मैंने कब कहा…

मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा जरुर!
अक्सर दरख़्तों के लिए
जूते सिलवा लाया
और उनके पास खड़ा रहा
वे अपनी हरियाली
अपने फूल-फूल पर इतराते
अपनी चिड़ियों में उलझे रहे
मैं आगे बढ़ गया
अपने पैरों को
उनकी तरह
जड़ों में नहीं बदल पाया
यह जानते हुए भी
कि आगे बढ़ना
निरंतर कुछ खोते जाना
और अकेले होते जाना है
मैं यहाँ तक आ गया हूँ
जहाँ दरख़्तों की लंबी छायाएं
मुझे घेरे हुए हैं
किसी साथ के
या डूबते सूरज के कारण
मुझे नहीं मालूम,
मुझे और आगे जाना है
कोई मेरे साथ चले
मैंने कब कहा,
चाहा ज़रुर
– सर्वेश्वर दयाल सक्सेना