कवियों की कथा-55
छत्तीसगढ़ के रजत कृष्ण एक महत्वपूर्ण लोकधर्मी कवि हैं!वे पेशे से प्राध्यापक और वर्तमान में सर्वनाम पत्रिका के संपादक भी हैं ।शारीरिक रूप से पूर्ण स्वस्थ नहीं होने के बावजूद लेखन-संपादन कार्य अविरत कुशलतापूर्वक कर रहे हैं।उनकी कविताओं में उनका जनपद और जन बड़े सहज भाव से उपस्थित होते हैं ।वहां दुःख का विलाप नहीं होता; वहां दुःख की भी सुखद अनुभूति होती है,,!
आज इस काॅलम की पचपनवीं कड़ी में Rajat Krishna की कविताओं की शहद-सी मिठास को ग्रहण करें,,,!
कवि की कथा=कवि की कलम से
#कवि_कथा
कविता ने मुझे गढ़ा और सँवारा है :
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कविता को विद्वानों ने आत्मा की वाणी कहा है ! हम जब भी दुखी होते हैं या खुश या फिर किसी अपने या किसी अनजान को संकट में देखते हैं ,उसकी पीड़ा को,संघर्ष को अपने भीतर अनुभूत करने लगते हैं तो भीतर हलचल -मचता है, वेदन की लहर सी उठती है और वह बेचैन कर जाती है ! यह बेचैन कर जाना या होना कविता की बुनियाद सा काम करता है। जाहिर है कविता मेरे लिए अपनों की पीड़ा , अपनों के संघर्ष ,अपनों के स्वप्न को बाँचना है ! यहाँ अपनों से आशय ब्यापक है ! वे कथित छोटे लोग भी कवि के लिए सदैव अपने होते हैं ,जो हमारी दुनिया मे हमारे संग साथ या दूर दराज में कहीं अभाव जन्य परिस्थितियों में जी रहे हैं , नाच-गा रहे हैं ! लड़-झगड़ रहे हैं …और इतना ही नहीं , हमारे लिए मनुष्येतर जीव-जन्तु भी हमारी दुनिया को समृद्व करने के नाते हमारे अनुषंगी हैं , जिनसे हम बहुत कुछ सीखते-समझते हैं ! यह हमारे संवेदनात्मक संसार को समृद्ध करते हैं ! जाहिर है कविता की दुनिया मनुष्य और मनुष्येत्तर जीव-जंतुओं से जुड़ी संवेदना का साझा अनुभव जन्य दुनिया है — जिसके विविध रंग-रूप हमारे मनोजगत को अपने ढंग से व्यापक रूप प्रदान करते हैं ! यह सब यहॉं प्रस्तुत मेरी कविताओं में आप देख सकते हैं ..और अन्यान्य संगी-साथियोँ की कविताओं में भी !
सृजन साझेपन को बढ़ाता है और साझापन दुनिया को सुखी, समृद्व व संघर्ष की चेतना को पुष्ट करता है ! यह पुष्ट होना किसी भी कला का वांछित प्रतिफ़लन है ! मैं यह सब जब कह रहा हूँ तो मुझे उन तमाम कवि मित्रों , कथाकारों की याद आ रही है जो समाज को सहेजे रखने वाली सन्देशपूर्ण रचनाएं रच रहे हैं और उसे जी भी रहे हैं !
कई बार लोग सवाल उठाते हैं कि कविता-कहानी आखिर देती क्या है …! तो मैं प्रसंगवश यह बताना जरूरी समझता हूँ कि कि उम्र के बीसवें बरस में जब अपनी अस्वस्थता के चलते व्हीलचेयर पर अवलंबित जीवन जीने लगा और पूरे 14 साल तक पढ़ाई-लिखाई से दूर रहा तब सहित्यिक मित्रों,अंग्रजों, वरिष्ठों ने अपनी-आपनी तरह से मेर दुनिया मे उमंग भरी, प्रेरणा भरे पत्र लिख, जरूरी किताबें भेज प्रोत्साहित किया ! दिल्ली के वरिष्ठ कवि विष्णु चन्द्र शर्मा से लेकर राजस्थान के राजा राम भादू , डॉ. सत्यनारायण से लेकर छतीसगढ़ के कई अग्रज ,मित्र कवियों, संपादकों ने अपनी-आपनी तरह से मुझे ताकत दी !
