November 21, 2024

बीसवीं सदी के सबसे सम्मोहक नायक (जन्म शताब्दी वर्ष पर)

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कभी आइंस्टीन ने गॉधी जी के लिए कहा था कि ’आने वाली पीढ़ी इस बाद को लेकर अचंभित होगी कि हाड़ मांस से बना गॉधी जैसा एक महामानव इस धरती में जन्मा था।’ इस स्टेटमेंट में फेर-बदल कर फिल्म सितारे देव आनंद और उम्दा शायर फिराक गोरखपुरी ने अपने लिए कहा था कि ’आने वाली सदी इस बात पर हैरॉ होगी कि बीसवीं सदीं में देव आनंद भी था।’ फिराक ने इसे अपने लिए कहा था।

यह सही है कि देव आनंद फिल्मी दुनियॉ के सबसे बड़े नार्सिस्ट (आत्ममुग्ध इंसान) थे। वे कई मायनों में बड़े थे और इसलिए अपनी नार्सिसम (आत्म-मुग्धता) को भी उन्होंने घनघोर रचनात्मकता में बदल डाला था। वे बहुत आइना प्रेमी थे। हरदम आइने के सामने खड़े होकर अपने को घंटों निहारा करते थे। इस आइना प्रेम ने उनके व्यक्तित्व को खूब निखारा था और उनके व्यक्तित्व ने सारे देश के जन-मानस को निखारा। मिथकों के एक स्वप्निल लोक में हमेशा विचरने वाले भारतीय जन-मानस ने आधुनिक संदर्भों में अपने सबसे बड़े नायक और महानायक चुने तो राजनीति, खेलकूद या सेना के क्षेत्रों से नहीं बल्कि फिल्मों से चुने और उन्हीं से सबसे ज्यादा प्रेरणा ग्रहण की।

ऐसे महानायकों में तीन महत्वपूर्ण व्यक्तित्व हुए – दिलीप कुमार, राजकपूर और देव आनंद। तब धर्मवीर भारती के संपादन में ’धर्मयुग’ एक ऐसी पत्रिका थी जो भारतीय साहित्य और विचार जगत की एक नायाब पत्रिका थी। इस पत्रिका में भारती जी ने देव आनंद का एक संस्मरण प्रकाशित किया था ’मेरी छोटी सी राजनीतिक दुनियॉ।’ चूंकि देव आनंद अंग्रेजी साहित्य में स्नातक थे इसलिए उन्होंने जीवन में जो कुछ भी लिखा वह अंग्रेजी में ही लिखा। उनके इस आलेख का हिंदी रुपांतर धर्मयुग में छपा था। इस आलेख के साथ एक तस्वीर छपी थी जिसमें जवाहर लाल नेहरु के साथ दिलीप, राज और देव की तस्वीर थी। इस चित्र में नेहरुजी ने टोपी नहीं पहनी है। चूंकि नेहरु भी अपने समय के एक बड़े महानायक थे और उन्हें ’नायकत्व’ की गहरी समझ थी, इसलिए जीवन के जिस किसी भी क्षेत्र में कोई नायक हुआ तो उनका उन्होंने भरपूर सम्मान किया। नेहरु जी के हृदय में हिंदी सिने जगत के इन तीन महानायकों के प्रति भी बड़ा प्यार और सम्मान था। प्रधानमंत्री नेहरु ने अपने निज सचिव को हमेशा के लिए यह हिदायत दे रखी थी कि जब जब भी उनका बम्बई प्रवास हो वे रात्रि का भोजन दिलीप, राज और देव साहब के साथ करेंगे और ऐसा होता रहा था। यह बाद के प्रधान मंत्रियों को भी सीखना चाहिए था।

