November 21, 2024

दूर देश की धरती पर-2

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नाइजर स्टेट की ओर…

अगली सुबह 5:00 बजे हम चारों तैयार थे। वही ड्राइवर ठीक समय पर हमें लेने आ गया। यह एक लंबी गाड़ी थी। भोपाल में मैंने इतनी लंबी गाड़ी कभी नहीं देखी थी। पिताजी को बस इतना पता था कि यह किसी सरकारी विभाग की गाड़ी है लेकिन यह नहीं पता था कि यह है कौन। हम सब सामान गाड़ी में रखकर पिछली सीट पर बैठ गए। ड्राइवर गाड़ी को एक बंगले में ले गया। वहां से एक लंबी सी दोनाली बंदूक लिए एक लंबा तगड़ा निग्रो व्यक्ति वहां की पारंपरिक पोशाक पहने आया और पिताजी का अभिवादन कर ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठ गया। नाइजीरियन लोग यूं ही भारतीय लोगों से डील डौल में अधिक ही होते हैं उस पर सामने डैशबोर्ड पर रखी बंदूक उस अनजान देश में हमें डराने के लिए काफी थी। हम चारों चुपचाप ईश्वर से प्रार्थना करते हुए बैठे रहे।

जैसे ही उजाला हुआ और हम हाईवे पर पहुंचे सड़क के दोनों तरफ का दृश्य देखकर डर दोगुना हो गया। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर एक्सीडेंट हुई टूटी-फूटी जली- अधजलि कारें और अन्य वाहन पड़े थे। तेल, डीजल, पेट्रोल के टैंकर पड़े थे। जाने कितने बड़े भैया गर्दनें आड़ी तिरछी करके औंधे पड़े थे। कुछ के तो धड़ जमीन पर और आगे का हिस्सा अर्थात गर्दन हवा में लटकी हुई थी। हम ये सब देखकर ईश्वर से सकुशल यात्रा की प्रार्थना करने लगे। वहां का लगभग पूरा परिवहन ही सड़क मार्ग से होता था तथा गाड़ियों की रिपेयरिंग से कम लागत में तो नई गाड़ी आ जाती थी अतः वहां एक्सीडेंट के बाद यदि गाड़ी अधिक ही डैमेज हो गई हो तो उसे सड़क से हटाकर एक और करके वहीं छोड़ दिया जाता था। लेकिन हम सबके दिल यह सब देखकर डर से विचलित हो रहे थे।

