मैंने पीड़ा को रोपा
मैंने पीड़ा को रोपा
और बहुत ध्यान से देखा
उसे बढ़ते हुए
जब देखा , तो लगा
मेरे सबसे करीब जो है
वह पीड़ा ही है
रुग्ण रूप में नहीं
स्वस्थ रुप में है
एक दिन मैं सुबह उठकर
मणिकूट पर्वत के पास
बहती फिरोजी गंगा को देखती हूँ
और कुछ देर
उस शांत नदि के पास बैठती हूँ
तब जाना पीड़ा स्वाभाविक है
पीड़ा से बचने के लिए
जो धारण किए थे रत्न
उसी दिन मैंने उन्हें
प्रवाहित कर दिया
जो डर का एक
असाधारण रुप से
मुझ पर हावी था
जिसे पहना था तर्जनी में मैने
उसे त्याग दिया एक दिन
तब लगा मेरा मोह व्यर्थ है
हथेलियों में भरी रेत की तरह
जाने दो उसे जिसे पकड़ा है
मजबूत हथेलियों के बीच
कुछ नहीं बचता भ्रम के अलावा
जैसे त्वचा को उसी के सामने खुला छोड़ो
जिसके पास इलाज हो
धीरे-धीरे ही सही भरता मन
जैसे भरता है काफल मीठे रस से .
Jyoti G Sharma