दो बीघा ज़मीन : बिमल राय(1953)
मनुष्य का धरती से प्रेम आदिम काल से रहा है। कृषक जीवन में धरती से उपजा अन्न ही उसका मुख्य आहार हुआ और जीवन का साधन बना। ‘जीवन का साधन’ मगर उपयोगितावाद तक सीमित नही रह गया; उससे स्वाभाविक प्रेम होता गया, इसलिए किसान का अपनी ज़मीन से उत्कट प्रेम होता है। ठीक है औद्योगिकरण की तीव्रता और व्यापकता के साथ किसान ने भी ‘व्यावहारिक’ दृष्टिकोण अपनाया और कई व्यवसाय की तरफ बढ़ें, और सफल भी हुए।मगर इससे कृषि की महत्ता और आवश्यकता कम नही हो जाती। जीवित रहने की प्राथमिक आवश्यकता भोजन है जो कृषि से ही प्राप्त होता है।
विज्ञान के विकास के साथ उत्पादन के तकनीकों में सुधार से औद्योगिकरण अनिवार्य तो हुआ,लेकिन इसका नियमन सार्थक ढंग से नही हुआ। अधिकांश जगह जनभावना और हितों को नजरअंदाज कर ज़मीन का अधिग्रहण किया गया। कृषिभूमि के अविवेकपूर्ण अधिग्रहण से किसान बहुत जगह बर्बाद हो गए।यह स्थिति आज भी खत्म नही हुई है।
आजादी के पूर्व और कुछ पश्चात तक सामंती-ज़मीदारी प्रथा भी हावी थी, जो किसानों का अत्यधिक शोषण करती थी। कर्ज और बेईमानी का सूद इनका मुख्य हथियार था, जिसके चंगुल से किसान मरते दम तक मुक्त नही हो पाते थे। सामाजिक लोकाचार के कई ‘मरजाद’ से बंधे किसान सर्वत्र समर्पण न करते थे, वरन संघर्ष भी करते थे। साहित्य में इस द्वंद्व और संघर्ष की झलक मिलती है। प्रेमचंद के ‘रंगभूमि’ में इसका स्पष्ट चित्रण हैं, वहीं ‘गोदान’ में भी ज़मीन बचा लेने की छटपटाहट है।
फिल्मों में इसका कितना चित्रण है, अपने अध्ययन और जानकारी के सीमा के कारण हमे ज्ञात नही है। मगर विमल राय की 1953 में प्रदर्शित ‘दो बीघा ज़मीन’ इस विषय पर काफी चर्चित और लोकप्रिय फ़िल्म है।अकारण नही कि यह फ़िल्म अपने समय के बड़े पुरस्कार प्राप्त किए थे।
फ़िल्म की कहानी में एक ग़रीब किसान ‘शम्भू’ द्वारा अपने दो बीघा ज़मीन को बचाने की जद्दोजहद है, जिसे वह अंततः नही बचा पाता। गांव की ज़मीन में फैक्ट्री खोलने के लिए शम्भू महतो की दो बीघा ज़मीन जरूरी है, लेकिन वह अपनी व दूसरे किसानो की ज़मीन को बचाने के लिए उसे बेचने से इंकार कर देता है। लेकिन प्रभू वर्ग के पास दूसरे रास्तें भी हैं। वह ज़मीदार का कर्जदार है। शम्भू पत्नी के गहने बेचकर ब्याज सहित 65 रुपये अदा करना चाहता है मगर ज़मीदार के बहीखाते में वह 235 रुपये हैं। मामला कोर्ट में जाता है; उसे कर्ज पटाने तीन महीने की मोहलत मिलती है।
शम्भू गांव में उतनी रकम जुटा नही सकता था, इसलिए कुछ करने कलकत्ता जाता है। नाटकीय रूप से उसका बेटा भी साथ चला जाता है। एक ग्रमीण की पहली बार महानगर में पहुंचने की प्रारम्भिक कठिनाइयों के बाद उसे एक मजदूर बस्ती में कम किराये पर रहने को ठीहा मिल जाता है,जिसकी मालकिन दयालु है। वहां उसी तरह और मजदूर भी रहते हैं।अंततः वह हाथ से खिंचने वाले रिक्शा चलाने लगता है। वह जी जान से काम करता है। कभी बाप बेटे भूखें भी रहते हैं, मगर इस काम से पर्याप्त पैसे नही मिल पातें।