कुछ घंटे की यात्रा के पश्चात हम एक गांव में पहुंचे। वहाँ वह व्यक्ति उतरा तो अनेक लोगों ने उनका अभिवादन किया। वहां के पारंपरिक अभिवादन में व्यक्ति घुटनों के बल बैठकर सन्नू कहता और प्रत्युत्तर में सामने वाला भी घुटनों के बल झुककर सन्नू कहता। फिर चाहे सड़क का किनारा हो, ऑफिस हो, होटल हो। इस व्यक्ति को भी गांव के अनेक लोगों ने धूल भरे सड़क किनारे ही अभिवादन किया और बेहिचक वह व्यक्ति भी अत्यंत विनम्रता से अभिवादन का उत्तर देने के लिए घुटनों के बल बैठ जाता, बिना अपने कीमती कपड़ों की परवाह किए। उनकी पारम्परिक पोशाक में लगभग छह इंच ऊँची गोल टोपी और पजामे पर टखनों तक लम्बा कफ्तान सा पहना जाता। जितना अमीर व्यक्ति उतने ही कीमती कपड़े का कफ्तान।
अचानक पिताजी ने देखा उनकी सीट पर कुछ फाइलें रखी थी। पिताजी ने झांक कर उनका नाम पढा। वह नाइजीरिया पब्लिक सर्विस कमिशन के चेयरमैन थे श्री बगाड़ू शेटिमा। अब तक हम सब बेहद डरे हुए थे लेकिन अब उनका परिचय पाकर और यह देखकर कि इतने बड़े पद पर आसीन होने के बाद भी, इतना बड़ा अधिकारी होने के बाद भी वह कितनी सहजता से धूल में बैठकर परंपराओं का पालन कर रहे थे, चाहे सामने वाला व्यक्ति अमीर हो चाहे गरीब। उनकी सरलता और विनम्रता देखकर मन भय के स्थान पर आदर से भर गया। पिताजी ने बंदूक के बारे में पूछा तो ड्राइवर ने अपनी टूटी-फूटी अंग्रेजी में बताया कि रात में हो सकता है कि कभी सुनसान सड़क पर लुटेरे गाड़ी रुकवाने की कोशिश करें इसलिए वे बंदूक साथ रखते हैं। इसके बाद शेष सफर बड़ी निश्चिंत से कटा।
रास्ते में नाश्ता, खाना सबका उन्होंने बराबर ध्यान रखा। बाद में उन्होंने बताया कि वह पिताजी की शैक्षणिक योग्यता तथा बुद्धिमत्ता से बहुत प्रभावित हैं। वे नाइजर स्टेट के बीड़ा नामक शहर के मूल निवासी थे। वे किसी काम से वहाँ जा ही रहे थे तो उन्होंने हमें भी नाइजर स्टेट की राजधानी तक पहुँचाने का जिम्मा ले लिया।
वे पहले हमें बीड़ा ले गए। उस दिन का सूर्योदय और सूर्यास्त दोनों ही कार में हुआ। श्री बगाड़ू शेटिमा ने हमें बीड़ा के सर्किट हाउस में छोड़ा और अपने घर चले गए। दूसरे दिन सुबह पुनः हम उनके साथ बीड़ा से निकले और नाइजर स्टेट की राजधानी मीना पहुंचे। वहां उन्होंने हमें स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन के चेयरमैन के हवाले कर दिया। नाइजीरिया प्रवास के दौरान श्री बगाड़ू शेटिमा जी का बस इतना ही संपर्क था हमारे साथ लेकिन वह छोटा सा संपर्क भी इतना रोमांचक था कि सदा के लिए स्मृतियों में जीवंत रहा।

मिनिस्ट्री में पिताजी ने मां के साथ हम दोनों को सामान सहित एक पेड़ की छांव में बिठा दिया और अपने कागजात लेकर अंदर चले गए। नाइजीरिया भारत की अपेक्षा गर्म देश है। फरवरी माह में भी वहां खासी गर्मी थी। पिताजी को काफी देर लग गई वहां। बाहर हम भूख प्यास से परेशान हो गए थे। तभी वहां से गुजरती एक कार हमारे पास रुकी और भीतर वाले व्यक्ति ने मां से हिंदी में बात की। यह डॉक्टर बेग और उनकी पत्नी थी। उन्होंने हम लोगों को का हालचाल पूछा, कहां से आए हैं, औपचारिक बातचीत के बाद हमें पानी पिलाया और बिस्किट आदि दिए। कुछ ही देर में पिताजी आ गए। वहां का एक ड्राइवर अब हमें एक गेस्ट हाउस ‘वाचिको गेस्ट इन’ में ले गया हमें वहां पर एक कमरा दिया गया।

वाचिको गेस्ट इन…

कमरे में सामान रखकर माँ ने हमारे हाथ-मुँह धुलवाए। हमें खासी भूख लगी थी। आते हुए पिताजी ने ब्रेड, बटर, दूध पाउडर, चीनी, चायपत्ती आदि सामान ले लिया था। वहां कमरों के पीछे तरफ एक बड़ा सा रसोईघर था जिसमें प्लेटफार्म पर कई सारे गैस चूल्हे रखे हुए थे। एक अटेंडेंट ने मां को बताया कि वह वहां खाना बना सकती हैं। मां भारत से कुछ आवश्यक बर्तन ले गई थी। मां ने उस रसोई घर में जाकर एक गैस चूल्हे पर चाय बनाई और हम सब ने चाय ब्रेड से पेट भरा। कुछ समय बाद जब दोबारा वहां गए तो देखा एक लंबी सी गोरी औरत सिलेंडर से रेगुलेटर निकाल कर ले जा रही है। बाद में पता चला वह खान आंटी थी जो खान अंकल और अपने तीन बच्चों के साथ वहां पिछले एक महीने से रह रही थी और वह सिलेंडर गेस्ट हाउस का नहीं उनका व्यक्तिगत था। मां को तो यह बात पता नहीं थी बाद में माँ ने हमेशा गेस्ट हाउस के सिलेंडर का ही उपयोग किया।

