड़ कँपाती शीत लहर में ….
न हारी हैं , न हारेंगी ये शाहीन बाग़ की औरतें …..
दुधमुहों के संग बैठी हैं जिद पे हम कागज नहीं दिखायेंगे !
बेरहम हैं समय , बेरहम है सत्ता
चिरकुट हैं भांड , मिरासी जिन्हे सत्ता की मिली है शाबासी
भेष , देश , भांड , सत्ता बेरहम आज पत्ता – पत्ता
जब हारती है सत्ता तब हो जाती है और बेरहम
ओ शाहीन बाग़ की औरतें सलाम तुम्हे ,
तुम्हारे जज्बे रहें सलामत
दिखता है उन्हें अपनी पराजय इसलिए क्रूर हो रही है पल – पल
क्यों साहेब !
पराजय का भार उठाना नहीं होता आसान
कीड़ों की तरह खोद – खोद कर
छलनी कर देता है समूचा झोला – मकान
पराजय अपने लोभ से
पराजय अपने क्षरण से
पराजय अपने घमंड से
पराजय अपने चलन से
पराजय अपने झूठ से
पराजय अपने विचारों से
पराजय अपने खरीदे टट्टुओं से
पराजय अपने नए – नए ठीकरों से
पराजय अपने नए – नए फतवों से
पराजय अपने रोज – रोज की बदकारियों से
पराजय अपने अमानुषिक व्यवहारों से
विजय कहीं नहीं पर ….. विजय का जयकारा जरुरी है
पर विनाशलीला का कीड़ा कुरेदता रहता है सारे अस्तित्व को और उससे उपजी झल्लाहट पराजय का चरम बोझ
नकली मुस्कुराहट में बदल कर हुंकारता है
एक इंच भी नहीं देंगे जमीं
पर खुद खोखल में खड़ा है हुंकारते वक़्त यह क्यों भूल जाता है !
मणिपुर की आयरन लेडी नाम से जानी गई , प्रख्यात मानव अधिकार कार्यकर्ता चानू शर्मीला इरोम ने केन्द्र के विशेष सशस्त्र बल कानून अफ़्सपा के खिलाफ 4 नवंबर 2000 से लगातार 9 अगस्त 2016 तक एक तरफा भूख हड़ताल की । बेदाग चाल और चरित्र के बल डटे रही । यदि काव्य विषय चरित्र को बनाए जाएं तो निःसंदेह इनके जैसे बेमिसाल चरित्र का रचा जाना लाजिम है ।
इरोम
इरोम
शहद हथेली पर रख खूब रोई तुम
जब बाएं हाथ की ऊँगली से शहद को छुकर
जीभ से लगाया तुमने
अजीब सा मुंह बनाया था तुमने
और तुम्हारी आँखे बह निकली इरिल और खोर्दाक नदी सी
सोलह बरस बहुत लंबा सफर
हाँ सोलह बरस
एक लड़की के लिए बेहद महवत्पूर्ण होते हैं
ये सोलह बरस इरोम
ये सोलह बरस चनू
ये सोलह बरस , हाँ हाँ हाँ शर्मीला
इन सोलह बरसों में
जिसकी जीभ ने कोई स्वाद ही नही चखा
इन सोलह बरसों में
इसलिए शहद की मिठास को भी भुल गईं तुम या भुला दिया तुमने
अजीब सा मुंह बनाया था तुमने
देखकर एक पल को लगा तुम इस स्वाद को पहचानने से इंकार कर रही हो !
चनू ……
शहद मीठा होता है
बिलकुल कोंग्पाल गाँव की तरह
तुम्हारे जन्म पर तुम्हारी माँ ने
पहली बार जो चटाया था
वह शहद ही तो था
मालोम गाँव , इम्फाल वैली
दस देह , स्कूल से लौटते बच्चे
बासठ साल की झुर्री दार चेहरे वाली बूढ़ी
अट्ठारह साल का वीरता पुरष्कार पाने वाला
श्री नाम चंद्रमणी शूट आउट
अफ़्सपा ……
इतने सालों की तपस्या
कड़वाहट
अफ़्सपा ……
तुम्हारे जीभ के लार में घुल गई थी
जिसे तुम कैमरे के सामने छुपा नही पाई
जब सैकड़ों लोगों की आँखें और
रिपोर्टरों के कैमरे , माइक
अंटे थे चारों तरफ
स्वतः ही सब साफ़ हो गया था
बगैर आंदोलन के ।
शहद हथेली पर रख खूब रोई तुम !