पिता चले गए
कुछ ही तो दिन हुए
जब माँ चली गई थी
तब पिता के पैरों के छाले
इतने पारदर्शी पहली बार दिखे
पहले तो माँ की छाँव ही ढक लेती थी हमें
माँ के जाने के बाद
बच्चों की ज़िंदगी को मज़बूत करने में लगा
पिता जी का पसीना दिखा
माँ के जाने के बाद पिता
एक मज़बूत बड़ी दुकान लगने लगे थे
हम उसे मॉल की छोटी छोटी दुकानों में
बंटना नहीं देखना चाहते थे
इसलिए मज़बूत दुकान को
भाई ले गया था
दुकान की मज़बूती की तसल्ली थी
पर भूल गए थे हम बच्चे
कि पिता के मन का एक छोर
अपने साथ ले गयी थी माँ
पिता के मन के सूने दरीचों में
उनकी पहले वाली दहाड़ और रोबीली गूंज
उनके सुनेपन की गुमनाम गलियाँ
माँ के विछोह में पथरीली हो रही घास
और हम सब बच्चे पिता स्तम्भ का हर कोना
और लम्हा थामना चाहते रहे
मकान की टूटी खिड़कियों से उमड़ता सैलाब
रोकने समेटने की हमारी कोशिश
पिता देखते रहे, कुछ कहते नहीं थे
उनके चेहरा कभी माँ सा दिखता
कभी उनका अपना, पर बदला सा
उस मज़बूत दुकान का पलस्तर
हम झरते हुए देखते रहे
उम्र की उनकी सादी डोर पर
हर जगह माँ बूंदों और ओस सी चमकने लगी थी
पिता शांत होने लगे थे
ऊपर से कोई डोर खींच रहा था अपनी तरफ
और आज पिता भी माँ वाली बूंदों और ओस में लुप्त हो गए है
एक मज़बूत दुकान दूसरी में विलीन हो गयी है
पिता और भी पारदर्शी हो गए है
अनिता कपूर , अमेरिका से