समीक्षा : आदरणीया भाभी जी शिरोमणी माथुर की बहुआयामी कृति अर्पण की
समीक्षक :
किशोर ” संगदिल-परबुधिया ”
हस्ताक्षर साहित्य समिति,
दल्ली राजहरा.
यूं तो किसी भी रचना की समीक्षा करना चाहे वो किसी भी रूप में क्यों ना लिखी गई हो बहुत ही मुश्किल काम है, उस पर यहां तो करनी है भाभी जी द्वारा हर क्षेत्र में लिखी गई रचनाओं की समीक्षा।
फिर, अच्छे से अच्छे विद्वान व महान् साहित्यकार भी तो कहते हैं कि समीक्षा करना हर किसी के बस की बात नहीं होती है, फिर मैं तो एक बहुत ही छोटा, साधारण सा साहित्यकार हूं और किसी की नज़रों में घटिया कविता लिखता हूं व अपना स्वार्थ सिद्ध करता हूंं। ये अलग बातें हैं कि ऐसा कहने वाले सज्जन ने कभी मेरी कविता सुनी हो यह मुझे याद नहीं आता है और उन्होंने ही कभी मुझसे अपना स्वार्थ सिद्ध किया था।
वैसे भी मेरी रुची हिंदी व छत्तीसगढ़ी में कहानी, संस्मरण, लघुकथा व हमारे साथ, देश, समाज व आसपास घटने वाली घटनाओं पर गद्य विधा में लिखने में ज्यादा है।
खैर! मैं क्षमा चाहता हूं मैं समीक्षा के मुद्दे से हट गया था।
तो शुरूआत करता हूं कृति के आवरण से :
देखते ही स्पष्ट होता है कि कृतिकार ने बड़े सुपुत्र आलोक माथुर को अर्पित की है यह अर्पण, पिंजरे से पंछी आजाद होकर कुछ देर आजादी की सांस लेकर अपने अनंत आकाश में स्वच्छंद उड़ान भरने हेतु तैय्यार है।
कृतिकार स्वयं प्रजापिता ब्रह्म कुमारी से जुड़ी हैं व संसार की नश्वरता को अच्छे से जानती व समझतीं हैं, इसलिए इतने बड़े वज्रपात को सहकर उन्होंने अपनों को कैसे संभाला है वह इनकी रचनाओं से आभास होता है।
वैसे भी तो : भले ही मां का हृदय खून के आंसूं रोता है मगर बच्चों के लिए तो उसकी आंखों में हमेशा ममता ही झलकती है और वक्षस्थल से तो प्यार, वात्सल्य और ममता का मीठा व निर्मल स्त्रोत ही बहता है।
पुत्र आलोक को समर्पित कविता की प्रथम दो पंक्तियां उनके असमय बिछड़ जाने से उत्पन्न उनके हृदय की पीड़ा दर्शाती है :
” इस करूणा-कलित हृदय में,
वेदना मुखर हो आई है।
सागर से शांत हृदय में,
दुख की लहरें उठ आईं हैं।।”
अंतिम दो पंक्तियां पति, भाई, बड़े पुत्र व छोटी बहू के विछोह के बाद भी उनकी अटूट सहन-शक्ति, प्रभु की इच्छा पर प्रश्न चिन्ह व पुत्र जहां भी रहे वहां सुखी रहने की कामना उनकी इच्छा को दर्शाती हैं, पुत्र वियोग से वो इतनी आहत हो गईं हैं कि इसी इच्छा को वो अपनी अंतिम इच्छा बता चुकीं हैं।
” सब कुछ सहकर भी जीवित हूं,
जाने क्या प्रभु की इच्छा है?
