लघुकथा : कोरोना
पारस कुंज
कोरोना-काल चल रहा था | आठ-नौ माह बाद भी इसके लिए किसी भैक्सिन का ईजाद नहीं हो पाया था | अनलॉक-लॉकडाउन के बीच ही विधानसभा चुनाव की अधिसूचना जारी हो गई |
वेबीनार एवं भर्च्वल-कॉनफ्रेंश द्वारा चुनाव सरगर्मी तेज होने लगी | विभिन्न राजनैतिक दल एवं निर्दलीयों का चुनाव-प्रचार लगभग उसी प्रकार होने लगा |
इसी दरम्यान अपने कार्यकर्ताओं के बीच राज्य के मुख्यमंत्री का भर्च्वल-कॉनफ्रेंश चल रहा था |
वो विगत पंद्रह-साला अपने शासन की उपलब्धियों को गीनाते-गीनाते 'कोरोना' से बचने का रास्ता भी बताते जा रहे थे --
" ... साथियों जबतक इस महामारी की कोई प्रमाणिक-दवा नहीं आ जाती | तबतक हमें मानव-दूरी बनाकर रखनी है | ... बार-बार हाथों को साफ करते रहना है और अपनी नाक-मुँह को हमेशा मास्क से ढके रखना है ! ... "
तभी अचानक कॉनफ्रेंश को देख-सुन रहे कार्यकर्ता के नौ वर्षीय पुत्र राहूल ने पिता से आश्चर्य व्यक्त करते पूछा -- " पापा ! पापा ! सीएम साहब किस मास्क से नाक-मुंह ढकने को कह रहे हैं ? ... वही जिसे वो खुद गले में लटकाए भाषण दे रहे हैं ? ... क्या 'कोरोना' उनके लिए ... ? "
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