आज की कविता
दहलीज़
एक दहलीज़ पार कर
दूसरी दहलीज़ की शोभा
बढ़ाती हैं..
ये लड़कियां थोड़ा सा
लाड़ पाते ही..
खिलखिलाती हैं।
मायके में शुभ कार्यों में..
जब बुलायी जाती हैं,
देहली पूजन के बहाने…
आशीष खूब लुटाती है।
थोड़ा बहुत लड़ कर
अधिकार जताती हैं।
बेटियां लौट जाती हैं
दुआयें छोड़ जाती हैं।
बात हो खान पान
की
तो … …
हमारे यहां तो… ,
फिर.. धत!
कहकर
शब्दों को सम्भालती है।
आखिर कौन सा घर अपना?
इसी में उलझी रहती है।
जिंदगी भर यें बेटियां
आधी मायके,आधी ससुराल में बंटी रहती हैं।
निमिषा सिंघल