तुम जहां रहो बस सुखी रहो,
यह मेरी अंतिम इच्छा है।। ”
कवियित्री के उद्गार की शुरुआत ही आलोक के प्रति उनके वात्सल्य की झलक है कि आलोक मुझे तुम पर बहुत गर्व था तुम जैसा पुत्र पाकर मैं गौरान्वित थी।
आज के परिवेश में कितनी खुशकिस्मत मां हैं जो यह बात अपने पुत्र/पुत्रों के लिए कह सकतीं हैं।
मुझे याद है कि स्व. आलोक बेटे से जब मैं सबसे पहले मिला था तो वाशरूम के वाशबेसिन के नल से लगातार बहने वाले पानी की चर्चा किया था तो उसने ना सिर्फ मुझे कारण समझाया बल्कि यह भी कहा कि अच्छा लगा आपने इस बारे में बात तो किए। भविष्य में भी कोई भी बात हो तो नि:संकोच आकर कहिएगा, तब से हमारा संबंध अंत तक बना रहा। यहां तक कि मूव्ही के दौरान ही असामाजिक तत्वों द्वारा धूम्रपान करने, हुल्लड़ करने पर मना करने पर भी ना मानने पर उसकी जानकारी में लाने पर तत्काल एक्शन लेता था।
वैसे अभी भी उसके जाने के बाद भी इसका बराबर ध्यान रखा जाता है ।
यहां बताना अप्रसांगिक नहीं है कि स्व. आलोक बेटे ने वनवासी आश्रम के लगभग २० बच्चों को नि:शुल्क १ हिंदी व १ छ.ग. मूव्ही दिखाई थी व यह भी कहा था कि कभी भी कोई मूव्ही इन बच्चों को दिखाने लायक हो तो बताना मैं जरूर दिखा दूंगा। दुर्भाग्य से उसके चले जाने के बाद मैं ही कभी किसी को यह बात नहीं बोल पाया।
वो तो कहता भी था कि छ.ग. मूव्ही सुपर हीरो भंईसा के चार शो तो मेरी वजह से ही चले थे, बताईए आज-कल के समय में कौन यह सब करता, कहता या मानता है?
वो हाजिरजवाबी में भी किसी से कम नहीं था।
कवियित्री ने अपनी कृती को कुल दो खण्डों में रचा है, जिसमें से खण्ड १ के दो भागों में भाग-1 कविता में पुत्र को समर्पित की कुल 11 कविताओं में पहली कविता ही भाव विव्हल कर देती है जो कि आ लौट के आजा मेरे मीत की तर्ज पर है कि :
“” आ लौट के आजा मेरे लाल, तुझे मैं रोज बुलाती हूं। मेरा सुना पड़ा घर द्वार,
कभी तो सुन ले मेरी पुकार-
तुझे मैं रोज बुलाती हूं।। “”
ईसी तरह क्रमशः
तुम गये कौन से देश, चांद-सितारे, कहां गये, पुकार, वरदान नहीं मांगूंगी, तुम्हारी उपस्थिति, राखी का त्यौहार, कदम-कदम पर याद, लोरी और गूंगा गीत इन सभी कविताओं में पुत्र के असामयिक निधन पर किसी मां पर क्या गुजरती है और वो किस तरह से अपने सीने में दुखों के दहकते शोलों को दबाकर परिवार वालों के लिए उपर से शांत रहती है, इसकी अभिव्यक्ति कवियित्री ने बहुत ही मार्मिक रूप में की है।
इनमें से वरदान नहीं मांगूंगी में उन्होंने ईश्वर के समक्ष अपने दृढ़ आत्मबल को व्यक्त किया है।
राखी का त्यौहार में कहती हैं
” जब-जब ये त्यौहार हैं आते,
असह्य वेदना देते हैं।
कोई रोको त्यौहारों को,
गहरी चोटें देते हैं।। ”
जीवन-साथी को समर्पित दो कविताओं में :
*यह दिन भी हैं ,
वह दिन भी थे
