महापंडित राहुल सांकृत्यायन की जीवन-यात्रा
डाॅ. कल्पना मिश्रा
सहायक प्राध्यापक
शास दू ब महिला महावि.रायपुर
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महापंडित राहुल सांकृत्यायन की आत्मकथा को जानने के पूर्व हमें अब तक लिखी गई प्रमुख आत्मकथाओं पर एक नजर डालनी चाहिए ।इनमें हरि वियोगी की मेरा जीवन-प्रवाह,हरिवंश राय बच्चन की चार भाग में छपी क्या भूलूँ क्या याद करूँ, नीड़ का निर्माण फिर,बसेरे से दूर, दशद्वार से सोपान तक है।अमृता प्रीतम की रषीदी टिकट,मैत्रेयी पुष्पा की कस्तुरी कुंडल बसै ,प्रभा खेतान की अन्या से अनन्या,मन्नू भंडारी की एक कहानी यह भी,सुशीला टांकभौरे का शिकंजे का दर्द , तथा हादसे आदि प्रमुख आत्मकथाएं हैं।
आत्मकथा का प्रयोजन अलग अलग हो सकता है ,सामान्यतः आत्मनिर्माण, व आत्मपरीक्षण ,अतीत की स्मृतियों को पुनर्जीवित करने का मोह या यूॅं कहे कि अतीत का मोह,आत्मप्रशंसा, अपने अनुगामियों को अनुभवों से लाभान्वित करना,सहानुभूति प्राप्त करना,प्रतिशोध की भाावना या अहं की तुष्टि अथवा प्रतिष्ठा प्राप्त करना हो सकता है।
राहुल जी की आत्मकथा ‘मेरी जीवन यात्रा’ में आपको उस महापण्डित के व्यक्ति- को देखने का अवसर प्राप्त होगा, जो कभी आपको साधारण यात्री की तरह गाथाएँ सुनाता मिलेगा, कभी जिज्ञासु दाशर्निक की तरह प्रश्न पर प्रश्न उठाएगा, कभी महान भाषा शास्त्री व पुरातत्व की तरह इतिहास की ओर आज की गहन समस्याओं को अत्यंत सहज भाव से आपके सामने खोलता चलेगा। यहाँ घर में पत्नी और बच्चों के साथ राहुल जी रहते हुए मिलेंगे, उनकी छोटी-से-छोटी जरूरतों और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म मनोभावना के विषय में विचार करते पाए जाएँगे तो अचानक ही वे विश्व-युद्ध की यंत्रणा, समाजवाद के सपने, हिमालय की उपत्यका, हिंदी की समस्या, विदेशी भाशाओं के महान ग्रंथों को भारतीय भाषाओं में प्रस्तुत करने की अदम्य इच्छा या अपने किसी मौलिक ग्रंथ से जुड़ जाएँगे। पढ़ते हुए लगेगा कि एक वैज्ञानिक आपको अपनी विशाल प्रयोगशाला में घुमा रहा है और वह बड़े-से-बड़े यंत्र से लेकर मामूली-से-मामूली चीज़ के विषय में आपको सहज भाव से बताता हुआ चल रहा है।
पुस्तक की विशिष्टता है भारतीय संस्कृति के प्रतीक-चरित्र की सर्वग्राह्यता व गुण-ग्राह्यता जो आज के विद्वानों में बहुत कम पाई जाती है। सारी पुस्तक में समय-समय पर अपना मत प्रस्तुत किया गया है, विपरीत विचार वालों के मतों का खण्डन भी है, पर कहीं भी, किसी भी विरोधी के प्रति हल्के शब्दों का प्रयोग नहीं है वरन उनके गुणों की प्रषंसा है। शायद ही कोई गाँधीवादी रहा हो जिसने अपने विरोधियों के विषय में इतने सहानुभूतिपूर्ण ढंग से बातें कही हों।
उन्होंने लिखा है- ‘‘विद्या और काल मिलकर लोगों को अधिक उदार बना देते हैं, मैं किसी समय वैरागी था, आर्यसमाजी हुआ, बौद्ध भिक्षु बना और बुद्ध में अपार श्रद्धा रखते हुए भी माक्र्स का विषय बन गया।’’
उनकी आत्मकथा में आपको उस महान पुरुष में गतिषील सामूहिक चेतना-प्रवाह का अनुभव होगा, जिसकी विशालता और सौंदर्य से आप अभिभूत हो जाएँगे।
