मेरी खिड़की के पार
एक शहतूत का पेड़ है जिसकी शाखें ढँकने लगी हैं खिड़की का द्वार कभी-कभी सोचती हूँ शाख़ें क्यों नहीं लिपट...
एक शहतूत का पेड़ है जिसकी शाखें ढँकने लगी हैं खिड़की का द्वार कभी-कभी सोचती हूँ शाख़ें क्यों नहीं लिपट...
मौसम नहीं बदलता है दिन-रात बदलते हैं चारों ओर वही आतप है, गहरा सन्नाटा वही गरीबी जीवन में घर में...
■ शहंशाह आलम चित्र : अशोक भौमिक कोई राजा हल चलाता हुआ देखा नहीं गया कभी तब भी राजा झूठ...
समय के सबसे भ्रष्ट और कलंकित चेहरे कर रहे हैं सभ्यता का मार्गदर्शन उन्हीं के हाथों में हैं वे रोशनियाँ...
पगले, यूँ नहीं रूकते हैं। पगले, यूँ नहीं झुकते हैं। कुछ कर जा, मैदान में आ। अलग अपनी, पहचान बना।...
ग़ज़ल ...... ❗1❗ स्वयं के भी विरुद्ध हिन्दी को , लड़ना पड़ता है युद्ध हिन्दी को । दिल पे इमला...
आम का अचार नही बना इस बार सरसों के तेल पर मंहगाई की मार लंबे हुए रास्ते भारी हुए रिश्तेदार...
राधा के श्याम की नहीं,मुझे तो, मीरा के कृष्ण की तलाश थी। प्रेम भी उपासना भी, उस प्रेम की आस...
धूप और छाँव ये मेरा गाँव, तालों पर चलता, ये डगमग नाँव, बरगद का पेड़, तालों का किनारा, शाम जहाँ...
2) केवल दो गीत लिखे मैंने। इक गीत तुम्हारे मिलने का इक गीत तुम्हारे खोने का। सड़कों-सड़कों, शहरों-शहरों नदियों-नदियों, लहरों-लहरों...