युवा कलम में आज हैदराबाद से आशीष गौतम के विचार
जब आप आजाद महसूस करें तब घर से निकले। सिर्फ यूँ ही उपयोगी घरेलू वस्तुएँ लेने नहीं, बल्कि अपने साथ वक़्त लेकर निकले। आपकी दैनिक जरूरतों को पूरा करने वाले उन सभी व्यक्तियों को देखिये जिनमें सब शामिल हैं दूधवाला, सब्जीवाला, सफ़ाईकर्मी, अखबार वाला आदि। सोचिये अगर यह संकट की घड़ी सिर्फ उनकी झुग्गी-झोपड़ियों, बस्तियों तक में सीमित होती। सोचिये बीमारियां सिर्फ उनके दरवाजों पर दस्तक देती। तब हम और आप क्या कर रहे होते। अपने कामों में व्यस्त होते। किसी अगली आने वाली फिल्म पर चर्चा कर रहे होते या वक़्त मिलते ही मित्रों के साथ सिनेमाघरों में अपना समय दे रहे होते। एक दिन हमारे घर अखबार नही आता तो क्या होता? एक दिन दूधवाला दूध देने नहीं आता तो क्या होता? घरों में सफ़ाई करने वाला नहीं आता तो क्या होता? क्या होता अगर हमारे पास होती सिर्फ उसकी मौत की खबर और मौत की वजह? क्या होता अगर ऐसी बीमारी सिर्फ और सिर्फ उन्हीं बस्तियों में पनप रही होती? आप शायद कुछ दुखी होते और पुनः नए अखबार वाला, दूधवाला या सब्जी वाले की तलाश में निकल पड़ते।
सदियों पूर्व एक दूरी बनायी गयी जिसका इलाज आज तक ठीक तरीके से नहीं हो पाया है। वर्गो में दूरी तो बहुत पहले ही बना दी गयी थी। तब वह महामारी धर्म था। जब जब उच्च वर्ग पर ऐसा कोई संकट आया है तब तब तमाम हुकूमतों ने ऐसे तमाम कदम उठाए जो उनके फायदे के लिए हो। मौतों का एक राज अक्सर गटर में भी दफ़न हो जाता है। मौतें भूख से भी होती हैं। मौतों का कारण गरीबी, बेरोजगारी भी है। मौतों पर बात करनी है तो इस संकट से निकल कर इन मौतों पर भी बात करिये। उस पर भी बात करिये जो उन्हीं ढोंगी हुकूमतों का शिकार हो गया जो आज अपने को मसीहा समझ रही हैं।
इन्सान तक यह बात सीमित नहीं। बाते प्रकृति की भी की जा रही हैं। देशबन्दी समाप्त होने दीजिए। हम फिर लौटेंगे सब पहले जैसा करने। हमने आग नहीं बुझाई सिर्फ कोयला डालना बन्द कर दिया है। पृथ्वी फिर उसी तरह खौल उठेगी जैसी कुछ समय पहले थी।
“कुछ सिखाकर यह वक़्त चला जायेगा। फिर वही दोहराएगा, इंसान फिर पछतायेगा।”