में उनके साथ बिताए पल-पल को अत्यंत व्यथित भाव को बताया है तो वहीं हम समझते थे
में पग-पग पर जीवन साथी की अहमियत व अनुपस्थिति के एहसास को दिखाया है।
भाई के प्रति में
भाई तुम कितने प्यारे हो
के अंत में अपनों को खोने की पीड़ा को अभिव्यक्त करती हैं कि
“” है अंत नहीं इस पीड़ा का,
वेदना असीम गरजती हैं।
मन चीत्कार कर उठता है,
जब यादें बहुत कसकती हैं।। “”
पुत्रवधू (निरुपमा) के प्रति
अग्नि परीक्षा में
“” आलोक गये सब छूट गया,
घर की रौनक ही चली गई। “”
यह कहना १००% सही है क्योंकि जब उनके निधन की खबर पाकर मैं घर पहुंचकर आशुतोष बेटे के पास जाकर उसको ढाढ़स बंधा रहा था तब मोहल्ले की कुछ महिलाएं उसके पास आकर कह रही थीं कि क्या हो गया अचानक आशुतोष ये, इसके साथ-साथ तो घर की रौनक ही चली गई।
इन पंक्तियों को देखिए
“” मन चीत्कार कर उठता है,
खुद को बेबस पाती हूं।
कुछ पास नहीं जो दूं उसको,
बस इतना ही कह पाती हूं।।
अब छोड़ो इन सब बातों को,
ईश्वर से नाता जोड़ो।
है बच्चों की जिम्मेदारी,
उनके भविष्य की भी सोचो।।
अपनी एक कविता कलमकारों के प्रति के माध्यम से आह्वान करतीं हैं कि
कलम के सिपाही कलम थाम लो तुम,
धरा को जरूरत अभी आपकी है।
कहे मातृभूमि, बहुत लाल खोये,
मुझे तो जरूरत अभी आपकी है।।
इसी प्रकार श्रमिकों के प्रति
में श्रमिकों का दर्द (लाक डाउन 2020) की अंतिम पंक्तियों में अन्य शहरों से लौट रहे श्रमिकों के दर्द को कुछ इस तरह बता रहीं हैं :
कपड़े धोये, बर्तन धोये,
गारा ईंटा उठाया है।
वर्षों यहाँ रहे हैं फिर भी,
गाँव भूल ना पाया है।।
अब माता के दर्शन करने,
खाली हाथ चला आया हूं।
चारों ओर मौत पसरी है,
गहन निराशा छायी है।
भूखे प्यासे लोग चल रहे,
बिमारी घिर आयी है।।
मुन्ने को कंधे पर रखकर,
चोरी छिपे चला आया हूं।
पैर के छाले किसे दिखाऊं,
नंगे पांव चला आया हूं।।
रोता हुआ चला आया हूं।।
मन में बोझ लिए आया हूं।।
भूखे पेट चला आया हूं।।
अन्य कविता व्यथा में प्रभु से सत्ताधीशों की फरियाद करते हुए कहतीं हैं :
राम राज्य का स्वप्न दिखाकर,
रावण राज्य दिखाया है।
मेहनत करने वालों को,
बहुत-बहुत तरसाया है।।
बड़ी-बड़ी स्कीमें आतीं,
फिर भी काम ना होता है।
गौतम गांधी के भारत में,
श्रमिक अकेला रोता है।।
तुम तो सर्वशक्तिशाली हो,
जग का कुछ उद्धार करो।
मेहनत करने वालों पर,
कुछ तो अब उपकार करो।।
यहां पर सत्तासीनों के प्रति उनकी निराशा स्पष्ट दिखती है।
सामयिक कविता
आज का भारत में सत्ता पाने से पहले व उसके बाद का बदलाव, रामायण, महाभारत में घटी घटनाओं, चरमराती न्याय व्यवस्था, अपराधिक तत्वों के सत्ता चलाने, सज्जनों के मौन,बेबस नियम, संवेदनहीन प्रशासन, सिसकती मानवता, सच्चे की प्रताड़ना, संविधान को तोड़मरोड़कर अपने अनुसार उसकी व्याख्या करने पर सवाल उठातीं हैं कि :
कहां गया वह भारत, जिस पर गर्व किया था हम सबने?
