कविता
कविता – मानवता
इस दहशतगर्द मौसम में कुत्ते भौंकते तो है जबकि आदमी सभ्यता का लबादा ओढकर दडबे में हो जाता है कैद...
रात, कुत्ते रो रहे थे
रात, कुत्ते रो रहे थे, पता नहीं अशगुन होने वाला था हमारे लिए या वे हमारे किए अशगुन पर रो...
तय मुझे करना हैं!
ऐसा बहुत कुछ है जो जीवन में मैने नही किया लेकिन ऐसा भी कुछ है जो सिर्फ मैने किया। नही...
रजोनिवृत्ति
ऐसे ही किसी ऊँघते हुए दिन में आह्वान और विसर्जन की तय सीमा को लाँघकर झिँझोड़ने लगती है हठिली यह...
डॉ. किशोर अग्रवाल की दो कविताएं
जाओ उन्हे बता देना -------------------- जाकर कह देना उन्हे मैं बहुत दूर निकल आई हूं इतनी कि लौट भी नही...
इतिहासों में जाकर देखो
सुनो समय के नए विधाता प्रभुता की लघुता के क़िस्से दुनिया भूल नहीं पाती है शब्द भेदने वाली विद्या लक्ष्य...
वो नीली चिट्ठियां कहां खो गई
वो नीली चिट्ठियां कहां खो गई जिनमे लिखने के सलीके छुपे होते थे कुशलता की कामना से शुरू होते थें...
क्या तुम जानती हो मां…
तुम्हारी दुआएं,आशीर्वाद और ममता.. सदा मेरे साथ हैं... क्या तुम जानती हो मां.... तुम्हारी खुशियां,तुम्हारे गम और टीस सदा मेरे...
दोष लग गया हो जैसे
निम्बू का सीना चीरकर चाहे कितने ही तरतीब से क्यों न निकाल ही दिए जाएं उसके सारे के सारे बीज...