देव साहब नेहरु के लोकतांत्रिक व्यक्तित्व और उनके ’हीरोइजम’ के बड़े कायल थे। तत्कालीन विदेश मंत्री कृष्ण मेनन से उनकी मित्रता थी। अस्पताल में भरती कृष्ण मेनन से जब उनकी अंतिम मुलाकात हुई तब कृशकाय कृष्ण मेनन और उनकी शिथिल होती काया का देव आनंद ने अपने संस्मरण में बड़ा मार्मिक चित्रण किया है। इस संस्मरण आलेख से यह पता चलता है कि अपने समय की राजनीति, साहित्य और विचारों की दुनियॉ से देव आनंद कितने उद्वेलित हुआ करते थे। नेहरु से निकटता होते हुए भी उन्होंने इंदिरा के राजनीतिक निर्णय के विरोध करने का साहस किया था। आपातकाल में अभिव्यक्ति पर हुई बंदिश के खिलाफ सामने आते हुए देव आनंद ने एक नेशनल पार्टी के गठन की घोषणा कर डाली थी। जबकि सोनिया गांधी के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए उन्हें नेहरु का प्रिय लाल गुलाब भेंट किया था। दिलीपकुमार की वाकशैली का ऊंगली उठाकर अनुकरण करने वाले प्रधानमंत्री वाजपेयी अपनी पाकिस्तान यात्रा में देव आनंद को अपने साथ ले गए थे।

लाहौर कॉलेज के अंग्रेजी स्नातक देव आनंद ने अपने समय के बड़े भारतीय अंग्रेजी लेखक आर.के.नारायणन के उपन्यास ’द गाइड’ पर 1965 में हिंदी और अंग्रेजी में फिल्म बनाई थी। ये फिल्मों के इतिहास की एक अनूठी घटना थी। तब बाद में उपन्यास की मुद्रित प्रति के मुखपृष्ठ पर देव आनंद और वहीदा रहमान के चित्र छपा करते थे। गाइड उनके छोटे भाई विजय आनंद द्वारा निर्देंशित एक क्लासिक फिल्म थी। इस फिल्म में उदयपुर के लोकेशन को जबर्दस्त पिक्चराइज किया गया है। फिल्म में गाइड बने देव आनंद की जब वहीदा से मुलाकात होती है तब देव आनंद अपनी चिरपरिचित लहराती आवाज में उनके सामने जा खड़े होते हैं कहते हैं ’गाइड! आपको कहॉ जाना है?’ तब अपने पति किशोर साहू पर नाराज वहीदा तुनकती हुई आगे बढ़ जाती है और देव आनंद से कहती है ’जहन्नुम में।’ तब देव आनंद पलटकर अपने अंदाज में कहते हैं कि ’जहन्नुम में जाना था तो उदयपुर क्यों आईं मैडम इसे तो लोग जन्नत कहते हैं।’

देव साहब की ऐसी कई अदायगी के दर्शक दीवाने हुआ करते थे। गाइड का उन्होंने अंग्रेजी संस्करण भी बनवाया जिसका अंग्रेजी में स्क्रिप्ट नोबल पुरस्कार प्राप्त लेखिका पर्ल एस.बक ने किया और इसका निर्देशन हालीवुड के निर्देशक ने किया था. तब ’टाइम’ पत्रिका ने गाइड को उस समय की चार क्लासिक फिल्मों में शुमार किया था। इस फिल्म की साख इतनी थी कि यह बयालीस सालों बाद भी ’कॉन फिल्म फेस्टीवल’ में प्रदर्शित की गई थी।

अपनी फिल्मों के लोकेशन के प्रति हमेशा सतर्क रहने वाले देव आनंद के ७५ वे जन्मवर्ष पर नेपाल सरकार ने इसीलिए सम्मान किया था क्योंकि देव आनंद की फिल्मों – जॉनी मेरा नाम, हरे रामा हरे कृष्णा और ये गुलसितॉ हमारा में नेपाल के स्थानों को इतनी खूबसूरती से फिल्माया गया था कि उसके बाद नेपाल में पर्यटकों की संख्या में भारी इजाफा हुआ और वहॉ की सरकार को काफी मुनाफा हुआ था। ऐसे ही ’ज्वेल थीफ’ में सिक्किम और उसकी राजधानी गंगटोक की सुन्दरता को उन्होंने खूब उभारा था। हिमालय के लोक जीवन और उसकी जीवन्तता को बखूबी फिल्माने के लिए उन्होंने सचिन देव बर्मन की संगीत कला का भरपूर सहारा लिया था। अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं को उजागर करने के लिए देव आनंद ने ही सबसे पहले पनप रही हिप्पी संस्कृति और एन.आर.आई.समस्या पर फिल्मे बनाई थी। अपने अल्पकालीन रंगमंचीय जीवन समय में प्रगतिशील नाट्यसंस्था ’इप्टा’ से भी जुडे़! इस तरह वे अपने समय की आधुनिकता और नवीनता को हरदम पकड़ने की कोशिश करते थे।

