“प्रलय और मुर्दे”
डॉ अजय पाठक
शहर की
जगमगाती रोशनी से
दामन छुड़ाती तंग बस्तियों
के मुहाने पर
अभी-अभी शब्दों की अर्थी निकली है
राम नाम की जगह
अश्लील गलियों की अनुगूँज से
कौंध गयी हैं दिशाएँ
आवारा कुत्तों की अंतहीन
बहसी भौं-भौं के कर्कश स्वर में
घुल-मिल कर
अभी-अभी तैयार हुआ है
एक जहरीला रसायन पित्त की तरह कसैला
और उतर आया है
कान से होकर कंठ तक
जिसे मैंने उचाट मन से
लील लिया है भीतर !
अभी-अभी
घुप्प अँधेरे से निकलकर
रोशनी में चले आये
एक शिष्ट चेहरे का मुखौटा
भड़भडाकर गिर पड़ा है
सड़क के बीचों-बीच
वीभत्स, भयावह और खूंखार
पिशाची दांतों में
उलझे पड़े हैं स्त्री के लम्बे केश
रक्त शिराएँ, अस्थिमज्जा और मेद के अवशेष
रक्त के थक्के दिख रहे हैं स्पष्ट
जाहिर है उसने
अभी-अभी किसी स्त्री का शिकार किया है
मुखौटा साक्ष्य सहित पड़ा है
पूरे आत्मविश्वास से
मानो कह रहा हो
“लो सालो दम हो तो करलो मेरी पड़ताल”
कुछ लोग ख़ाकी वर्दियों में
उसके इर्द-गिर्द खड़े हैं
बेबस, भावहीन, सामर्थ्यहीन, किंकर्तव्यविमूढ़
मुखौटा अट्टहास की मुद्रा में है
श्वेत धवल वर्स्त्रों में लिपटा एक लम्पट
भीड़ को चीरकर
अभी-अभी सबके समक्ष प्रकट हुआ है
वह आश्वस्त है
और मुखौटे को जानता है
उसे अच्छी तरह पहचानता है
मुखौटा उसी का गोत्रज जो ठहरा
किंतु वह रुआंसा है
उसके चेहरे पर दर्द है, टीस है, पीड़ा है यह सब उसके अभिनय की शास्वत क्रीड़ा है
दरअसल वह आदमी न होकर,
एक विषाक्त कीड़ा है
उधर प्राची में भोर के संकेत के साथ
एक वेदपाठी ऋषि
जलस्रोत के निकट आ पहुँचा है
वह गा रहा है
महां इन्द्रः परश्च नु महित्वमस्तु वज्रिणे । घौर्न प्रथिना शवः ।
हमारे इन्द्रदेव श्रेष्ठ और महान हैं
महान हैं ! महान हैं !
उसकी स्वर लहरियाँ
मलयानल की शीतल बयारों पर
सवार होकर निकल पड़ी है
अनंत यात्रा को
यही समय है
जब इंद्र अपने अंतःपुर में
मखमली बिछावन पर अधलेटे
उनींदी मुद्रा में
सोमरस का आखिरी घूंट
हलक में उतारकर
रूपसी मेनका को मजबूत भुजाओं में कस लिया है
भोर होने को है
और उधर एक कवि
नगर के छोर पर बने
श्मसान के ऊँचे टीले पर चढ़ आया है
चिंतित, व्यथित, क्रोधित, श्रापित कवि
आवेग में चिल्ला रहा है
उठो, जागो, कब तक सोते रहोगे
किंतु मरघट के निस्पृह सन्नाटे में
कवि के शब्दों की प्रतिध्वनियाँ
लौट आती है उसके कानों तक
निष्फल और व्यर्थ होकर
किंतु वह फिर चिल्लाता है
उठो कि अब सब छिन जाने को है
देखो प्रलय आने को है
किंतु कवि यह भूल गया है
कि अपना धर्म नहीं त्यागते हैं
और मुर्दे प्रलय के पहले नहीं जागते हैं