राहुल सांकृत्यायन पर डाॅ. किरण ग्रोवर ने विस्तार पूर्वक लिखा है। महापंडित राहुल सांकृत्यायन की ‘मेरी जीवन यात्रा’ पाँच खण्ड में प्रकाशित आत्मकथा है। यह रचना असल में यायावर साहित्यकार की आत्मकथा है। यह उनके मधुर- कटु जीवन अनुभवों की रोचक कथा है तथा इसमें उनके संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के सहृदयतापूर्ण चित्र अंकित हैं इसमें रोचकता, यथार्थ, सत्यता व ईमानदारी है।
अपनी आत्मकथा में राहुल जी ने तटस्थ होकर ‘स्व’ का विष्लेशण किया है। वे स्वयं अपनी अव्यवहारिकता पर लिखते हैं- ‘‘अव्यावहारिकता मेरे में ही चाहिए, क्योंकि सारे जीवन मैने व्यवहार के नियमों का अनुसरण नहीं किया।’’
वे आगे लिखते हैं , ‘‘मेरी जीवन यात्रा मैंने क्यों लिखी ? मैं बराबर इसे महसूस करता रहा कि ऐसे ही रास्ते से गुज़रे हुए दूसरे मुसाफ़िर यदि अपनी जीवन-यात्रा को लिख गए होते तो मेरा बहुत लाभ होता… ज्ञान के ख्याल से नहीं, समय के परिमाण में भी। मैं मानता हूँ कि जीवन यात्राएँ बिल्कुल एक सी नहीं हो सकती तो इसमें संदेह नहीं कि सभी जीवनों को उस आंतरिक और बाह्य विष्व की तरंगों में तैरना पड़ता हैै।’’
मेरी जीवन यात्रा मे राहुल सांकृत्यायन ने बताया कि उन्होंने ईरान, रूस, लेनिनग्राद, मास्को, तिरयोकी, इंग्लैंड, भारत के कई राज्यों की यात्राएं की थी। वे लिखते हैं कि‘‘मेरी कोई यात्रा पैसे के बल पर कभी नहीं हुई।’’वे तीन-चार दिन की यात्रा बस में ही कर लेते थे।बौद्ध होने के कारण कई दफा उनके अनुसार भोजन नहीं मिलता था पर इसका उनकी यात्रा पर कोई असर नहीं पडता था।
बहुभाशी राहुल मातृभाषा में षिक्षा पर कहते हैं कि – ‘‘सोवियत के सात सालों की पढ़ाई में विद्यार्थी का विशय ज्ञान हमारे यहाँ के हाईस्कूल के बराबर होता है… इसका कारण यही है कि वहाँ सारी शिक्षा अपनी मातृभाषा में होती है। मातृभाषा अर्थात् जिस भाषा को लड़का बचपन से बोलता आया है, इसलिए विदेशी भाषा के माध्यम से पढ़ने में विद्यार्थी का जो समय उस भाषा पर अधिकार प्राप्त करने में लगता है, वह बच जाता है। इसका यह मतलब नहीं कि विदेशी भाषा वहाँ पढ़ाई नहीं जाती। हरेक रूसी लड़के को अपनी मातृभाषा के अतिरिकत यूरोप की आधुनिक तीन भाषाओं (जर्मन/फ्रेंच/इंगलिश) में से किसी एक को लेना पड़ता था।’’ उदाहरण के माध्यम से राहुल अपने विचार स्पष्टतः अभिव्यक्त कर रहे हैं।
वे आगे लिखते हैं कि ‘‘सोवियत शिक्षा प्रणाली में शिक्षा का अर्थ रटना नहीं है। हमारे यहाँ की तरह वहाँ परीक्षा संग्राम क्षेत्र का रूप नहीं लेती। वहाँ परीक्षा के लिए न प्रश्नपत्र छपते है और न हजारों मन की कापियाँ खर्च होती हैं। सभी कक्षा की परीक्षाएँ अपने ही अध्यापक लेते हैं, प्रश्न भी जबानी होते हैं।’’ इस तरह वे एक सतर्क भारतीय की तरह यात्रा विवरण देते समय भारत के साथ तुलनात्मक विष्लेशण भी प्रस्तुत करते हैं।