वाचिको गेस्ट इन में हम लगभग एक महीना रहे। मां ने एक स्टोव खरीद लिया और आवश्यक वस्तुओं के साथ कमरे में ही छोटी सी गृहस्थी बस गई। पिताजी टैक्सी से बाजार गए। वहां एक सुपर मार्केट के समान दुकान थी “चिटाको” वहां से पिताजी दो दिनों के लिए आठ ब्रेड, पाउडर का दूध जो नेस्टले कंपनी का वहां नीडो नाम से मिलता था जिसके आधा किलो से लेकर 5 किलो तक के टीन के डब्बे मिलते थे। रवा मैदा सेमोलिना और सेमोविटा नाम से मिलते थे। चावल भी मिल गया लेकिन आटा नहीं मिला। आटा मिला 10-15 दिन बाद बीड़ा से जब एक महाराष्ट्रीयन अंकल आए कुरेकर, उन्होंने दिया। तब लगभग एक महीने बाद हमने रोटी खाई।

वहां खान अंकल के अलावा श्रीनिवासन अंकल, शेट्टी अंकल तथा डॉक्टर मानिक अंकल भी थे। खान अंकल के तीन बच्चे थे शफाद, बेबी और गुड्डू। गुड्डू तो छोटी थी लेकिन शफाद (बबलू) और बेबी हमारे साथ खेलते।

वाचिको गेस्ट इन के आसपास बहुत सी टर्की मुर्गियां थी। सर पर और गले के नीचे लटकती बड़ी सी लाल दानेदार कलगी वाली बड़ी-बड़ी टर्की मुर्गियां मैंने पहली ही बार देखी थी। दिन भर वे अपने भरे-पूरे परिवार के साथ आसपास घूमती रहती। साथ ही साधारण मुर्गियों का बड़ा सा कुनबा भी था जिनमें रंग बिरंगा कलगीदार मुर्गा, मुर्गियाँ और ढेर सारे पीले बहुत ही प्यारे चूजे थे जो पंक्तिबद्ध अपनी मां के आगे पीछे घूमते रहते। मुर्गी का यह कुनबा गेस्ट हाउस के आसपास दिनभर कुड़कुड़, पकपक, चूंचूं करता दाने चुगता घूमता रहता। वहां के मुर्गा मुर्गी भी खासे तंदुरुस्त और रुआबदार थे। मुझे उनके चूजे बड़े प्यारे लगते लेकिन मैं मुर्गी के डर से उन्हें दूर से ही देखती रहती। एक दिन एक चूजा मुझे अकेला दिख गया। मुर्गी आसपास कहीं दिखी नहीं तो मैंने बड़े प्यार से उस चूजे को हाथ में उठा लिया। अभी उसे प्यार से सहला भी नहीं पाई थी कि अचानक पता नहीं किस झाड़ी के पीछे से उसकी मां गुस्से में चोच कुटकुटाते हुए और पंख फुलाते हुए प्रकट हुई और मेरे हाथ पर बैठ गई। मैंने डर के मारे चूजे को वहीं छोड़ दिया और भाग कर अपनी मां के पास आ गई। उसके बाद मैंने कभी चूजों को हाथ लगाने की हिम्मत नहीं की।

एक बार पिताजी योगर्ट लाए। वहां के योगर्ट का स्वाद मुझे बहुत पसंद था। फ्रूटी जैसे 200ml के पेक में अक्सर योगर्ट दुकानों पर या पेट्रोल पंप पर फुटकर सामान भेजने वालों के पास मिल जाता। बहुत सारी चीजें थी जो मैंने वही जाकर पहली बार देखी थी जैसे कोका कोला, फेंटा की बड़ी-बड़ी 500ml वाली कांच की बोतलें। मुझे फेंटा और कोकाकोला बेहद पसंद था और पिताजी अक्सर मेरे लिए एक पूरा क्रैट ले आते थे।