हालात अमूमन मजदूर-कृषक वर्ग के बच्चों को जीवन के वास्तविकता से जल्दी परिचित करा देते हैं। शम्भू का 8-10 का बेटा भी पिता के सहयोग के लिए बूट पालिश का काम करने लगता है।फिल्मकार ने बच्चे की भूमिका को पर्याप्त महत्व दिया है और नाटकीय परिस्थितियां सृजित किया है।वह अपने सहज बालवृत्ति को दबा देता है। जब वह पहली बार पिता को बिना बताये बूट पालिश कर पिता के सामने पैसे लाता है तो वह चोरी समझकर एक थप्पड़ मार देता है। मगर जब वास्तविकता से परिचित होता है तो प्रेम, शर्म और ग्लानि से उसे गले लगा लेता है।
शम्भू पैसे कमाने के लिए अधिक से अधिक काम करने का प्रयास करता है। इस क्रम में दो युवा प्रेमियों द्वारा एक दूसरे से आगे निकल जाने की होड़ में शम्भू घायल हो जाता है। प्रेमिका एक हाथ रिक्शे में बैठकर आगे-आगे चलती है, उसका प्रेमी जो पीछे शम्भू के रिक्शे में बैठे रहता है ,को पीछा करने उकसाती है। प्रेमी शम्भू को तेज दौड़ने कहता है उसकी ‘कीमत’ बढ़ाते जाता है, एक रुपये, दो रुपये, तीन रुपये, शम्भू इस अतिरिक्त लाभ की चाह में(जो उसकी मजबूरी है) अपनी रफ्तार लगातर बढ़ाते जाता है, और अंततः पछाड़ खाकर गिर जाता है। यह दृष्य मार्मिक है, यहां इंसान केवल सामान सा रह जाता है। उन दोनो प्रेमियों(अभिजात वर्ग) के लिए रिक्शा चालक इंसान नही सामान भर हैं, जिनकी कुछ कीमत है। उनके इस ‘प्रेम खिलवाड़’ में जैसे रिक्शा चालक कहीं हैं ही नही। वे सहज ढंग से अपना खेल खेलते हैं।
शम्भू के ज़ख्मी हो जाने से स्थिति में तनाव आ जाता है।वह बेबस हो जाता है। छटपटाता है। मोहलत की तिथि करीब आने पर वह जबरदस्ती रिक्शा चलाने उठता है, मगर खड़ा नही हो पाता गिर जाता है। इधर उसका बेटा बिना कुछ खर्च किए अधिक कमाने की कोशिश करता है। इस उपक्रम में उसका बूट पालिश बॉक्स गाड़ी के नीचे दबकर नष्ट हो जाता है। वह असमंजस में पिता के दुःख सहन न करके पाकेटमार लड़के का साथ देकर पैसे और फल लेकर घर आता है। शम्भू को जब पता चलता है कि चोरी के पैसे हैं तो आहत होकर बच्चे को पिटता है। उस समय उसका डायलॉग मार्मिक है “किसान का बेटा होकर चोरी करता है”।
इधर गांव में शम्भू की पत्नी पारो अपने वृद्ध बीमार ससुर के साथ जैसे तैसे दिन काटते रहती है। उसकी अपनी समस्याएं है। ज़मीदार के मुनीम के कुदृष्टि से बचती है। निर्वाह में दिक्कत आने पर मजदूरी करती है। जब पता चलता है कि शम्भू घायल है तो जैसे तैसे अंततःअकेले कलकत्ता के लिए शम्भू द्वारा भेजे गये पैसे को रखकर निकलती है।
