हिन्दी में रूसी-साहित्य
सत्तर और अस्सी के दशक के पाठकों को सोवियत-संघ के रादुगा और प्रगति प्रकाशन की पुस्तकों की अवश्य ही याद होगी। 17, ज़ूबोव्स्की बुलवार, मॉस्को के पते से प्रकाशित होने वाली ये पुस्तकें तक पाठकों में बहुत लोकप्रिय थीं। इनकी छपाई और अंतर्वस्तु उच्चकोटि की होती, इनमें प्रयुक्त किया जाने वाला काग़ज़ इतना अच्छा था कि आज भी वह मलिन नहीं हुआ है, उनका टाइपसेट सुघड़ था और वो दो शब्दों के बीच में अंतराल देकर मुद्रण करते थे। सजिल्द होने के बावजूद उनकी बहुतेरी किताबें नाममात्र की दरों पर मिल जाती थीं।
सोवियत-संघ के विघटन के बाद ये प्रकाशन बंद हो गए। इनके द्वारा प्रकाशित पुस्तकों की आख़िरी खेप जब तक सुलभ रही, पुस्तक मेलों, दुकानों, वाचनालयों इत्यादि में वो नज़र आती रहीं, फिर धीरे-धीरे आँखों से ओझल हो गई। वर्तमान पीढ़ी को उनकी याद नहीं होगी, लेकिन जो अस्सी-नब्बे के दशक से वास्ता रखते हैं, या जिनके परिवार में पढ़ने-लिखने की परम्परा रही है और जिनके परिजन बौद्धिक और प्रगतिशील-साहित्य के पाठक रहे हैं, वे इन पुस्तकों से निश्चित ही परिचित होंगे या उन्होंने अपने घर में ये पुस्तकें देखी होंगी।
सोवियत-संघ एक आइडियोलॉजिकल-रिजीम थी। किसी भी आइडियोलॉजिकल-सत्ता के लिए प्रकाशन-तंत्र बहुत महत्वपूर्ण होता है। नात्सी-जर्मनी भी आइडियोलॉजिकल थी, लेकिन नेशनल सोशलिज़्म की सरकार में पुस्तकों की तुलना में रेडियो और फ़िल्म-माध्यमों का अधिक महत्व था, क्योंकि जोसेफ़ गोयबल्स की नीति प्रोपगंडा की थी। तब जर्मनी में नृतत्वशास्त्र पर मास्टर-रेस की थ्योरी को बल देने वाली पुस्तकें अवश्य छपती थीं। बहरहाल, रूस में 1917 में बोल्षेविक क्रांति को सम्भव करने वाले स्वयं सर्वहारा नहीं थे, वे लेनिन जैसे बुद्धिजीवी थे, जो कदाचित् क्लासिकी-मार्क्सवाद की पदावली में पेटी-बूर्ज्वा कहलाते। रूसी क्रांति ने बीसवीं सदी को दूर तक प्रभावित किया था। ये वो ज़माना था, जब कम्युनिस्ट कहलाना गर्व की बात थी और हर पढ़ा-लिखा, संवेदनशील व्यक्ति अपने विचारों में साम्यवादी हुआ करता था। आज कम्युनिस्ट शब्द से जो ध्वनि निकलती है, या लोकप्रिय-धारणा उसको लेकर जैसी बन गई है, उससे बिलकुल भिन्न इसकी ध्वनि अस्सी के दशक तक रहती थी और लेखक-बुद्धिजीवी बड़े गर्व से अपने नाम के आगे कामरेड लगाते थे।
सोवियत-संघ की प्रकाशन-नीति के साथ एक मज़ेदार बात जुड़ी है। उन्होंने राजनैतिक साहित्य भरपूर छापा। मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन का समूचा वांग्मय प्रगति-प्रकाशन से अंग्रेज़ी और हिंदी में अनूदित होकर आया है। उन्होंने लोकप्रिय विज्ञान, इतिहास और शिक्षा सम्बंधी पुस्तकें भी बहुत सुरुचि से छापीं। किंतु सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि उन्होंने रूसी साहित्य को प्रमुखता से प्रकाशित किया। इसमें क्रांति के अग्रदूत कहलाने वाले मक्सिम गोर्की भर शुमार नहीं थे, जिनका विलक्षण उपन्यास माँ बोल्षेविकों की बाइबिल थी। इसमें उन्नीसवीं सदी के महान लेखक-उपन्यासकार भी सम्मिलित थे- जैसे पुश्किन, गोगोल, चेर्नीशेव्स्की, तुर्गेनेव, तॉल्सताय, दोस्तोयेव्स्की, चेख़ोव, गोर्की, कोरोलेन्को आदि- जिनका साहित्य तब हिंदी के पाठकों में रादुगा-प्रगति प्रकाशन के संस्करणों के कारण बहुत लोकप्रिय हो गया था।