वहां गेस्ट हाउस के सामने की सड़क से गुजरने वाली बड़ी-बड़ी आलीशान विदेशी गाड़ियां भैया के विशेष आकर्षण का केंद्र थी। जल्दी ही उन्होंने सभी कारों को पहचानना सीख लिया। तब वहाँ विदेशों से ही सारी चीजें आयात की जाती थीं।

शाम को पिताजी के साथ सभी अंकल लोग बाहर कंपाउंड में बैठकर गप्पे मारते। सड़क के उस पार जफारू गेस्ट इन था जिनके पास खुद का रेस्टोरेंट भी था। वहां के लोगों को खुद खाना नहीं बनाना पड़ता था लेकिन वाचिको में रेस्टोरेंट नहीं था। धीरे-धीरे यहां भी हमारे साथ के सभी लोगों को पोस्टिंग मिलती गई और वह चले गए। अंत में पिताजी ही रह गए। हमें नाइजीरिया आए डेढ़ महीना हो गया था अब होटल के एक कमरे में रहते हुए हम उकता चुके थे। पिताजी हर दूसरे दिन मिनिस्ट्री में जाते और पोस्टिंग का पूछते लेकिन बगाड़ू शेटिमा जी मिनिस्ट्री में कह गए थे कि इस व्यक्ति को अच्छी जगह बहुत अच्छा घर पता करके ही पोस्टिंग देना इसलिए स्टेट पब्लिक कमिशन के अधिकारी अच्छे स्थान की तलाश में थे जहां बहुत अच्छा मकान हो।

डोको की ओर-

पिताजी बहुत कर्मठ और कर्तव्यनिष्ठ है। यूँ खाली बैठना उन्हें कभी भी सुहाता नहीं था। आखिर एक दिन उन्होंने मिनिस्ट्री में जाकर अधिकारियों से कहा कि या तो आप लोग मुझे किसी कॉलेज में पोस्टिंग दीजिए अथवा मुझे मेरे देश वापस भेज दीजिए। मैं अब और खाली भी नहीं बैठ सकता और अपने बीवी बच्चों को लेकर गेस्ट हाउस के एक कमरे में भी नहीं रह सकता। जब पिताजी अधिकारियों से बातचीत कर रहे थे तभी वहां एक अमेरिकन व्यक्ति आया। उन्होंने पिताजी की बात सुनी और अधिकारियों से कहा कि इन्हें मेरे कॉलेज में भेज दीजिए मुझे अपने कॉलेज में गणित के प्रोफेसर की सख्त जरूरत है। वे डोको टीचर्स कॉलेज के प्रिंसिपल थे मिस्टर मैग्नर। अधिकारियों ने उनसे पूछा कि क्या आपके पास इनके लायक बहुत अच्छा घर है (क्योंकि श्री बगाड़ू शेटिमा उन्हें खास तौर पर कह कर गए थे कि इस व्यक्ति को बहुत अच्छा घर देखकर ही पोस्टिंग देना)। तब मिस्टर मैग्नर ने कहा कि हां बहुत बढ़िया एकदम नया मकान है, वेल फर्निश्ड तथा बाथरूम में बाथटब, गीजर लगे हैं, घर में फ्रिज आदि सब है। बस आनन-फानन में पिताजी को डोको के कॉलेज में पोस्टिंग दे दी गई। दो-तीन दिन बाद ही स्टेट पब्लिक सर्विस कमीशन की गाड़ी से हम वाचिको गेस्ट इन को हमेशा के लिए बाय-बाय कर के डोको की ओर रवाना हो गए।

