मेरी प्रिय कहानियां : मोहन राकेश
(एक प्रतिक्रिया)
कहानी के विकास क्रम में ‘नयी कहानी’ एक महत्त्वपूर्ण मोड़ है.आज़ादी के बाद के व्यापक मोहभंग, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, व्यवस्था के औपनिवेशिक चरित्र का बरकरार रहना, नगरीकरण और औद्योगिकरण, नये उभरे मध्यमवर्ग का अंतर्द्वंद्व जिसमे पारिवारिक विघटन, एकाकीपन, पारंपरिक नैतिक बंधनो का टूटना, व्यक्तिक स्वतंत्रता, संबंधों में उपयोगितावादी दृष्टिकोण आदि को कथाकारों ने अपनी कहानियों में बखूबी चित्रित किया; हालांकि ये परिस्थितियां आज़ादी से कुछ पहले बननी शुरू हो गयी थी. ये समस्याएं जरूर नगरीय जीवन की अधिक रही हैं मगर लगातार परिवर्तित हो रहे गांवों और कस्बों में ये विडम्बनाएं चरितार्थ होती रही हैं. हमारे यहां विकास की असमानता इतनी अधिक रही है कि जो नागरबोध इन कहानियों में पचास के दशक में थी, कुछ क्षेत्रों में नब्बे के दशक तक सहज नही थी.दूसरी बात सम्वेदनाएँ समय के सीमाओं को पार कर जाती हैं, इसलिए ये कहानियां अपने तमाम वर्गीय और कालगत सीमाओं के बावजूद हमें प्रभावित करती हैं.
नयी कहानी के हस्ताक्षरों में मोहन राकेश का विशिष्ट स्थान है.उन्होंने कहानी को कथा और शैली दोनों ही दृष्टि से नयी दिशा दी. प्रस्तुत संग्रह ‘मेरी प्रिय कहानियां’ में उनके ही द्वारा चयनित नौ कहानियां संकलित है.इसमें उन्होंने संक्षिप्त भूमिका भी लिखी है, जिसमे उन्होंने जीवन के जद्दोजहद तथा तत्कालीन दौर की मानसिक स्थितियों का जिक्र किया है जिससे उनके कहानियों की पृष्ठभूमि और उनके क्रमिक परिवर्तन को समझने में मदद मिलती है. इसमें उनकी कुछ चर्चित कहानियां संकलित नही है, जिसका कारण लेखक के अनुसार “इससे अधिक कुछ नहीं कि वे कहानियां आज मेरे समर्थन की अपेक्षा नही रखतीं”. संकलित कहानियों के चुनाव का कारण लेखक के अनुसार ” चुनाव करने में मेरी एक दृष्टि अवश्य रही है कि संग्रह की कहानियां मेरी आज की कथायात्रा के प्रायः सभी पड़ावों का प्रतिनिधित्व कर सके”.
संग्रह की पहली कहानी ‘ ग्लास टैंक’ में सुभाष के माध्यम से नगरीय जीवन की अनिश्चितता, बेरोजगारी, वैवाहिक संबंधों की असफलता जो मुख्यतः व्यक्तित्व की भिन्नता के कारण पैदा होती है, को चित्रित किया गया है. व्यक्तित्व की भिन्नता अपने आप मे समस्या नहीं, समस्या दूसरे के व्यक्तित्व की भिन्नता को स्वीकार नहीं कर पाने की है, इस कारण सम्बन्धो में तनाव और बिखराव होता है. विडम्बना यह भी है कि जो हमारे जैसा नहीं होता उसे विचलित मान लिया जाता है. कहानी में कथावाचक नायिका संवेदनशील है, जिसका सुभाष के प्रति लगाव पूरी कहानी में परिलक्षित होता है.
