November 21, 2024

कुछ ही तो दिन हुए
जब माँ चली गई थी
तब पिता के पैरों के छाले
इतने पारदर्शी पहली बार दिखे
पहले तो माँ की छाँव ही ढक लेती थी हमें
माँ के जाने के बाद
बच्चों की ज़िंदगी को मज़बूत करने में लगा
पिता जी का पसीना दिखा
माँ के जाने के बाद पिता
एक मज़बूत बड़ी दुकान लगने लगे थे
हम उसे मॉल की छोटी छोटी दुकानों में
बंटना नहीं देखना चाहते थे
इसलिए मज़बूत दुकान को
भाई ले गया था
दुकान की मज़बूती की तसल्ली थी
पर भूल गए थे हम बच्चे
कि पिता के मन का एक छोर
अपने साथ ले गयी थी माँ
पिता के मन के सूने दरीचों में
उनकी पहले वाली दहाड़ और रोबीली गूंज
उनके सुनेपन की गुमनाम गलियाँ
माँ के विछोह में पथरीली हो रही घास
और हम सब बच्चे पिता स्तम्भ का हर कोना
और लम्हा थामना चाहते रहे
मकान की टूटी खिड़कियों से उमड़ता सैलाब
रोकने समेटने की हमारी कोशिश
पिता देखते रहे, कुछ कहते नहीं थे
उनके चेहरा कभी माँ सा दिखता
कभी उनका अपना, पर बदला सा
उस मज़बूत दुकान का पलस्तर
हम झरते हुए देखते रहे
उम्र की उनकी सादी डोर पर
हर जगह माँ बूंदों और ओस सी चमकने लगी थी
पिता शांत होने लगे थे
ऊपर से कोई डोर खींच रहा था अपनी तरफ
और आज पिता भी माँ वाली बूंदों और ओस में लुप्त हो गए है
एक मज़बूत दुकान दूसरी में विलीन हो गयी है
पिता और भी पारदर्शी हो गए है

अनिता कपूर , अमेरिका से

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