फ़िल्म के क्लाइमैक्स में शम्भू बीमार अवस्था में ही काम के लिए रिक्शा लेकर निकलता है। उसका बेटा बाप की सहायता के लिए अंततः चोरी करने निकलता है। उसकी पत्नी कलकत्ता में पता पूछते-पूछते एक शराबी के चाल में फंस जाती है। स्थिति समझने पर वहां से भागने के क्रम में मोटर के नीचे आकर घायल हो जाती है। राहगीर अस्पताल ले जाने के लिए रिक्शा बुलाते हैं। संयोग से वह शम्भू होता है। पत्नी को इस स्थिति में देखकर पछाड़ खा जाता है। जैसे तैसे अस्पताल पहुंचते हैं। इधर उनका बेटा चोरी से पैसे इकट्ठा कर घर आता है तो उसे अस्पताल ले जाया जाता है। जहां उसके माता-पिता हैं। वह अपराधबोध से ग्रसित हो जाता है, उसे लगता है कि उसकी चोरी के कारण ही माँ घायल हुई है। वह पैसे फाड़ देता है। अंततः उसकी माँ के आँचल में जो पैसे थे उसको मिलाकर उसकी जान बचती है, मगर उधर मियाद खत्म होने से ज़मीन की नीलामी हो जाती है और वहां फैक्ट्री बन जाता है।वहां शम्भू के पिता को पागल दिखाया जाता है। उसका एक डायलॉग “नीलाम करोगे, जरूर नीलम करो, वैसे भी यह घर छोटा था,अब सारी पृथ्वी हमारा घर है” श्रमिक वर्ग के विडम्बना को दिखाता है।
शम्भू अपने पत्नी और बच्चे के साथ जब गांव पहुंचता है तो उसके खेत के स्थान पर फैक्ट्री के चिमनी से धुआं निकलते रहता है। वह ख़ामोश देखता रह जाता है। अंततः वह अपनी ज़मीन से एक मुट्ठी मिट्टी उठाना चाहता है तो फैक्ट्री का चौकीदार शक मे उसकी मुट्ठी खोलकर देखता है, और मिट्टी झर जाती है। फिर शुम्भू पत्नी और बच्चे के साथ वहां से दूर जाता दिखाई देता है, फ़िल्म समाप्त हो जाती है।
इस तरह फ़िल्म एक किसान द्वारा अपनी ज़मीन को न बचा सकने की विडम्बना से खत्म हो जाती है। 1953 की स्थिति से आज हम मुक्त हो गए हैं, ऐसा नही कहा जा सकता। आज भी अविवेकपूर्ण भूमि अधिग्रहण एक समस्या है। किसानों की ख़राब आर्थिक स्थिति भी एक बड़ी समस्या है।ऐसी फिल्में हमें मानवीय सरोकारों से जोड़ती हैं।हमे संवेदनशील बनाती हैं, इसलिए अपनी प्रासंगिकता बनाए रखती हैं।
कहा जाता है कि इस फ़िल्म का शीर्षक रविन्द्र नाथ टैगोर की एक कविता ‘दुई बीघा जोमी’ से लिया गया है।यह भी चर्चित है कि बलराज साहनी(शम्भू) इस भूमिका को समझने के लिए वास्तविक रूप से भेष बदलकर रिक्शा चलाते थे और रिक्शा चालकों से बात करते थे। अन्य कलाकारों में पारो (निरुपमा राय) और उसके बेटे के रूप में बाल कलाकार की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक सलिल बिमल राय हैं। संगीत सलिल चौधरी तथा गीत शैलेन्द्र के हैं।
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अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छ.ग.)
मो. 9893728320