मीना से हम बीड़ा पहुंचे। बीड़ा बड़ा शहर था। डोको बीड़ा से सत्रह किलोमीटर दूर था। मीना से बीड़ा तक की सड़क बहुत ही शानदार थी लेकिन जैसे ही हम बीड़ा से डोको की ओर बढ़े हमारी हालत खराब हो गई। पक्की सड़क तो थी ही नहीं जो कच्ची सड़क थी वह भी कोरोगेटेड थी। अकाल के मारे भूख से पीड़ित व्यक्ति की पसलियों जैसी। 17 किलोमीटर का फासला तय करने में हमें डेढ़ घंटा लग गया। पिताजी परेशान हो गए सड़क देखकर कि पता नहीं कैसी जगह होगी। कई जगह तो गाड़ी इतनी धीरे चलती कि कुत्ता भी हमसे आगे निकल जाता। ड्राइवर भी अपनी भाषा में नाराजगी से बड़बड़ा रहा था।

जैसे तैसे हम पूछते-पाछते डोको टीचर्स कॉलेज पहुंचे। वहां प्रिंसिपल के पास आने की खबर भिजवाई पिताजी ने। मिस्टर मेगनर तुरंत आए और हमें देख कर बहुत खुश हुए। उन्होंने तुरंत एक व्यक्ति को घर की चाबी देकर हमारे साथ भेजा। वह आमने-सामने मकानों की कतार में कॉलेज की एक तरफ बना सबसे कोने वाला मकान था। मकान अत्यंत ही सुंदर था। सात सीढ़ियां ऊंचा। सामने खुला बरामदा। सीढ़ियों के दोनों तरफ बड़ी-बड़ी क्यारियां। वहां हर घर में सीढ़ियों की ऊंचाई की क्यारियां बनाई जाती थी जो बरामदे के समानांतर होती थी। चपरासी ने ताला खोलकर घर दिखाया। वह भव्य और शानदार घर देखकर खराब रास्ते की सारी थकान दूर हो गई। अंदर जाते ही एक लंबा चौड़ा ड्राइंग कम डाइनिंग रूम था। सीधे हाथ की तरफ बड़ा सा चौकोर किचन उससे लगा हुआ स्टोर रूम। ड्राइंग रूम के ठीक पीछे जालीदार बरामदा। ड्राइंग रूम से उल्टे हाथ तरफ एक छोटा सा पैसेज जिसमें सामने बाथरूम था और दाएं बाएं एक-एक बेडरूम। बाथरूम में बाथटब लगा था। सामने गीजर था। सफेद झक टाइल्स थी। मकान एकदम नया कोरा था। पहली बार हमें ही मिला था। पीछे वाले कमरे के साथ छोटा सा टॉयलेट-बाथ अटैच था। कमरे में दीवार में अलमारियाँ बनी हुई थी जिन पर लकड़ी के पल्ले लगे थे। खिड़कियां खूब बड़ी थी। घर में भरपूर उजाला था। सब दूर ट्यूबलाइटें और सुंदर बल्ब लगे थे जिन पर सजावटी कांच लगे थे। सारे नल स्टील के बने चमचमा रहे थे। मैंने और भैया ने नल चालू करके देखे लेकिन पानी नहीं था हमने सोचा पानी की सप्लाई अभी बंद होगी। लाइट भी नहीं थी तो हमें लगा अभी बिजली गई हुई होगी।

थोड़ी ही देर में मिस्टर मैगनर ने पीने का पानी और थरमस में चाय भिजवाई। एक आदमी आकर घर में पर्दे लगा गया। एक टैंकर आया और पीछे के बरामदे में रखें बड़े-बड़े ड्रमों में पानी भर गया। हमने हाथ मुंह धोया और सूटकेस खोलकर साथ लाया सामान जमाने लगे।

उस दिन भारतीय तिथि अनुसार गुड़ी पड़वा था। गुड़ी पड़वा के दिन उस दूर देश की धरती पर हमारा गृह प्रवेश हुआ था। मां ने सबसे पहले रसोईघर के एक शेल्फ पर साईं बाबा और भगवान दत्तात्रेय जी की फोटो, दीया, बाती आदि रखा। चोकोर रसोई घर में एल आकार का प्लेटफार्म था। स्टोर रूम में शेल्फ बने हुए थे। सबसे पहले मां ने जो थोड़े बहुत बर्तन भारत से लाए थे वह बाहर निकाल कर जमा दिए। फिर अलमारियों में कपड़े रख दिए।

