मलयालम सिनेमा पर विशेष
अतीत की घटनाओं का जीवंत दस्तावेज – अडूर की फिल्में
वर्तमान स्थिति-संदर्भ में सिनेमा एक स्वतंत्र और नवीन कला के रूप में मनोरंजन का साधन बना है। इससे ज्ञानवर्धन भी होता है। सिनेमा अपने कलेवर में विभिन्न कलाओं को समेटने वाली एक ऐसी स्वतंत्र यांत्रिक कला है, जो जीवन के सम-विषम रूपों और भावों को नवीन कला-शिल्प के रूप में सजीव और मार्मिक अभिव्यक्ति प्रदान करने की क्षमता रखती है। सिनेमा केवल एक कलारूप नहीं, बल्कि अनेक कलाओं को अपने में समेटने वाला एक बृहद कलारूप है।
मलयालम सिनेमा के इतिहास पर ध्यान दें तो छठें दशक के अंतिम दौर से लेकर आठवें दशक की शुरूआती दौर तक की समय सीमा में बनी ज्यादातर फिल्में स्त्री-पुरुष के रिश्तों का तथा उनके बीच की लैंगिकता का स्पष्ट चित्रण कर रही हैं।
समकालीन मलयालम फिल्म क्षेत्र में अडूर गोपालकृष्णन का स्थान अद्वितीय है। प्रथम ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मलयालम साहित्यकार तकषी शिवशंकर पिल्लै की चुनी हुई कहानियों के आधार पर अडूर ने सन् 2007 में ‘नालु पेण्णुंगल’ नामक फिल्म बनायी। स्त्रीवादी दृष्टिकोण इस फिल्म में कतई नहीं है। फिर भी केरल की स्त्रियों का इतिहास, विशेषकर 1950 के आसपास के जमाने की स्त्रियों की जीवन-शैली तथा पूरी जिन्दगी को (जो आज भी प्रासंगिक है) देखने-परखने की कोशिश है यह फिल्म। केरल के परिदृश्य में स्त्री की क्या स्थिति है, मुख्यत: इस तथ्य को उजागर करने में फिल्म का योगदान है।
अडूर गोपालकृष्णन की स्वयंवरम्, कोडियेट्टम्, एलिप्पत्तायम्, मुखामुखम्, अनंतरम्, मतिलुकल्, विधेयन, कथापुरुषन, निष़लकुत्त आदि फिल्में पुरुष एवं उसकी लैंगिकता पर केंद्रित रही हैं। लेकिन ‘नालु पेण्णुंगल’ स्त्रियों पर तथा उनकी लैंगिकता पर केंद्रित है। पहली कहानी एक वेश्या की है तो दूसरी एक ऐसी स्त्री की जिसे शादी के बाद भी कुंआरी ही होकर जीना पड़ता है। तीसरी कहानी मध्यवर्गीय परिवार में अब भी जीवित ऐसी स्त्री की है जिसकी शादी के बाद भी पति के साथ रहना नामुमकिन है। चौथी कहानी स्थिति-संदर्भों के चलते हमेशा के लिए शादी न कर पाने की मजबूरी में जीने वाली एक औरत की है। कहानियों को जोड़कर फिल्म बनाने की प्रथा मलयालम में ही नहीं भारतीय सिनेमा क्षेत्र में पहले से रही है। इसका स्पष्ट उदाहरण है सत्यजित राय की ‘तीन कन्या’। यह फिल्म टौगोर की पोस्टमेन, मोनिहारा और समाप्ति आदि कहानियों को जोड़कर राय ने बनायी है।
मलयालम में अडूर इसी परंपरा को अपनाते हैं। इसी के चलते ‘नालु पेण्णुंगल’ में तकषी के चार स्त्री पात्रों को उन्होंने चुना है। तकषी का मलयालम साहित्य क्षेत्र में चेम्मीन (हिंदी में मछुआरे) उपन्यास और सिनेमा के नाम पर ख्याति है। इसके अलावा उनका कयर (रस्सी) उपन्यास भी महत्वपूर्ण है। शुरूआत से लेकर अंत तक मानव जीवन के यथार्थ के अर्थ-तत्वों तथा विडंबनाओं का चित्रण तकषी की रचनाओं का मकसद रहा है। मानव जीवन की विभिन्न अवस्थाओं को उसकी समग्रता से चित्रित करने में तकषी अग्रगण्य माने जाते हैं। कल्पना की दुनिया में विचरण करते हुए नहीं बल्कि अनुभव के साथ रचने के कारण तकषी की रचनाओं में ‘आदमीयत की झलक’ देखने को मिलती है।
