अशोक कुमार की दो कविताएं
(1) घास मैं वहां खड़ा हूँ- जहां रास्ता खत्म होता है और सड़क शुरू. हम सड़कों को- रास्ता नहीं कहते...
(1) घास मैं वहां खड़ा हूँ- जहां रास्ता खत्म होता है और सड़क शुरू. हम सड़कों को- रास्ता नहीं कहते...
दुविधा विधा है दुविधा की, हम ख़फा है दुविधा से। मन न हो परेशान दुविधा से। ये तो विधा है...
नवा राज बन के बेरा मे, भारी गदगदाए रहे महराज अब कइसे मुंह चोराए कस रेंगत हस-सुखरा के ताना मंथिर...
सबको बहुत लुभाया करतीं सबका मन हरसाया करतीं सब पर प्रेम लुटाया करतीं प्यारी - प्यारी चिड़ियां कुटिया, बंगला, मंदिर,...
हाँ..मैं भी कह देती अपने दिल की बात जो तुम सुन लेते तो अच्छा होता जुबा़ से कह नहीं पाऊँगी...
मीलों मील अकेले चलना अपना दीपक बनकर जलना सूरज की तो फ़ितरत है ये नित्य नया हो, उगना ढलना बुझे...
बात धर्म की आते ही कट्टर हो जाते हैं अच्छे-अच्छे इंसां भी पत्थर हो जाते हैं कैसी पूजा और इबादत...
कोरोना, दूर भगाना है जाग उठो, अब जाग उठो, हम सबकी जान बचाना है, इस कोरोना महामारी से , भारत...
आख़िरी गीत --------------------- आख़िरी गीत.. मुहब्बत का.. गुनगुना तो चलूँ। अंधेरा छा रहा है.. दीया लड़खड़ा रहा है.. झलक मिल...
कच्ची मिट्टी की छितराई हुई दिवार जहाँ एक दीमक लगी खिड़की भी थी...... वहीं कहीं आस पास एक शाम ढली!!!!!...