दूसरी कहानी ‘जंगला’ ग्रामीण पृष्टभूमि की है.ग्रामीण क्षेत्रों में सामंती दौर के जाति-बिरादरी के मूल्य अधिक प्रभावी रहे हैं. ये मूल्य आज भी प्रभावी हैं तो पचास साल पहले की कल्पना की जा सकती है . कहानी में फुलकौर और उसके पति भगत के मानसिक द्वंद्व का चित्रण है. उनके बेटे बिशना ने गैर जाति के लड़की से शादी कर ली है जिसके कारण उसे घर छोड़कर जाना पड़ा है. भगत और फुलकौर अपने बेटे से प्रेम करते हैं, उसके बिना घर सुना है, मगर वह न रहकर भी घर मे हर जगह है. माता-पिता के प्रेम और सामाजिक मूल्य जनित संस्कारबोध का द्वंद्व सार्थक ढंग से व्यक्त हुआ है. कथाकार का चित्रण इतना सटीक है कि परिवेश भी अनकही बातें कह देता है.
तीसरी कहानी ‘मंदी’ में एक पर्वतीय पर्यटन क्षेत्र में मंदी के असर का चित्रण है.चूंकि यहां की अर्थव्यस्था पर्यटन के लिए आये सैलानियों पर निर्भर है, इसलिए जब वहां लोगों का आना कम हो जाता है तो वहां का जीवन लड़खड़ा जाता है. अभाव लोगों में ‘चालाकियां’ भी पैदा कर देती है जो स्वार्थवश नही मजबूरीवश होती है.
चौथी कहानी ‘ परमात्मा का कुत्ता’ शासकीय कार्यालयों में व्याप्त भ्रष्टाचार और असंवेदनशीलता को उजागर करती है.कैसे एक आम-आदमी सालों-साल कार्यालयों की चक्कर काटता है, मगर आश्वासन के सिवा उसे कुछ नहीं मिलता. हर जगह बस ‘फ़ाइल चलने’ की बात कही जाती है. ऐसे में एक ग़रीब किसान कमिश्नर के ध्यानाकर्षण के लिए एक नया रास्ता अपनाता है और सपरिवार धरने पर बैठकर शोर-शराबा करता है, उटपटांग हरकत करता है, फक्कड़पन की हेठी दिखाता है, मार खाता है और अंत मे निर्वस्त्र होने की कोशिश करता है तब कहीं जाकर उसकी मांग पूरी होती है.यानी ‘निर्लज्जता’ ही विकल्प रह जाता है. मगर विडम्बना यह कि आज किसान मल-मूत्र खा-पीकर प्रदर्शन कर रहें हैं मगर उनकी मांग पूरी नही हो रही.
पांचवी कहानी ‘अपरिचित’ में दो अपरिचित ट्रेन में मिलते हैं. दोनों अपरिचित होकर भी परिचित से लगते हैं. दोनों की संवेदनात्मक अनुभूति के तार जुड़ते हैं, दोनों की समस्याएं एक जैसी है, वैवाहिक जीवन की असफलता. कारण वही व्यक्तित्व की भिन्नता से सामंजस्य नहीं बिठा पाना. एक दूसरे से वह चाहना जो वास्तव में वह नही है. सामंती जीवन मूल्य में स्त्री की इच्छा का महत्त्व नहीं होता;यह कमोवेश स्त्री को भी ‘स्वीकार्य ‘था. आधुनिक दौर में इस ‘मूल्य’ का क्षरण हुआ,स्त्री जागरूक हुई, पर पुरुषवाद पूरी तरह खत्म नहीं होने से द्वंद्व पैदा हुआ. मगर द्वंद्व स्त्री तक ही न रहा, ‘इक दूसरे को न समझ पाने’ की इस पीड़ा से पुरुष भी प्रभावित हुआ. यह द्वंद्व आज भी है और सम्भवतः तब तक रहेगा जब तक वैवाहिक सम्बन्ध वास्तव में मित्रता के सम्बंध में न बदल जाए।
छठी कहानी ‘एक ठहरा हुआ चाकू’ में एक पेशेवर अपराधी के आतंक और आम-आदमी के निरीहता का चित्रण है.व्यवस्था का हाल यह है कि सब अपराधी को जानते हैं मगर बिल्ली के गले मे घण्टी कौन बांधे? ऐसे में आम-आदमी ही बलि का बकरा बनता है.सब उसकी ‘मदद’ इस ढंग से करते हैं कि सामने दिखाई न दें.
