पुष्पिता अवस्थी की दो कविताएं
नदी/पुष्पिता
नदी के पास
अपना दर्पण है
जिसमें नदी देखती है ख़ुद को
आकाश के साथ।
नदी के पास
अपनी भाषा है
प्रवाह में ही उसका उच्चार।
नदी
बहती और बोलती है
छूती और पकड़ती है
दिखती और छुप जाती है
कभी शिलाओं बीच
कभी अंतःसलिला बन।
नदी के पास
यादें हैं
ऋतुओं के गंधमयी नृत्य की
नदी के पास
स्मृतियाँ हैं
सूर्य के तपे हुए स्वर्णिम ताप की
हवाओं के किस्से हैं
परी लोक की कथाओं के।
नदी के पास
तड़पती चपलता है
जिसे मछलियाँ जानती हैं।
नदी के पास
सितारों के आँसू हैं
रात का गीला दुःख है
बच्चों की हँसी की सुगंध है
नाव-सी आकांक्षाएँ हैं
बच्चों का उत्साह है।
अकेले में
नदी तट पर बैठती हूँ
अपनी आँखों के तट पर
बैठे हुए
तुम्हारी हथेली से
आँसू पोंछती हूँ।
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तुम्हारी साँसों के नाम / पुष्पिता
वे ही हैं
जो जुते हैं ज़मीन में
मेरी भूख के विरुद्ध
वे ही हैं
जो डटे हैं मिल-कारखानों में
मेरी यातना के विरुद्ध
वे ही हैं
जो लगे हैं सड़कों और रेल पटरियों पर
सूर्य-ताप की पगड़ी बाँधे
हमारी यात्राओं के लिए
वे ही हैं
जो दे रहे हैं अपने हाथ
अपनी नींद
अपने सपने मशीनों में
हमारी हर सुविधा के लिए
वे ही हैं
जो रहते हैं
अपने जीवन का स्वर्ण सिक्का लगाए
कि कागजिया नोट के अभाव में
उन्हें नहीं मिलता
साँस बचाने के लिए शिक्षा
न सड़क पर रास्ता
न गाड़ी में सीट
न घर चलाने को नौकरी
न मरने पर कफ़न
वे ही हैं
जिन्हें मुँह होने पर भी
मुँह खोलने का अधिकार नहीं मिलता
वे ही हैं
जिनके बच्चे हमारे बच्चे पालते हैं
जिनकी औरतें हमारा घर चलाती हैं
जो हमें जीवन देते हैं
अपने जीवन की तलाश में
जैसे मेघ को चाहिए ज़मीन
ज़मीन को चाहिए बीज
बीज को चाहिए ॠतु
ॠतु को चाहिए प्रकृति
शब्द को चाहिए अर्थ
अर्थ को चाहिए जीवन
जीवन को चाहिए मनुष्य
मनुष्य को चाहिए सृष्टि प्रकृति
वे ही हैं
जो चुप रहते हैं
पर आँखों से बोलते हैं
उनके जुड़े हाथों के भीतर
हैं भेदों के सारे रहस्य
जिनकी रस्सी अगोचर है।