अंग्रेजों के उपनिवेश बने रहे भारत और उसकी जनता पर अंग्रेजों का गहरा असर रहा है। अंग्रेजियत के इस प्रभाव को हमारे फिल्म जगत ने धरोहर की तरह संजो कर रखा है और अपनी सारी जादुई छटा को इसी पाश्चात्य ढंग से वह रुपहले परदे पर पेश करता रहा है। इन्हीं रुपहले परदों ने भारतीय जनमानस को पिछले सौ बरसों से ऐसा बांध के रखा है कि कट्टरपंथी और शुद्धतावादी लोग चाहें कितना भी कसमसा लें लेकिन कोई इस बंधन से मुक्ति नहीं पा सका है। लोग हमेशा फिल्मों और अदाकारों के सम्मोहन जाल में उलझे रहे हैं। इस सम्मोहन जाल को बुनने में देव आनंद को महारत हासिल थी। सही मायनों में वे बीसवीं सदी के सबसे ज्यादा सम्मोहक व्यक्तित्व थे। उनके परवर्ती हीरो धर्मेन्द्र जिनका ’अपीलिंग पर्सनलिटी’ महिला दर्शकों को गरमाता आया है, ऐसे धर्मेन्द्र प्रभु चावला से हुई बातचीत में कहते हैं कि ’एक्टिंग के मामले में दिलीप साहब और खूबसूरती में देव साहब का कोई सानी नहीं’।

रोमांस से लबरेज देव आनंद से इस देश के नौजवानों ने बोलना, चलना, कपड़े पहनना और बाल संवारना सीखा। जूतों के डिजाइन पर ध्यान दिए, सर पर किसम किसम की टोपियॉ लगाई। बेल्ट में चौड़े और आकर्षक बकल लगाए। प्रौढ़ हो चुके लोगों ने गले की झुर्री दबाने के लिए स्कॉर्फ बांधना सीखा। स्वेटर उतारकर उसे गले में लपेटकर खड़े होने का अंदाज पाया। कस्बाई पसंद के चेक शर्ट पहने। फूल शर्ट की आस्तिन में ’कफलिन्स’ टॉके और तब कहीं जाकर लहराती आवाज में प्रेम का इजहार किया। अपने मोहक अंदाजों के कारण वे दर्शकों के सबसे बड़े आइकॉन हो गए थे।

देव साहब ने दिवंगत होने से कुछ पहले एक किताब भी लिखी ’लाइफ विद द रोमांस।’ इसका विमोचन उन्होंने राष्ट्रपति अब्दुल कलाम से करवाया था। उनकी एक फिल्म का नाम भी था ’रोमान्स रोमान्स।’ अपने अंतिम समय तक तरोताजा बने रहने वाले इस देव का दर्शन कोई इन्सान टी वी पर सबेरे सबेरे कर लेता तो दिन भर उनके गाने गुनगुनाता हुआ तरोताजा और उर्जायुक्त रह सकता था। देव हमेशा आनंद देते थे। तब के समीक्षक उन्हें फिल्मों का च्यंवर ऋषि माना करते थे। आयुर्वेद के ’च्यंवर ऋषि’ के बारे में यह माना गया है कि वे बूढ़े नहीं हुए और चिर युवा रहे, संभवतः उन्हीं के नाम से च्यवनप्राश बिकता है।

…लेकिन अंतिम रुप से भारतीय जनमानस में एक पाश्चात्य व्यक्तित्व ही उभरा। हमारे देशी पहनाव ओढ़ाव के बीच देव आनंद के अपनाए पाश्चात्य ड्रेस कोड ही हमारे रोजमर्रा की पोशाक का हिस्सा बने। उन्होंने कभी पॉवर वाला चश्मा नहीं लगाया। कह सकते हैं कि हमारे देश के नौजवानों में ’पर्सनलिटी कल्ट’ सबसे ज्यादा सदाबहार देव आनंद से आया था। पिछले दिनों एक पुरस्कार समारोह में देव साहब ने कहा था कि ’मैं फिल्मों की दुनियॉ में इसीलिए आया क्योंकि यहॉ हमेशा एक्टिव रहा जा सकता है रिटायरमेंट कभी नहीं होता। रिटायरमेंट के डर से मैंने नौकरी छोड़ी और पॉलीटिक्स में नहीं गया।’
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विनोद साव (‘दुनियां इन दिनों’ के अंक सितम्बर’२०१७ में प्रकाशित आलेख)

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