November 22, 2024

हृदयस्पर्शी सिनेमा का अनमोल एवं उत्कृष्ट उदाहरण है फ़िल्म ‘दोस्ती’

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दोस्ती की जब-जब बात आती है तो मेरे मन में दो बेहद प्यारे लड़कों की तस्वीर तैर जाती है. मृदुल मुस्कान, सौम्य व्यक्तित्व, रेशम-सा हृदय लिए ये दोनों, दोस्ती के सबसे उत्कृष्ट मानदंडों की सूची मेरे हाथों में थमा गए थे जैसे. बचपन के इस सपने को मैंने हृदय में सँजो लिया था कि जब मित्रता करुँगी तो यूँ ही निभाऊँगी जैसे रामू और मोहन ने निभाई थी. मन ही मन कल्पनाओं के सारे रंग चुनने लगती थी. ‘मित्रता दिवस’ हो और ‘दोस्ती’ फ़िल्म को याद न करूँ, हो ही नहीं सकता!
स्मृति-पटल पर उस समय की मेरी आयु तो दर्ज़ नहीं हो रही पर हाँ, मैं किशोरी ही रही होऊँगी. बात अलीगढ़ (उ. प्र.) की है. गर्मी की छुट्टियों में वहाँ ताईजी-ताऊजी के पास हम सब प्रतिवर्ष जाते थे. वहाँ खूब धमाचौकड़ी होती और फिर अचानक से बच्चे फ़िल्म देखने का कार्यक्रम तय कर लेते. ऐसी ही एक ग्रीष्म दोपहरी में ‘दोस्ती’ फ़िल्म देखने का योग बना.

सिनेमा-हॉल में प्रवेश करते समय मुझे एक क्षण को भी यह भान न था कि मैं आज अपने जीवन की सर्वश्रेष्ठ दस फ़िल्मों में से एक देखने जा रही हूँ. लेकिन इस अद्भुत और कालजयी फ़िल्म ने जैसे चौंका दिया मुझे. इसे देखने के बाद जाने कितने महीनों तक इसकी पटकथा मेरे साथ चलती रही. इसने मेरी भावनाओं को इस हद तक उद्वेलित किया कि मैं आज भी इस फ़िल्म को याद करती हूँ. इसे देखने के बाद मैंने अपने व्यक्तित्व को आकार देना प्रारंभ किया. और हाँ, पहला माउथ ऑर्गन भी खरीदा.

यह फ़िल्म सच्ची मित्रता के सभी आयामों को अनूठे ढंग से चित्रित करती है. मूल रूप से यह दो गरीब लड़कों, मोहन और रामू की अटूट दोस्ती की कहानी है. उनमें से एक दृष्टिहीन और एक अपंग है. सड़कों पर भटकते हुए रामू की मुलाकात मोहन से होती है. रामू माउथ ऑर्गन बहुत अच्छा बजाता है, पढ़ने की भी बहुत इच्छा रखता है. मोहन अच्छा गाता है. साथ में वे एक-दूसरे की कठिनाइयाँ समझते हैं, एक-दूसरे को सांत्वना देते हैं और भरसक साथ निभाते हैं. ये दोनों एक ऐसे जीवन को स्वाभिमान के साथ जीने को प्रयासरत हैं जिसे दूसरे दयनीय समझते हैं. मोहन को अपनी खोई बहन की तलाश है, और रामू को शिक्षा की. ये दोनों दोस्त किन-किन कठिनाइयों से संघर्ष करते हुए जीवन जीते हैं, इनकी मित्रता कैसे धर्मसंकट से होकर गुजरती है. कैसे नए रिश्तों के कारण ये बिछुड़ने के कगार पर आ जाते हैं. यही फिल्म में दिखाया गया है. लेकिन इसके अन्य पात्र भी पटकथा में उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. फिर चाहे वो बहन-बहनोई हों, शिक्षक-छात्र हों या एक गुड़िया जैसी बच्ची.

इस फ़िल्म में मनुष्य की प्रत्येक भावना को इतनी सरलता से, लेकिन वृहद रूप से चित्रित और रेखांकित किया गया है जो लगभग 6 दशक बीत जाने के बाद भी कहीं देखने को नहीं मिलता. मित्रता पर ऐसी कोई फ़िल्म आज तक बनी ही नहीं जिसने मुझे इस हद तक भावुक कर दिया. इससे पहले मैं किसी फ़िल्म में एक पल भी नहीं रोई थी लेकिन इसमें तो जैसे बाँध बह निकला था. मानवीय संबंधों के सबसे शुद्ध और प्रबल भाव का चित्रण है इसमें. दोस्ती और मानवता की इस उल्लेखनीय कहानी में दोनों अभिनेताओं सुधीर कुमार और सुशील कुमार ने ऐसा अभिनय किया है जैसे कि वे इस भूमिका के लिए ही जन्मे हों. दृष्टिहीन लड़के की भूमिका निभाने वाले सुधीर कुमार की आँखें तो इतनी सुंदर हैं कि बयान नहीँ किया जा सकता. पूरी फ़िल्म में यह बेचैनी साथ चलती है कि ये लड़का देख क्यों नहीं सकता!