गांधी बाबा फिर से आजा
में कहतीं हैं कि वर्तमान् संदर्भ में जब चारों ओर हाहाकार मचा हो, युवा मानव बम बनकर जल रहे हों, चोरों ओर, अन्याय, अत्याचार, बेईमानी, झूठ फरेब, आतंकवाद, नक्सलवाद का साम्राज्य हो, जिस देश के नेता (कदम-कदम पर व बात-बात में) झूठ बोलते हों, पूजा पद्धति व खान-पान भ्रष्ट हो, मानव चरित्र (हद से ज्यादा) गिर जाए ऐसा संसार कब तक चलेगा।
इन सबके सिवाय नयी संस्कृति, नियति,
भटकन, अपनों की गलती मत देखो, जीवन पथ, दीपक, कविताओं के माध्यम से आधुनिकता से जीवनशैली के परिवर्तन व विनाश आदि पर गहराई से चिंतन किया है।
अब बढ़ते हैं कृति के खण्ड 1 ( भाग-II )
परमपिता परमात्मा के प्रति
इस भाग की सिर्फ एक कविता पुत्र को संबोधित के अलावा किसी भी कविता की समीक्षा करने के लिए मैं अपने आपको किसी भी रूप में सक्षम नहीं पाता हूं क्योंकि भाभी जी स्वयं ही प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज़ ईश्वरीय विश्वविद्यालय से काफी लंबे अरसे से जुड़ी हुईं हैं और इन कविताओं की गहराई व उनमें छुपे संदेश को मैं भला कैसे समझ या समझा सकता हूं?
तो पुत्र को संबोधित कविता को आप सुनिए :
ईश्वर से हटकर कुछ,
लिखने को बोलते हो।
और क्या है जिस पर लिखूं मैं?
अन्याय, अत्याचार, झूठ और फरेब,
क्या ये रचना के विषय हो सकते हैं?
कौन सा विषय है इस दुनिया में ?
जो मुझे आकर्षित कर सकता है।
कौन सा शब्द ऐसा है?
जो मेरी अन्तर्चेतना को अभिव्यक्त कर सकता है।
सर्वोच्च शिखर से नीचे आना संभव नहीं है।
उस अलौकिक अनुभूति के आगे ,
कोई सुख सच्चा नहीं है।
फिर अंत में बेटे को कहतीं हैं कि
मेरे बेटे! में जहां हूं,
मुझे वही रहने दो।
इस अलौकिक आनन्द की अनुभूति,
मुझे लेने दो, मुझे लेने दो।
अब चलें खण्ड 2 (भाग-I) (कहानियां) की ओर :
पहली कहानी
नमक हराम
की प्रारंभिक कुछ पंक्तियों को सुनिए :
सन्ध्या का समय, झीने धुंधलके के कारण वातावरण धूमिल था, देखते ही देखते सड़क पर तीव्र गति से आता ट्रक दाईं ओर एक पेड़ से टकराकर गिर गया, एक चीख वातावरण में गूंज गई। बाईं ओर की खिड़की से ट्रक मालिक राधे सड़क पर कूद पड़ा और सहयात्री दाईं ओर से जोर से चिल्लाया, “मुझे बचाओ, निकालो मुझे, बचा ले राधे, मेरी लड़की की सुबह बारात आने वाली है, कल शादी है उसकी।”
इन्हीं पंक्तियों से अंदाज़ हो जाता है कि कहानी में नमक हराम कौन हो सकता है? मगर कहानी जैसे-जैसे आगे बढ़ती है वैसे-वैसे पता चलता जाता है कि वो तो अपने घायल अभिन्न मित्र प्रिंसिपल की जेब से दस लाख निकालकर रखने वाला मक्कार, बिना लाइसेंस के ट्रक चलाने वाला, मतलब के लिए परिचित, मित्र व ड्राइवर को फंसाने वाला,
चरित्रहीन तक है।