सातवी कहानी ‘वारिस’ में मार्मिकता अधिक है मगर विडम्बना के साथ. ‘मास्टरजी’ वृद्धावस्था को प्राप्त ऐसे व्यक्ति हैं जिनके आगे-पीछे कोई नहीं है.जीवन के आवश्यकताओं की पूर्ति का कोई साधन नहीं है, सिवा ज्ञान के,उस पर खुद्दारी भी. कथावाचक और उसकी बहन उसके छात्र हैं. मास्टर जी जिस आदर्श में जिये हैं,या चाहते हैं, उसका समाज मे क्षरण हो रहा है. कथावाचक और उसकी बहन अभी बच्चे हैं, इस लिए वे मास्टर जी की बातों को पूरी तरह नहीं समझ पातें. मास्टर जी यह बात जानते हैं, मगर उनका बच्चों से गहरा लगाव होते जाता है.एक तरह से उनका एकाकीपन बच्चों के सहारे कटते जाता है. मगर विडम्बना! परीक्षा के बाद ट्यूशन को खत्म होना ही था. मास्टर जी के अंदर कुछ टूटता है.उनका लगाव चाहे कितना भी हो,यह सम्बन्ध ‘व्यवसायिक’ ही था. वे जाते वक्त अपना फाउंटेन पेन बच्चों को सौप जाते हैं. कुछ दिन बाद वह पेन टूट जाता है.पेन का टूटना उस मूल्य का टूटना भी है जो वह चाहते हैं. यह बदलते वक्त की विडम्बना है कि उस मूल्य का वारिस कोई नहीं है.
आठवी कहानी ‘पांचवे माले का फ्लैट’ में भी वही बेरोजगारी की जिंदगी, प्रेम में असफलता, सुविधाओ का अभाव, एकाकीपन का एहसास, जैसी भावबोध है.
अंतिम कहानी ‘ज़ख्म’ का ‘नायक’ जो कथावाचक का दोस्त है, भी वही बेरोजगारी, एकाकीपन का जीवन जी रहा है. उसके व्यक्तित्व के विशिष्टता को समाज के लोग समझ नहीं पातें इसलिए वह सबके बीच भी ‘अकेला’ है. उसका ज़ख्म वस्तुतः समाज मे ‘खप’ नही पाने से पैदा हुआ है.उसके अंदर एक अजीब सी अराजकता है जिसका कारण बेरोजगारी नही वह ख़ुद है. ख़ुद को हमेशा पीड़ित महसूस करना उसके ‘त्रासदी’ की वजह है.
इस तरह इन कहानियों में भावबोध की एकरसता है जो कहीं-कहीं कृत्रिम प्रतीत होने लगता है. नामवर जी ने ‘कहानी: नयी कहानी’ में मोहन राकेश जी के कहानियों के इस पक्ष पर टिप्पणी की है, “हम परदेश में हैं, पराये लोगों के बीच हैं, ‘अपने’ लोगों से मुक्त हैं, यहां हमारे बारे में कोई कुछ नहीं जानता, आदि बातें मन की स्थिति को सहज नहीं रहने देती.इस तरह की कहानियों की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि ये दर्शक का सत्य हैं, द्रष्टा का सत्य नहीं”. हालाकिं राकेश जी का कहना है ” यह अकेलापन समाज से कटकर व्यक्ति का अकेलापन नहीं, समाज के बीच होने का अकेलापन है और उसकी परिणीति भी किसी तरह के सिनिसिज्म में नही झेलने की निष्ठा में है”. कुल मिलाकर ये कहानियां अपने दौर के द्वंद्व को दिखाती हैं, खासकर मध्यमवर्ग का.
——————————————————————–
[2017]
#अजय चन्द्रवंशी
कवर्धा(छ. ग.)
मो. 9893728320