दोस्ती का गीत-संगीत रिश्तों के धागे में मोती की तरह पिरोया गया है. मजरुह सुल्तानपुरी द्वारा रचित गीतों में लक्ष्मीकांत प्यारेलाल ने अपने संगीत से जान फूँक दी है. इन शानदार गीतों के सरल और अर्थपूर्ण बोल अत्यधिक दक्षता के साथ कहानी को अपने साथ लेकर चलते हैं. राजश्री बैनर के ताराचंद बड़जात्या इसके निर्माता हैं. निर्देशन सत्येन बोस का है.

कहते हैं कि अपने असाधारण अभिनय और कमाल की कहानी के कारण यह एक बड़ी ब्लॉकबस्टर रही थी. और क्यों न हो, जब स्वर सम्राट मोहम्मद रफी ने इसमें वो 5 गीत गाए हों जिन्हें हम अब तक गुनगुनाते हैं. लता मंगेशकर का गाया गीत ‘गुड़िया, हमसे रूठी रहोगी, कब तक न हँसोगी’ हर माता-पिता ने अपनी बेटी को मनाते हुए गाया होगा. गीतों के शब्द- शब्द दिल में उतरते हैं. ‘मेरी दोस्ती मेरा प्यार’ सुनकर कैसे अपने दोस्तों पर गर्व होने लगता है.और ‘चाहूँगा मैं तुझे साँझ-सवेरे’, से तो न केवल दोस्त बल्कि प्रेमी भी निश्छल मन से किसी को प्रेम करते हुए बिछोह का दर्द महसूस करते हैं, ‘मेरा तो जो भी क़दम है’ में जो परवाह है उसे रफ़ी साब ने कैसे जीवन दे दिया है! ‘जाने वालों जरा मुड़के देखो मुझे’ को सुन दिल से एक आह आज भी निकलती है. हम इन सारे थोड़े उदास भावों से गुजर ही रहे होते हैं कि ‘राही मनवा दुख की चिंता क्यों सताती है’ गीत आपको हौले से सहला जाता है और आपका निराश हृदय अनायास ही उम्मीद की जगमगाती किरणों से प्रकाशमान हो उठता है.

इस फिल्म की श्रेष्ठता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि उस वर्ष के प्रतिष्ठित फिल्मफेयर अवॉर्ड में सर्वश्रेष्ठ फिल्म, कहानी, संवाद, संगीतकार, गायक, गीतकार के पूरे 6 पुरस्कार इसके नाम हुए.
दोस्ती पर सैकड़ों फ़िल्में बनी हैं. उनमें से कुछ अच्छी भी हैं. लेकिन इससे श्रेष्ठ, भावनात्मक रूप से प्रबल, अविस्मरणीय गीत-संगीत और अभिनय से सजी प्रेरणास्पद फ़िल्म मैंने आज तक नहीं देखी! हृदयस्पर्शी सिनेमा का अनमोल एवं उत्कृष्ट उदाहरण है यह फ़िल्म.

राजश्री बैनर ने अपनी फ़िल्मों में सामाजिक मूल्यों, नैतिकता, परिवार, संवेदनाओं को शीर्ष पर रखकर सदैव ही भावनात्मक पक्ष को प्रबल रखा है. आश्चर्य इस बात का है कि जहाँ आज फ़िल्मकारों द्वारा कहानी की मांग को कारण बताकर अनर्गल सामग्री को सिनेमा में सम्मिलित कर लिया जाता है. वहाँ यह फ़िल्म निर्माण कंपनी अब तक अपनी उसी आन, बान और शान के साथ साफ़ सुथरी खड़ी हुई है. प्रशंसनीय है कि राजश्री प्रोडक्शन की फ़िल्में आज भी न केवल इस परंपरा को निभा रही हैं और सफ़ल भी हो रही हैं.

हो सकता है कि 1964 में बनी इस फ़िल्म ‘दोस्ती’ को देखने पर संवाद अदायगी थोड़ी बचकानी लगे. यह बहुत पुरानी फ़िल्म है और तब से अब तक संवादों के लहजे में बहुत परिवर्तन आ चुका है. लेकिन भावनात्मक रूप से यह अब भी उतना ही गहरा प्रभाव डालने में सक्षम है. यदि आप अच्छी फ़िल्में देखना पसंद करते हैं तो इसे अपनी सूची में अवश्य सम्मिलित करें. यह निश्चित रूप से आपके बेहतरीन गुजारे ढाई-तीन घंटों की यादों में से एक होगी. ये आपको दर्शनशास्त्र नहीं समझाती, सुनहरे स्वप्न नहीं दिखाती, कुछ अविश्वसनीय बात भी नहीं कहती बस दो इंसानों का संघर्ष भरा जीवन सामने रख देती है. दोस्ती के अटूट बंधन की पाठशाला है यह फ़िल्म. रिश्तों के सबसे मधुर और उच्च भाव दोस्ती को यह इस तरह रखती है कि कहानी के दोनों पात्रों से आपका भीतर तक जुड़ाव हो जाता है. उनके दुख आपकी आँखों से झर झर बहने लगते हैं. पर आप ईश्वर से यह प्रार्थना भी अवश्य कर रहे होते हैं कि आप भी किसी से इसी तरह दोस्ती निभाएं. आपके जीवन में भी कोई ऐसा दोस्त आए जिस पर आप यूँ भरोसा कर सकें. आखिर दोस्तों में ही तो जीवन बसता है न!
प्रीति जैन अज्ञात

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