जाहिर है साहित्य मेरे लिए नया जीवन पाने , उड़ान भरने को नया आकाश पाने और संवाद के लिए आत्मीय ताप से भरे कई ठीये पाने-सा है, जिसका विस्तार निरन्तर हो रहा है और मैं निरंतर समृद्व !
यों विद्वानों ने कहा है कि कवि-लेखक को कम से कम बोलना चाहिए, क्योंकि उसकी बातें उसकी रचनाओं में सामने आए यही बेहतर है…. तो अब मुझे मेरी रचनाओं में जानें , पहचानें यही बेहतर होगा….!!
#कविताएँ=
01- एक डग, तीनों लोक, चैदह भुवन
बस सप्ताह भर दूर है दीवाली
साफ-सफाई में तल्लीन है गृहणी।
गृहणी सही-सही जानती है
किस डिब्बे में दाल है, किसमें बड़ी
किसमें साबुदाना और किसमें सेवाई।
एक-एक जार, डिब्बे, थैले उतारती
पोंछती है ऐसे, जैसे अंगोछ रही हो
धूल खेलकर लौटे बच्चों की देह।
सफाई करते-करते हाथ लग जाता
शादी का अलबम जब
चमक उठती आँखें उसकी एकदम से
डूब जाता चेहरा लाली में जैसे।
दीवाली सफाई करती गृहणी की देह
जैसे देह नहीं, ग्रह-उपग्रह हो-
अपने अक्ष पर अनवरत घूमता हुआ।
दीवाली सफाई में तल्लीन गृहणी को
जो देख लें स्वर्ग में रमे देवगण
डूब जायं शर्म से-
अरे! कौन यह…
कौन – नाप रही है जो एक-एक डग में
तीनों लोक और चैदह भुवन!!
02-ममतालु होते गए पिता के लिए
पिता की गोद में
फूल-सी दो बेटियाँ
और एक बेटा छोड़कर
चिड़िया बन उड़ गई माँ
अनंत में जब-
पितृत्व की काया में ममत्व संजोए
कैसे ममतालु होते गए पिता
नहीं पता बच्चों को यह!
यों कभी नहीं भूले वे यह
कि हाथ वो पिता के ही थे
जो गूँथा करते बचपन में
दोनों बहन की वेणियाँ
और तीनों भाई-बहन
खाते थे जो रोटियाँ
उनमें नमक से लेकर आग-पानी तक
पिता के हाथों से ही सिरजता था।
बिन माँ की संतान कह-कह कर
बिंधी जाती तीक्ष्ण वाणियों से
तीनों की छाती जब
घाव से उबारने मरहम लगाते हाथ
होते पिता के ही-जानीं जब बेटियाँ यह
धीरे-धीरे ज्यों माँ बनती गई
अपने बूढ़े पिता की वह!!
03-यह नन्हा कंधा कच्चा मूड़
यह नन्हा कंधा
कच्चा मूड़
जो धान का बीड़ा बोहे
हुलस रहे
संतान हैं उस भारत की
जिस पर देश की
भूख मिटाने का जिम्मा है।
नहीं पता इन्हें अभी
इस भारत में
किसान के मूड़-कांधे पर
कितना-कितना कर्जा है।
खिलखिल करती हँसी इनकी
नहीं जानती सच्चाई यह भी
कि जो बीड़ा इनके कंधे पर है
दाना-दाना उसका
कर्ज में डूबा-धंसा है।
झूल रहे
फांसी पर जब
टूटे-हारे किसान
एक-एक कर जनपदों में
क्या अबोध ये
समझेंगे भी
कि किसान यहाँ हँसता नहीं कभी अब
उसके हिस्से तो
फकत रोना ही रोना है।
रहे सदा
कांधे यह मजबूत
और मूड़ पर
बाली धान की
खिलखिल मुस्काती रहे
कौन भला यहाँ
यह तय करे सब
हो अनसुनी जब
पीड़ा गाँव जनपद की
संसद में भी।।
04-बेहतर दुनिया के लिए
पत्तियाँ समझती हैं
कब झड़ना है उन्हें
डंगाल से
कि फूटें कोंपले नई।
जानती हैं चिड़िया सभी
कितना सकेलना है
दाना-पानी
कि बची रहे चियाँ उनकी
भूख-प्यास से।
गाय, बैल, भैंस
ऊंट, बंदर, भालू
चीते सहित चैपाए सभी
जानते कि कितना चाहिए
शावकों को दूध
और स्वयं के लिए
चारा कितना
कि चलता रहे जीवन
बड़ा समझदार माना जाता
आदम जात
फिर भी तय नहीं कर पाता
वह प्रायः
कि कितनी चाहिए रोटी
कितना कपड़ा
और मकान कितना बड़ा।
सोचता हूँ
कितना अच्छा हो
कि आदमी रूपयों को
पत्तों की तरह समझे
चिड़ियों की निगाह से देखे
दाना-पानी को।
गाय-बैल और ऊँट आदि की
निगाहों से परखे
मकान को।
05-महतारी
मूड़ पर
ईंटों की थड़ी लादे
गर में दुधमुँहे को लटकाए
भरे जेठ की दोपहरी
देह होम करती महतारी यह
श्रम की किताब में अंकित
सबसे जीवंत कविता है।
कितना कुछ कह रहा
आखर-आखर इसका
उन सबसे जो बैठे हैं
वातानुकुलित सदनों में
और लिख-बाँच रहे जो
कविता सुचिक्कन पृष्ठों में
बड़े टी आर पी वाले चैनलों में।
महतारी यह नहीं जानती
कि मैं कौन हूँ
जो रच रहा कविता
इनके जीवन पर चुपचाप
लेकिन इससे क्या?
