प्रकृति-सौंदर्य के कुशल चितेरे, छायावाद के प्रमुख स्तंभ कवि सुमित्रानंदन पंत की जयंती पर
कुछ अरुण-दोहे :
पतझर जैसा हो गया, जब ऋतुराज वसंत।
अरुण! भला कैसे बने, अब कवि कोई पंत।।
वृक्ष कटे छाया मरी, पसरा है अवसाद।
पनपेगा कंक्रीट में, कैसे छायावाद।।
ऊँची खड़ी इमारतें, खातीं नित्य प्रभात।
प्रथम रश्मि अब हो गई, एक पुरानी बात।।
विधवा-सी प्राची दिखे, हुई प्रतीची बाँझ।
अम्लों से झुलसा हुआ, रूप छुपाती साँझ।।
खग का कलरव खो गया, चहुँदिश फैला शोर
सावन जर्जर है “अरुण”, व्याकुल दादुर मोर।।
- अरुण कुमार निगम
आदित्य नगर, दुर्ग
छत्तीसगढ़