कहानी में संपन्न, प्रतिष्ठित, वयोवृद्ध व रामपुर के पंचायत प्रमुख, प्रिंसिपल के अस्पताल में अंतिम सांस गिनने के दौरान राधे को समझाने पर कि: “तेरे हाथों एक्सीडेंट हुआ है तू अभी शहर जाकर प्रिंसिपल की लड़की का अपने हाथों से कन्यादान व विदा करके उसकी (प्रिंसिपल की) अनुपस्थिति में पिता का फर्ज पूरा कर दे। ” पर वह टस से मस ना हुआ क्योंकि उसके मन में प्रिंसिपल की पत्नी के लिए शूरू से ही पाप जो भरा था, इसलिए
वह गया ही नहीं।
पति की तेरहवीं के बाद प्रिंसिपल की पत्नी पंचायत प्रधान णधीर के पास न्याय पाने की आस से जाती है कि वो राधे से समझौता करा देंगे ताकि वो कोर्ट कचहरी के झंझट से बच जाए।
वो राधे को बुलवाकर प्रयास करते हैं, तो प्रिंसिपल की पत्नी पचास लाख से पच्चीस लाख पर रूक गई और राधे ने तीन लाख से शुरू कर चार, पांच, छ: व अंत में सात लाख से एक पैसा अधिक देने से मना कर दिया।
दूसरी तरफ रणधीर की आत्मा नहीं मान रही थी कि वह कैसे प्रिंसिपल की पत्नी को सात लाख लेकर संतोष करने हेतु कहे? कैसे न्याय से डिग जाए? जबकि उसे भी तो मालूम है कि प्रिंसिपल ने उसी दिन जाते समय बैंक से दस लाख रुपये निकाले थे।
प्रिंसिपल की पत्नी के साथ वो चुपचाप चले गए तो राधे खुश हो गया, वैसे भी उसे विश्वास था कि वो एक कौड़ी ना भी दे तो भला एक विधवा क्या कर लेगी?
पंचायत प्रधान की मदद व प्रेरणा से प्रिंसिपल की पत्नी के एक साल तक केस लड़ने के बाद जब राधे के उपर एक करोड़ की डिग्री आई तब राधे को लगा कि सबने मिलकर षडयंत्र रचा है और यह भी पता चला कि एक विधवा ने उसका क्या कर दिया है?
यहां रणधीर जी को देखकर अपने छात्र जीवन में …….. की लिखी कहानी पंच परमेश्वर की याद ताजा हो गई।
अंत में एक बार जरूर कहना चाहूंगा कि कहानी में लड़की जिसकी शादी हुई है उसकी उम्र भले ही ग्रामीण परिवेष व क्षेत्र के कारण १६ वर्ष बताए हैं, मगर उसकी जगह १८ वर्ष रहती तो ठीक रहता, क्योंकि इससे बाल-विवाह को प्रेरणा देने जैसा हो जाता है।
कहानी ने बहुत कुछ सोचने व विचारने के मजबूर कर दिया है।
दूसरी कहानी के शीर्षक नारी का स्वाभिमान से ही स्पष्ट होता है कि या तो यह जागा है या इसको ठेस पहुंची है।
मैं कहानी की शूरू की और अंत की ४-४ पंक्तियों का ही उल्लेख करूंगा क्योंकि इन्हीं में कहानी के शीर्षक का अर्थ व नारी की स्थिति का प्रतिबिंब दिख जाता है।
पति की रोटियां खाते-खाते और गालियां सुनते-सुनते हमारा स्वाभिमान जाग गया। बहुत हो गया पति की रोटियां खाते व गालियां सुनते, अब हम अपनी रोटी स्वयं कमायेंगी और खायेंगी।
जैसे तैसे पति महोदय ने मेरी जिद के कारण ४,३००) टेंडर भरने के लिए पैसों की व्यवस्था की थी, वह मैंने डुबो दिए थे जिसके फलस्वरूप वो अब पहले से अधिक गालियां देते हैं। मैं सोच रही हूं कि गालियां देना तो क्या पति यदि गोलियां भी चलायेंगे तो भी मैं अपने स्वाभिमान को बीच में आने नहीं दूंगी, सोचती हूं ऐसे में कितना स्थायी हो सकता है किसी नारी का स्वाभिमान?