कम्युनिस्ट-तंत्र अपने स्वरूप में सर्वसत्तावादी होता है। इसीलिए वह पब्लिक-ओपिनियन को रेगुलेट या सेंसर भी करता है। लेकिन मज़े की बात है कि रादुगा-प्रगति प्रकाशन के माध्यम से जो पुस्तकें एक बाक़ायदा स्टेट-पॉलिसी के तहत प्रकाशित हुईं, उनमें अनेक वैसी भी थीं, जिनकी कम्युनिस्ट-विचारधारा से सुसंगति नहीं थी। जैसे कि तॉल्सताय, जो कि जीवन के उत्तरवर्ती काल में अध्यात्म और नैतिक-शिक्षा की ओर झुक गए थे और जो कम्युनिस्टों को ज़्यादा पसंद नहीं करते थे। लेकिन लेनिन के वे प्रिय लेखक थे, युद्ध और शांति तो लेनिन की मेज़ पर रखी रहती थी। प्रोलितारी अख़बार में सितम्बर 1908 में लेनिन ने तॉल्सताय पर एक लेख भी लिखा था, जो बहुत चर्चित हुआ था। तब तॉल्सताय स्वयं जीवित थे। या फिर दोस्तोयेव्स्की को ले लीजिये, जो क्रांति के शत्रु कहलाते थे, अपने उपन्यासों में व्यक्तिवादी-मनोवैज्ञानिकता का चित्रण करते थे और ईसाई-परम्परा के ग्लानि-बोध, प्राश्यचित, पाप-उन्मोचन जैसी रूढ़ियों पर बात करते थे। तुर्गेनेव तो यथास्थितिवादी थे और अपने उपन्यास पिता और पुत्र में वे पुत्रों (नकारवादियों और उग्रवादियों) की तुलना में पिताओं (परम्परावादियों और सामंतों) के प्रति अधिक सदाशयता बरतते प्रतीत होते हैं। तुर्गेनेव ने सोचा भी नहीं होगा कि उनकी मृत्यु के अनेक दशक बाद क्रांतिकारियों के द्वारा उनका साहित्य प्रमुखता से प्रकाशित किया जाएगा। या फिर चेख़ोव ही कौन-से कम्युनिस्ट थे? लेकिन सोवियत-सत्ता ने इन्हें विपुल संख्या में छापने से अपना हाथ नहीं रोका।
मैंने दुनियाभर का साहित्य पढ़ा है- हिन्दुस्तानी भी और इंग्लिस्तानी भी- लेकिन मैं स्वीकार करूंगा कि रूसी साहित्य में मुझको जैसी सच्चाई, मार्मिकता, मनुष्य की निर्मल आत्मा और दुरूह मन के ब्योरे और अत्यंत गहरी अंतर्दृष्टियाँ मिली हैं, वैसी अन्यत्र कहीं नहीं मिली। उन्नीसवीं सदी के महान रूसी लेखक उस शैलीकरण और आत्मग्रस्तता से मुक्त थे, जो बीसवीं सदी में युद्धोत्तर साहित्य की पहचान बन गया। उनके लेखन में एक व्यापकता, सरलता और मनुष्यता की काव्यात्मकता दिखलाई देती है। मैंने कोई और साहित्य इतनी लगन से नहीं पढ़ा, जितना रूसी साहित्य पढ़ा। और यह रादुगा-प्रगति प्रकाशन की कृपा से ही सम्भव हो पाया था।
मैं वर्ष 2000 की वह फ़रवरी कभी भुला नहीं सकूंगा, जब समाचार-पत्र में सूचना पढ़ी कि पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस की ओर से शहर में रूसी साहित्य की सेल लगाई गई है। मैं वहाँ पहुँचा और अपनी आँखों से इस महान-साहित्य को निहारा, जिसके बारे में तब तक केवल सुना ही था। इनकी कीर्ति विश्वव्यापी है। संसार की सभी भाषाओं में लिखे महानतम उपन्यासों की ऐसी कोई सूची नहीं, जिसमें युद्ध और शांति, अन्ना कारेनिना, करमाज़ोव बंधु और अपराध और दण्ड सम्मिलित नहीं। उस ज़माने में मैं बेरोज़गार था और पुस्तकें ख़रीदने की अवस्था मेरी नहीं थी। लेकिन मैं पार्ट-टाइम काम के रूप में फेरी लगाकर अख़बार ज़रूर बेचा करता था। इससे मुझे महीने में 250 रुपयों की आमदनी हुआ करती थी। मैं उस पुस्तक-मेले से 150 रुपयों का अन्ना कारेनिना दो खण्डों में ख़रीद लाया था। वह पुस्तक अंग्रेज़ी में थी और मैं हिंदी माध्यम का छात्र होने के बावजूद जैसे-तैसे उसे पढ़ गया था। 250 रुपया मासिक आय होने पर 150 रुपये की किताबें ले आना उसी मिसाल की पुष्टि है, जो कहती है- पुराना जूता पहनो, लेकिन नई किताब ख़रीदो।
इधर मेरा ध्यान फिर से इन दुर्लभ रूसी किताबों पर केंद्रित हुआ है। मेरे संग्रह में कोई पचासेक रूसी किताबें होंगी, अब मैं प्रयास में जुट गया हूँ कि रादुगा-प्रगति प्रकाशन बंद होने के बाद उनकी पुस्तकों के अंतिम संस्करणों की जितनी भी प्रतियाँ यहाँ-वहाँ मौजूद हैं, उन्हें प्राप्त कर लूँ। बीते दो दिनों में इसी क्रम में पंद्रह नई किताबें केरल के एएफ़आरसी-सोवियत बुक्स स्टोर्स और दिल्ली के कामगार प्रकाशन से ख़रीदी हैं। आप मित्रों के पास अगर इन पुस्तकों की अतिरिक्त प्रतियाँ हो तो सौजन्यवश इस संग्रहकर्ता को सूचित करें। रूसी साहित्य के पुनर्पाठ से जो विचार-रत्न प्राप्त होंगे, उन्हें समय-समय पर पाठकों से साझा करने का प्रयत्न भी अवश्य करूंगा। इति।
–सुशोभित