हो सकता है इन्हीं कारणों से ही तकषी की कुछ खास कहानियों को अडूर ने अपनी फिल्म के लिए चुना। विश्व साहित्य जगत् में तकषी की कहानियों को अत्यधिक सरल, लेकिन फिल्मी हाव-भावों का पूर्णत: प्रयोग करते हुए अनूदित करवाना एक फिल्मकार के लिए चुनौती एवं जोखिम भरा कार्य है। कहानियों को उसकी लायक गंभीरता के साथ, आत्मा को खोये बिना फिल्म के रूप में रूपांतरित करने में अडूर पूर्णत: सफल हुआ है। उसका आउटपुट है – ‘नालु पेण्णुंगल’।
इस फिल्म के मुख्य पात्र चार स्त्रियां हैं। लेकिन चारों के परिवेश एवं स्थिति-संदर्भ भिन्न है। ये स्त्रियां एक तरह से पुरुष की अधीनता में रहने के लिए अभिशप्त या निस्सहाय अवस्था में रहने वाली हैं। फिर भी इन चारों स्त्रियों में अपने स्वत्व को बचाये रखने की ललक एवं जिजीविषा विद्यमान है। मौका पाने पर वे जाग उठती हैं और अपनी राय व्यक्त करने में तथा उस पर अडिग आस्था रखने में उन्हें डर-हिचक नहीं होती है। गलती की ओर जल्दी फिसलने वाली हैं तकषी के ज्यादातर स्त्री पात्र। तब भी वे अपने मानवीय मूल्यों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होती हैं। समाज उन स्त्रियों को किस रूप में देखना और भोगना चाहता है यह तो वे जानती ही हैं फिर भी सामाजिक मूल्यों को सुरक्षित रखती हुई वे आगे बढ़ती हैं- अपने पथ पर, बिना हटे। जीवन के इस बहाव में आगे बढ़ती हुई उन्हें किन सामाजिक अडचनों का सामना करना पड़ता है तथा वे कैसे आगे बढ़ रही हैं इसका दृश्य परदे पर अडूर ने वाकई मार्मिक ढ़ंग से दिखाया है। फिल्म के बनने में उपयोगी कहानियों की कथावस्तु कुछ इस प्रकार है-
- ओरु नियम लंघनम (कानून का उल्लंघन) – इस फिल्म के बनने में उपयोगी पहली कहानी है। अदालत पर परोक्ष रूप से व्यंग्य-विमर्श करने वाली यह कहानी वर्तमान संदर्भ में भी प्रासंगिक है। अदालत सिर्फ नाम मात्र का रह जाता है। झूठे गवाहियों और कानून तोड़ने वालों से समाज भर जाता है। वेश्यावृत्ति से सामान्य जिन्दगी में लौटने की तीव्र इच्छा रखने वाली है नायिका कुंजिप्पेण्णु। लेकिन समाज उसे हमेशा के लिए वेश्या ही देखना चाहता है। उसके पति का जीवित रहने पर भी उसे मानने के लिए समाज, कानून और अदालत तैयार नहीं है। लेकिन अपने निर्णय पर वह स्थिर रहती है, वेश्यावृत्ति में वापस नहीं जाती है।
- कन्यका – शादी के बाद भी कुंआरी ही होकर रह जाने वाली कुमारी, तकषी की सशक्त स्त्री पात्रों में से एक है। कुतंत्र एवं दुष्प्रचार से स्त्री की मानहानी कर देने वाले सामाजिक व्यवस्था पर करार व्यंग्य कर रही है यह कहानी।