जानता तो है मन मेरा
पता है मेरी संवेदना को भी
कि मैं बेटा हूँ उस खेतिहारिन का
जो भरी दुपहरी
बारहों महीना खेत में
करती निदाई, रोपती धान
सत्तर की उमर में भी।
मूड़ पर ईंटों की थड़ी लादे
गर में दुधमुँहे को लटकाए
महतारी यह
मेरा कुछ नहीं लगती
पर जीवन के ताग से इसके
मेरी महतारी के जीवन का ताग जुड़ता है।
यही हू-ब-हू यही चेहरा-मोहरा
मेरी उन बहनों का भी है
जो धमतरी जनपद के
कण्डेल, बोडरा, सिंधौरी
और सिर्वेे गाँव में
धान रोपती, निंदाई और कटाई करते मिलेंगी
और मिलेंगी
नई उठती ईमारतों के ठीये पर
हाड़ तोड़़ मेहनत करती
जांगर पेरती
छत्तीसगढ़ सहित दुनिया भर में।।
06-फुटपाथ पर दोपहर का भोजन
फुटपाथ पर बैठी
यह दादी-पोती
जानें किस गाँव से
आई होंगी इस शहर में
किसी काम से।
कागज को ही
भोजन का पात्र बनाकर
खा रही कैसे बड़े इतमीनान से
यों ऐसे कितनों ही हैं यहाँ
जो जीते फुटपाथ पर ऐसे
जैसे कि हो इनका घर यही।
बरसों बीते आजादी को
सŸााएँ कई आयीं, गयीं
पर
07-कुछ और चम्मच दुःख
जीवन की मेरी प्याली में
दुःख की चीनी
क्या कम थी
जो उड़ेल दिया तुमने
कुछ और चम्मच दुःख !
खैर …कोई बात नहीं
पियूँगा इसे भी मैं ….
पीता आया हूँ जैसे गरल
फेनिल काली रातों का !
जीता आया हूँ जैसे
लड़-भिड़कर भी
साक्षात यम से
मैं हर हाल जीऊँगा…
चिथड़े साँसों को
फिर-फिर मैं सिऊँगा …
हाँ ,हर हाल में सिऊँगा !!
08-पानी -बन जाएं
पहाड़ -सा जीवन हो जब
पानी-सा बन जाएं हम
सीना पहाड़ों का
पानी ही तो चीरते आए हैं !
पानी होकर ही
मिल सकते हैं हम
दुनिया के तमाम रंगों में ,
गुनगुना सकते हैं
उतर-पसर कर
पेड़-पौधों की जड़ों में !
बुझा-बुझा हो जीवन जब
पानी-सा बन जाएं हम ,
बिजली का बाना धर कर
अंधेरे के पोर-पोर में
धँस जाएँ हम !
#परिचय=
रजत कृष्ण
कविता संग्रह =छत्तीस जनों वाला घर
सम्मान =सूत्र सम्मान ,
लेखराम चिले निशंक स्मृति सम्मान
संपर्क=बागबाहरा,छत्तीसगढ़
लेखक – शिरोमणि महतो