पाकीज़ा के पाक किस्से
कुछ फिल्में ऐसी होती हैं, जिनका असर जेहन पर लम्बे अरसे तक रहता है। पाकीज़ा ऐसी ही एक फिल्म है, जिसे लगभग 30 साल पहले किशोरावस्था में देखा था और आज एक बार फिर अमेज़न प्राइम पर देखा। एक फ़िल्म, जिसे बनने में डेढ़ दशक से अधिक का समय लगा हो, जिसमें अशोक कुमार, धर्मेन्द्र, राजेन्द्र कुमार, सुनील दत्त से होते हुए नायक सलीम की भूमिका राजकुमार को मिली। बाद में अशोक कुमार ने फ़िल्म में राजकुमार के चाचा शहाबुद्दीन की भूमिका निभाई। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि 15 साल के लम्बे अन्तराल में नायक को बदलने की ज़रूरत महसूस की गई होगी।
फ़िल्म में मीना कुमारी ने नर्गिस और उसकी बेटी साहिब जान उर्फ़ पाकीज़ा की दोहरी भूमिका निभाई है और क्रमशः अशोक कुमार और राजकुमार नायक शहाबुद्दीन और सलीम बने हैं। फ़िल्म चार महत्त्वपूर्ण प्रतीकों रेल की सीटी, पिंजरे में कैद चिड़िया, पतंग और पांवों की खूबसूरती के माध्यम से कहानी की अभिव्यक्ति को मारक क्षमता प्रदान करती है, लेकिन अगर फ़िल्म के लेखक, गीतकार, निर्माता निर्देशक कमाल अमरोही ने इन प्रतीकों के महत्त्व को अपनी निज़ी जिंदगी में समझ लिया होता तो शायद अपनी पत्नी मीना कुमारी के लिए ताजमहल जैसे तोहफ़े के तौर पर इस फ़िल्म को बनाने से पहले ही उनकी निजी ज़िंदगी तबाह न हुई होती और मीना कुमारी को न तो हलाला का दंश झेलना पड़ता और न ही फ़िल्म के रिलीज़ होते होते बीमार होकर मरना पड़ता।
इस फ़िल्म पर कमाल अमरोही ने बेशुमार धन खर्च किया। उन्होंने अमरोहा की अपनी आलीशान हवेली की प्रतिकृति स्टूडियो में बनवाकर उस पर कोठे की शूटिंग की। इसके अलावा पण्डित लच्छू महाराज को केवल एक गाने ठाढ़े रहियो के नृत्य निर्देशन के लिए उन्होंने मनाया। गुलाम मोहम्मद और नौशाद के संगीत निर्देशन में खुद कमाल अमरोही ने मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी और कैफ़ भोपाली के साथ मिलकर गाने लिखे, जो सभी बेजोड़ साबित हुए।
फ़िल्म में रेल का जिस खूबसूरती से इस्तेमाल नायक नायिका को मिलाने के लिए किया गया है, वह अब तक का सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है, रेल की सीटी का उपयोग गानों में करने की परम्परा भी इसी फ़िल्म से शुरू हुई। इस फ़िल्म के क्लाइमैक्स में मीना कुमारी ने कांच के टुकड़ों पर तीरे नज़र देखेंगे गीत गाकर आगे की फ़िल्मों के हिट होने के लिए एक टोटका दिया, जिसकी नकल बाद में कई फ़िल्मों को हिट कराने के लिए की गई। इस फ़िल्म के गानों में ठुमरी का प्रयोग भी बेहतरीन तरीके से किया गया है और लखनऊ की तवायफों के जीवन की दुश्वारियों को सामने लाने में इस फ़िल्म की अहम भूमिका रही है, साथ ही झूठी इज्ज़त के लिए अपने बेटे पोतों के जीवन को दांव पर लगा देने और उन्हें मृत्यु तक पहुंचाने की विभीषिका का अंकन आज से पचास बरस पहले प्रदर्शित फिल्म में होना अतिशय आधुनिकता का प्रमाण ही माना जाना चाहिए, लेकिन चचेरे भाई बहन का इश्क़ और शादी से अंत आज भी मन को कचोटता है। फिर भी एक फ़िल्म के तौर पर अपने जानदार संवादों विशेषकर आपके पांव देखे, बहुत हसीन हैं, इन्हें ज़मीन पर मत रखिएगा, मैले हो जाएंगे, और मीना कुमारी के कई संवाद क्रमशः प्रेम की गहराई बताने तथा मन मस्तिष्क में तूफ़ान लाने के लिए पर्याप्त हैं।
फ़िल्म के एक गीत की शूटिंग के दौरान मीना कुमारी के गम्भीर रूप से बीमार पड़ने पर पद्मा खन्ना का उनके स्थान पर केवल एक बार कैमरों द्वारा इतनी खूबसूरती से इस्तेमाल किया गया है कि किसी को पता नहीं चलता कि मीना कुमारी नहीं हैं। इसके बाद लगभग पूरा गाना नायक नायिका के बिना फिल्माया गया है और कहीं भी अटपटा नहीं लगता। अनेक स्थानों पर धर्मेन्द्र राजकुमार की जगह दिखते हैं क्योंकि इसकी कुछ शूटिंग धर्मेन्द्र के साथ की जा चुकी थी, जिसका बारात के दृश्य में और ट्रेन में चढ़ने से पहले के दृश्य में इस्तेमाल किया गया है। फिल्म में मीना कुमारी ने खुद अपनी कॉस्ट्यूम डिजाइनिंग की है, जो उनकी उपयुक्त वस्त्र चयन की दृष्टि का परिचायक है।
समग्रतः इतना ही कहा है कि ऐसी फिल्में अपनी चुस्त दुरुस्त पटकथा, सुमधुर गीत, शानदार संगीत, अप्रतिम नृत्य, जीवंत अभिनय, बेमिसाल सिनेमेटोग्राफी, भव्य सेट, जानदार संवाद और कसे हुए निर्देशन के लिए आज लगभग पचास साल बाद भी हमारे लिए अनमोल है और हिन्दी सिनेना की पाँच सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों में परिगणित किए जाने योग्य है।
© डॉ. पुनीत बिसारिया