- चिन्नु अम्मा – इस कहानी में नायिका का पति है लेकिन बच्चे नहीं है। एक अच्छे खानदान में जन्म लेने के कारण समाज में उसकी प्रतिष्ठा भी है। फिर भी एक आदमी जो कभी-कभार उसके पास आता है, उसे अपने जाल में फंसाना चाहता है। लेकिन अपने खानदान की महिमा को कायम रखने वाली भारतीय नारी का दृढ़ विश्वास इस पात्र में दिखाई देता है।
- नित्य कन्यका – इस चौथी कहानी में भाई-बहनों के लिए अपनी जिन्दगी की सारी सुख-सुविधाओं को खो बैठने वाली कामाक्षी नामक स्त्री हमारे सामने नजर आती है। चार कहानियों में से कन्यका सबसे सशक्त मालूम पड़ती है। अपनी मेहनत से बूढ़े मां-बाप की देखभाल करने वाली कुमारी शादी कर लेती है। कहानी का अंत तब होता है जब कुमारी अपने बीमार पिता से कह देती है कि वह अभी भी कुंआरी ही है।
फिल्म के चारों स्त्री पात्रों का परिवेश बिल्कुल भिन्न है। उन चारों को जोड़ने वाली कड़ी है – अपनापन का भाव/स्वत्व की भावना। किसी प्रतिरोधी परिस्थिति में भी बिना टूटे, अपनी आस्थाओं पर स्थिर रहने की ताकत रखती हैं ये चारों स्त्री पात्र।
स्त्री कभी भी अबला और निस्सहाय नहीं रही। परिस्थितियों का दबाव हमेशा उसे ऐसा बना देती है। फिर भी अपने स्वत्व को पहचानने वाली स्त्री जरूर से जरूर उठ खड़ी होगी, इसमें कोई शक नहीं है। कितना भी निकट के रिश्तेदार होने पर भी कोई किसी का आत्यंतिक साथी नहीं होगा। कहीं न कहीं स्वार्थ की घुसपैठ होती ही है जरूर।
स्त्री की लैंगिकता पर काबू पाने के लिए पुरुष ने जो हथियार ढूंढ़ निकाला, वह है- कुआंरीपन। पूरी फिल्म के कथानक को देखा जाए तो कहीं भी चाहे ‘कन्यका’ की नयी दुल्हन हो या ‘नित्य कन्यका’ की शादी न करने वाली कन्या – व्यवस्थाओं से टकराने की कोशिश नहीं कर रही हैं। बस, वे चाहती हैं कि व्यवस्था के अनुरूप जिन्दगी को जी लें। नयी दुल्हन यह भी कह देती है कि उसकी शादी ही नहीं हुई है। इस तरह कह दने से कहीं-न-कहीं वह अपने पति के नपुंसक होने की बात को ढंक रही है। सजा स्वयं भुगतने के लिए तैयार और आशारहित जिन्दगी जीने के लिए अभिशप्त भी हो जाती है। ऐसा लगता है पुरुष केंद्रित समाज में स्त्रियां हमेशा शिकार ही है। अडूर गोपालकृष्णन की फिल्में प्राय: आज भी प्रासंगिक अतीत की घटनाओं का जीवंत दस्तावेज है। आलोचकों का यह भी राय है कि अडूर की फिल्में स्त्रियों की गुलामीपन को तथा इस सड़ी व्यवस्था को बढ़ावा देने का काम भी कर रही है, साथ-साथ स्त्री-विरुद्ध होकर पुरुष के अधिकारों का पक्ष भी ले रही हैं।
हम यह भी कह सकते हैं कि स्त्रियों का मुख्य पात्र बनने से एक फिल्म स्त्रीवादी या नारीवादी फिल्म नहीं होगी। ‘नालु पेण्णुंगल’ भी ऐसी फिल्मों की श्रेणी में आती है।
संदर्भ – 1. ‘नालु पेण्णुंगल’ फिल्म और पटकथा
- मलयालम साप्ताहित पत्रिकाएं
- www.google.com
डॉ. सुमित पी.वी.
सहायक प्रोफेसर
हिंदी विभाग
पषश्शिराजा एनएसएस कोलेज
मट्टनूर, केरल 670702
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