राहुल जी ने ‘मेरी जीवन यात्रा’ के अंतर्गत जीवन के विभिन्न रूपों शैशव, तारूण्य, प्रौढ़ावस्था के चित्रण में अपने व्यक्तित्व के विभिन्न रूपों यथा यायावर, राजनीतिक, दार्षनिक, इतिहासकार, सत्यान्वेशी, साम्यवादी आदि का सत्यता व स्पष्टता से आलेखन किया है।
अपने अल्पायु मे हुए विवाह से नाराज होकर घर छोडने वाले राहुल विद्यालंकार विहार में अध्ययन करते हुए एक सुन्दर तरूणी के प्रति अपने सहज आकर्षण कोे वर्णित करते है-’तरूण कन्या रहती थी। एकाध बार हमारी आँखें चार हुई, इसके बाद मैं देखने लगा कि जब भी मैं उधर से गुजरता था, धर्मोपदेश सुनने या पूजा करने वो विहार में आती तो मेरी ओर निस्संकोच दूसरों से दृष्टि बचाकर देखती। मेरा हृदय भी उधर आकर्षित हुआ, क्योंकि वह गोरी और सुन्दर थी। इसमें कोई शक नहीं कि कुमारी होने से उसके साथ ब्याह करने में कोई बाधा नहीं हो सकती थी, लेकिन ब्याह का नाम लेते ही मेरे रोंगटे खड़े हो जाते थे। ’
वहीं दूसरी तरफ राहुल जी ने प्रेम पात्र की आकांक्षा, आकर्षण, संस्पर्ष करने की अभिलाषा, बिछुड़न की तड़प को मास्को में उनकी सहयोगी लोला के प्रति प्रकट करके दाम्पत्य पूर्व संबंधों का मार्मिक अभिव्यंजन किया है। वे लोला के दैनिक घरेलू कार्यों में बडे प्रेम से उनका सहयोग करते थे।
कहीं अन्यत्र वे लिखते हैं दाम्पत्य पर ‘‘जीवन के हर क्षण को मधुर बनाने के लिए बहुत सी बातों की आवश्यकता होती है… मानव के पारस्परिक संबंध भी इसमें भारी कारण होते हैं।’’पुत्री प्राप्ति पर प्रसन्नता व्यक्त करते हैं कि ‘‘मेरे लिए पुत्री भी इतनी ही प्यारी थी, जितना पुत्र।’’ उन्होने बाद में भारत आकर कमला जी से विवाह किया जो उनकी मजबूरी थी क्योंकि लोला भारत नहीं आ सकी ।
प्रतिष्ठित बहुभाशाविद् और हिंदी साहित्यकार राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं कि घुमक्कड़ से बढ़कर व्यक्ति और समाज का कोई हितकारी नहीं हो सकता। काषी प्रसाद जायसवाल ने उनकी तुलना बुद्ध से की है। राहुल सांकृत्यायन ने पाँच भाषा में लिखा है-हिंदी, संस्कृत, भोजपुरी, पाली और तिब्बती।
उन्होंने कई विधा में लिखा है जैसे ‘‘आत्मकथा, जीवनी, यात्रा-वृतांत, समाजशास्त्र, इतिहास, दर्शनशास्त्र, बौद्धधर्म, व्याकरण, लोकसाहित्य, विज्ञान,फिक्षन एनाटक, निबंध, राजनीति आदि।
राहुल सांकृत्यायन के गद्य साहित्य का शैलीगत अध्ययन किया है डाॅ.गुप्तेश्वरनाथ उपाध्याय ने। वे कहते हैं कि राहुल ने रचनाओं में देशज और संस्कृत शब्दों का प्राधान्य रखते हुए भी देश-विदेश के विभिन्न बोलियों एवं भाषाओं में प्रचलित प्रयोगों को स्थान देने में अपनी उदार प्रवृत्ति का परिचय दिया है।
राहुल सांकृत्यायन रचित प्रमुख किताबें हैं-मेरी जीवन यात्रा, घुमक्कड़ शास्त्र, बहुरंगी मधुपुरी, दर्शन दिग्दर्शन, जय यौधेय, वोल्गा से गंगा, दिवोदास, जीने के लिए, सतमी के बच्चे, सिंह सेनापति, साहित्य निबंधावलि आदि। भारतीय समाज के नवजागरण में उनका महत्वपूर्ण योगदान रहा।
उनका साहित्यिक जीवन 1927 से प्रारंभ होता है और लगभग 34 वर्षों तक उनकी लेखनी निरंतर साहित्य सृजन करती रही। ध्वनियों के अंतर्गत ‘श’ के लिए ‘ष’ और ‘स’ का व्यवहार राहुल जी ने अपने साहित्य में प्रचुर मात्रा में किया है।