तिसरी कहानी है बड़ी-भाभी जिसमें बताया गया है कि कैसे नई-नवेली बहू की असीम फर्माईशों के बोझ तले कम वेतन पाने वाला पति दब जाता है और वह बहू पति की उपेक्षा व क्षणिक आवेश में आकर आत्महत्या जैसा घातक कदम उठाकर मृत्यु पूर्व दिए अपने बयान के द्वारा ना सिर्फ़ पति बल्कि इन सब घटना क्रम से अंजान, सीधी-सादी व सारी जिंदगी आर्थिक विषमताओं का सामना करने वाली बेगुनाह सास को भी सारी उम्र जेल के सींखचों के पीछे काटने को मजबूर कर देती है।
क्या आवश्यकता नहीं है ऐसे कानून को बदलने की जिसका ऐसे लोग बदले की कुत्सीत भावना के लिए भी दुरूपयोग कर लेते हैं।
चौथी कहानी है गवाही जिससे यह तो अहसास हो जाता है कि यह भी कोर्ट से संबद्ध होगी।
कहानी का सार यही निकलता है कि जब कोई महिला पहली बार अपने पति के दबाव में आकर कोर्ट में गवाही देने जाती है और उनके वकील द्वारा अपराधी पक्ष के वकील द्वारा पूछे जाने वाले उलजुलूल सवालों के बारे में भी किसी भी तरह की जानकारी ना देने से भी उनकी क्या स्थिति होती है?
अब प्रश्न यह पैदा होता है कि क्या उनका वकील ऐसी स्थिति आने पर अपने घर की महिलाओं को भी इसी तरह कुछ नहीं बताता होगा?
क्या अपराधी पक्ष का वकील अपने घर की महिलाओं द्वारा गवाही हेतु आने पर उनसे भी ऐसे ही सवाल करता होगा?
इसमें जज की निस्पृहता पर भी यही प्रश्न उत्पन्न होता है।
खणड 2 (भाग-II)
( आलेख)
पहले आलेख – सच्ची सुख शान्ति का सर्वेक्षण
की अंतिम पंक्तियों में लेखिका ने सब कुछ ही बल्कि चिंतनीय बातें कहीं हैं सुनिए : ” देश व समाज के कर्णधार व योजनाकार प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने के साथ प्रति व्यक्ति खुशी, प्रेम, सद्भाव व सहयोग बढ़ाने पर भी ध्यान दे व इसके लिये भी योजनाएं बनाये अर्थात् भौतिक गरीबी के साथ- साथ आध्यात्मिक गरीबी को मिटाने के लिए भी योजनायें बनें तो सीमित साधनों से भी समाज में खुशहाली आयेगी और अपराध कम होंगे व सरकारी खर्च – कोर्ट-कचहरी पुलिस, जेल आदि विभागों पर खर्चे कम होंगे और सम्पन्न, समृद्ध व सुसंस्कृत भारत का निर्माण होगा।
अन्य आलेखों अपने को पहचानो, दुआयें दो, हमारे बोल, भगवान सर्वशक्तिमान है, तनाव मुक्ति के लिये–पत्र लिखिये, अब घर जाना है (रिटर्न जर्नी), कर्म के बीज, अन्तर्रात्मा की आवाज, वाणी की मर्यादा, कभी सोचा, जो बोओगे वो काटोगे, तनाव, जरा सोचिए, मेरा राजहरा, धर्म के नाम पर मजहबी उन्माद का जहर, आज की राजनीति और महिलायें, आज का प्रजातंत्र भी पठनीय,दर्शनीय,चिंतनीय, विचारणीय, ज्वलंत समस्याओं व देश के प्रत्येक देशवासी को, चाहे वो कोई भी हो को अपने गिरेबान में झांकने को मजबूर करते हैं, साथ ही साथ ही यह चेतावनी भी देते हैं कि हमें अपने आसपास, समाज, मोहल्ले, ग्राम, नगर, क्षेत्र, जिले, राज्य व देश में छुपे हुए आस्तीन के सांप (गद्दारों) से बचकर रहना होगा, बल्कि उनको पहचानकर उनका असली चेहरा भी सबके सामने लाकर बेनकाब करना होगा।
जय जोहार।
जय छत्तीसगढ़।
जय हिंद।
जय भारत।
वंदे मातरम।
भारत माता की जय।