इधर हम हर थोड़ी देर में स्विच ऑन करके देखते कि लाइट आ गई क्या। वहां घरों में आंगन नहीं होते थे, ना ही बागड़, फेंसिंग अथवा मुंडेर होती थीं। दो घरों के बीच खुला स्थान होता था। दो घरों के बीच सामने और अगल-बगल काफी जगह थी। यह डोको टीचर्स कॉलेज का कैंपस था जहां सारे घर एक जैसे ही थे। बस बाकी घरों में इतनी सीढ़ियां नहीं थी। हमारे सामने वाला घर लगभग 40-50 फुट दूर था। सामने वाले मकान के पीछे वाले तीन-चार घर काफी बड़े थे जिनमें से एक घर मिस्टर मेगनर का था दूसरा वाइस प्रिंसिपल का। हमने स्टील के गिलास में चाय उड़ेली और ब्रेड खाई। कॉलेज के स्टोर से घर में फर्नीचर आने लगा। हाल में सोफा (लोहे की फ्रेम पर मोटे कुशन रखा हुआ) सेंट्रल टेबल, साइड स्टूल, डाइनिंग टेबल, एक मझोले आकार का फ्रिज, दो डबल बेड और आठ-दस इंच के स्प्रिंग लगे मोटे फोम के गद्दे, चादर-तकिए। कॉलेज के चपरासी और कुछ छात्र सारा दिन एक-एक सामान पहुंचाते गए। देखते देखते घर बस गया। शाम को मिस्टर मैग्नर तथा उनकी पत्नी मिलने आए और हमारे लिए रात को खाने के लिए सैंडविच दे गए।

अब शाम ढलने को आई थी लेकिन लाइट अभी भी नहीं आई थी। वहां दिन गर्म और लंबे होते हैं और अब तो यूं भी अप्रैल का महीना आ गया था तो गर्मी भी लग रही थी। हां घर में अब भी काफी उजाला था। अंधेरा होने से पहले कॉलेज के दो चपरासी घर आए। एक के हाथ में मिट्टी के तेल का जरीकेन था और दूसरे के हाथ में दो पेट्रोमैक्स साथ में पेट्रोमैक्स की बत्तियां जो पिचकी हुई शटल कॉक जैसी दिख रही थी। उसने पेट्रोमैक्स में घासलेट डाला, गुलाबी जालीदार बत्ती लगाई, पंप किया और पेट्रोमैक्स जला दिया। कमरे में सफेद रोशनी झिलमिला उठी। दूसरे ने फ्रिज के पीछे बनी टंकी में घासलेट डाला और उसके पीछे लगी एक चिमनी जला दी। पिताजी ने पूछा कि यह सब क्या है तो उसने बताया कि लाइट नहीं है तो आपको पेट्रोमैक्स की जरूरत पड़ेगी और फ्रिज के बारे में पता चला कि वह घासलेट से चलने वाला फ्रिज था। जब चिमनी बुझ जाए तो दोबारा घासलेट भरना पड़ता था। यह बहुत ही अप्रत्याशित बात थी हमारे लिए कि फ्रिज भी घासलेट से चलता है। उसने बताया कि हर हफ्ते कॉलेज से आपको एक केन अर्थात 5 लीटर घासलेट और चार पेट्रोमैक्स की बत्तियां मिला करेंगी।

इसके आगे की बात तो हमारी कल्पना से ही बाहर थी। डोको में लाइट-पानी की पूरी फिटिंग थी, पंखे, ट्यूबलाइट, बल्ब, गीजर, सॉकेट सब कुछ था लेकिन अभी तक वहां बिजली नहीं पहुंची थी। वह एक छोटा सा गांव था जहां कॉलेज बना दिया गया था। शानदार घर, शानदार हॉस्टल और कैंपस था लेकिन न तो बिजली थी ना पानी ही था। वहां के बल्ब ऐसे थे जैसे बहुत सुंदर आंखें तो हैं लेकिन उनमें दृष्टि न हो।विनीता राहुरीकर, भोपाल

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