उन्होंने लोकोक्तियों, मुहावरों, संस्कृत सूक्तियों का बहुतायत में प्रयोग किया है। उदाहरण- ‘‘रात को खूब टांग पसारकर सोए।’’
‘‘देहातों में अब भी पाँवगाड़ी (सायकल) बहुत देखने को मिलती है।
विशेषण- ‘‘विलायत में तनख्वाह चैगुनी-पंचगुनी ठहरी।’’
‘‘पाँच सेर चिउरा दो सेर गुड़ रास्ते भर के लिए काफी था।’’
‘‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की।’’
अप्रचलित शब्दयुग्म- इनाम-उनाम, घूमते-घामते।
कहीं अन्यत्र वे लिखते हैं कि 15 अगस्त के उत्सव में अंग्रेजी पत्र की संपादिका का छछुंदरी भाषण सुनना पड़ा। ऐसे तीक्ष्ण भाषा का प्रयोग अक्सर उनके लेखन में दिखाई पडता है।
उनके व्यवहार की कुछ विशेषताएं भी हैं जैसे रूस में लोला के साथ रहते उन्होंने बर्तन तक धोए। रूस में नौकरों से साथ समान व्यवहार किया जाता है, इंग्लैंड के नौकर समय पाबंद होते हैं, उन्हें रविवार को छुट्टी मिलती थी आदि बताकर राहुल जी समव्यवहार का पुरजोर समर्थन करते हैं।
वे अपनी आत्मकथा में समय व काल के अंतर, दिन-रात के अंतर व मौसम के अंतर आदि को अलग अलग देषों के परिप्रेक्ष्य में बराबर रेखांकित करते हैं।
वो अतीत और वर्तमान को साथ लेकर चलते हैं जैसे ये बताते हैं कि लेनिनग्राद दो शताब्दियों तक रूस की राजधानी रहा तब उसका नाम पितरबुर्ग था। वे बारीकी से हर विशय पर अपनी राय रखते हैं ,एक बानगी देखिए । उनके षब्दों में ’भारत के उस्तादों के संगीत को सुनने के लिए बड़े धैर्य की आवष्यकता होती है, वही बात यहाँ के बारे में भी है। गला फाड़ना ही उच्च संगीत है, यह मानने मैं तैयार नहीं हूँ। संस्कृत में जैसे कहा गया है ‘‘गद्यं कवीनां निकशं वदन्ति’’ वैसे ही पश्चिम में ओपेरा अर्थात् पद्यमय नाटक को नाट्यकला की । चरम सीमा पर दोनों में मेरा कान पकने लगता है, परंपरा किस तरह आदमी को बेवकूफ बनाती है। ’
सार्वजनिक स्नानगृह का स्पश्ट वर्णन करते हुए वो जिस प्रकार का अटपटापन महसूस करते है वह भी उल्लेखित करते हैं। प्राकृतिक चित्रण करते हुए नेवा नदी का सुंदर वर्णन किया है उन्होंने।
भाषायी विशेषताओं पर प्रकाष डालते हुए वे लिखते हैं कि जापान, चीन, रूस आदि में ‘ट’ वर्ग नहीं है ‘त’ वर्ग से काम चलता है।ग्रीस, पुर्तगाल, स्पेन, फ्रांस, जर्मनी में भी ‘ट’ वर्गनहीं। रूसी वर्णमाला में दीर्घ स्वर के लिए अलग संकेत नहीं, ह्रस्व को इच्छानुसार पढ़ा जा सकता है- जैसे गंगा को ‘गांग’।
स्वभाव के इतने सरल थे कि 17 अगस्त रविवार को जब वे वापस भारत पहुँचे तो कामरेड राहुल का नारा लग रहा था खुष होने की बजाय वे कहते हैं कि‘‘अपने लिए प्रदर्षन मुझे पसंद नहीं है। एकान्त में चुपचाप काम करने में मुझे आनन्द होता है और प्रदर्शन में क्षोभ।’’
21 गधों में लादकर हजारों दुर्लभ निकताबें भारत लाने वाले राहुल सांकृत्यायन वास्तव में महापंडित थे जिन्होंने जीवन भर की अपनी यात्रा को अपनी आत्मकथा मेरी जीवन यात्रा में विस्तार पूर्वक बताया । शेष उनके यात्रा वृतांत
में लिखा गया है जो हिन्दी साहित्य के प्रारंभिक व श्रेष्ठ यात्रा वर्णन हैं।