हम भी कितने भोले हैं
फँस गए हमेशा ही, शानदार चालों में
आह दब गई अपनी, कागजी बवालों में।
हम भी कितने भोले हैं, कुछ समझ न पाते हैं
कैद हो रहे खुद ही, पाँच पाँच सालों में।
प्रश्न एक रोटी का, जब कभी उठाया है
अपने को घिरा पाया, बेतुके सवालों में।
राजपाट उनका है, मीडिया उन्हीं का है
पाँच साल के राजा, मस्त हैं हवालों में।
क्या मिला गरीबों को, क्या कभी ये सोचा है
लाइए कभी इनको, रेशमी उजालों में।
– अरुण कुमार निगम